ब्लॉग: बांग्लादेश में सेना की भूमिका पर उठते सवाल
By शोभना जैन | Published: August 10, 2024 10:25 AM2024-08-10T10:25:25+5:302024-08-10T10:26:46+5:30
23 जून को ही बांग्लादेश सेना की कमान संभाली थी। सेना अध्यक्ष बनने से पहले उन्होंने छह महीने से अधिक चीफ ऑफ जनरल स्टाफ के रूप में कार्य किया।
बांग्लादेश में जारी उथल-पुथल के बीच सवाल यह भी उठा है कि क्या शेख हसीना का राज खत्म होने के पीछे सेना की भूमिका है और क्या सत्ता अब पिछले दरवाजे से जनरल वकार-उज-जमान के हाथ आ गई है? वैसे इतिहास बताता है कि पाकिस्तान की तरह बांग्लादेश की सेना ने कभी लंबे समय तक देश की बागडोर नहीं संभाली है। वर्ष 1975 तथा फिर 1990 में सेना ने थोड़े समय तक ही सत्ता की बागडोर संभाली। उसके बाद दिसंबर 2008 में एक बार फिर उसने सत्ता की बागडोर संभाली। लोकतांत्रिक व्यवस्था दोबारा कायम होने के बाद वह देश की कमान से हट जाती थी।
बांग्लादेश के सैन्य प्रमुख वकार-उज-जमान ने कई साल शेख हसीना के साथ नजदीकी तौर पर काम किया है। वे सेना के आधुनिकीकरण से भी जुड़े रहे हैं। जनरल जमान ने गत 23 जून को ही बांग्लादेश सेना की कमान संभाली थी। सेना अध्यक्ष बनने से पहले उन्होंने छह महीने से अधिक चीफ ऑफ जनरल स्टाफ के रूप में कार्य किया।
बांग्लादेश मामलों के एक जानकार के अनुसार सेना ने कानून और व्यवस्था के मुद्दों पर हसीना सरकार का तब तक समर्थन किया जब तक कि यह साफ नहीं हो गया कि विरोध प्रदर्शन बहुत बड़े थे और प्रदर्शनकारी सेना की अवहेलना करने के लिए तैयार थे। सेना प्रमुख ने यह साफ कर दिया था कि वह अपने सैनिकों को गोली चलाने का आदेश नहीं देंगे।
इससे शेख हसीना की किस्मत तय हो गई। लेकिन फिर सेना ने मध्यस्थ की भूमिका निभाई। जनरल वकार ने देश चलाने के लिए अंतरिम सरकार के गठन पर चर्चा करने के लिए राजनीतिक दलों को आमंत्रित किया।
सेना की नई सरकार में भूमिका के साथ ही और भी कई गहरे सवाल तो चल ही रहे हैं। क्या नई सरकार वहां हिंसा पर काबू कर पाएगी? एक अर्थशास्त्री के शासन प्रमुख हो जाने के बाद क्या वहां ध्वस्त अर्थव्यवस्था पटरी पर आ सकेगी। वहां चुनाव कब तक हो पाएंगे। इस पृष्ठभूमि में वहां सेना की भूमिका का मुद्दा दिनोंदिन और अहम होता जा रहा है।
बहरहाल, फिलहाल तो यही लगता है कि बांग्लादेश में हालात काबू में करने के लिए सेना के तस्वीर में सीधे आने से हालात फौरी तौर पर तो जरूर सुधारे जा सकते हैं लेकिन यह समस्या का स्थायी हल नहीं होगा। प्रदर्शनकारी छात्र वहां सैन्य सरकार के पक्ष में कतई नहीं हैं और फिर सेना के लिए भी वहां स्थिर राजनीतिक व्यवस्था बना पाना एक बड़ी चुनौती है। वहां सरकार का स्वरूप क्या होगा, सेना का सिविल सरकार में कितना और कितने समय तक दखल रहेगा, इन तमाम उलझे सवालों का जवाब तो फिलहाल भविष्य के गर्भ में ही छिपा है।