America Iran: नाटो देश भी उठा रहे अमेरिका पर सवाल?,  अमेरिकी राष्ट्रपति का रवैया ही जिम्मेदार

By राजेश बादल | Updated: June 25, 2025 05:56 IST2025-06-25T05:56:02+5:302025-06-25T05:56:02+5:30

America Iran: नाटो के सभी सदस्य देश अपनी जीडीपी का पांच प्रतिशत रक्षा पर खर्च करें. इससे पहले वे दो प्रतिशत की बात करते थे. नाटो के देशों को उनका रवैया बेतुका लग रहा है.

America Iran NATO countries also raising questions on America attitude of the American President is responsible blog rajesh badal | America Iran: नाटो देश भी उठा रहे अमेरिका पर सवाल?,  अमेरिकी राष्ट्रपति का रवैया ही जिम्मेदार

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Highlightsकूटनीतिक सलाहकार भी कमोबेश उनकी तरह ही हैं. वे डोनाल्ड ट्रम्प के यस मैन की तरह बर्ताव करते हैं.ऐसे में डोनाल्ड ट्रम्प विचित्र सा दबाव नाटो के सारे सदस्य देशों पर डाल रहे हैं.राष्ट्र इतना पैसा रक्षा पर खर्च नहीं करेंगे तो वे रूस से उनका बचाव नहीं करेंगे.

America Iran: दुनिया का चौधरी अमेरिका इन दिनों मुश्किल दौर से गुजर रहा है. आंतरिक अशांति और चुनौतियों से जूझ रहे इस भीमकाय देश की सारी परेशानियों का सबब राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प हैं. वे अपने सोच-विचार और कार्यशैली के कारण मुल्क के भीतर ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया के लिए विकराल संकटों की बौछार कर रहे हैं. विडंबना यह कि अपने व्यवहार में राष्ट्रपति महोदय परिवर्तन नहीं लाना चाहते. उनके कूटनीतिक सलाहकार भी कमोबेश उनकी तरह ही हैं. वे डोनाल्ड ट्रम्प के यस मैन की तरह बर्ताव करते हैं.

इसका प्रतिकूल असर अमेरिका ही नहीं, अपितु समूचे विश्व के लोकतांत्रिक माहौल पर पड़ रहा है. नीदरलैंड के हेग में सोमवार से उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन यानी नाटो की बैठक हो रही है. नाटो कभी दुनिया का सबसे ताकतवर सैनिक सहयोग संगठन था, लेकिन इन दिनों यह इतिहास के सबसे खराब दौर से गुजर रहा है. इसके लिए अमेरिकी राष्ट्रपति का रवैया ही जिम्मेदार है.

दरअसल नाटो की शिखर बैठक ऐसे माहौल में हो रही है, जबकि तीन साल से भी अधिक समय से रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध चल रहा है, मध्य-पूर्व में ईरान और इजराइल के बीच अभी औपचारिक युद्धविराम संशय में है और समूची वैश्विक अर्थव्यवस्था अस्थिरता के दौर का सामना कर रही है. ऐसे में डोनाल्ड ट्रम्प विचित्र सा दबाव नाटो के सारे सदस्य देशों पर डाल रहे हैं.

वे कह रहे हैं कि नाटो के सभी सदस्य देश अपनी जीडीपी का पांच प्रतिशत रक्षा पर खर्च करें. इससे पहले वे दो प्रतिशत की बात करते थे. नाटो के देशों को उनका रवैया बेतुका लग रहा है. कभी वे कहते हैं कि अमेरिका के पैसे पर नाटो देश सुविधाएं भोग रहे हैं तो कभी कहते हैं कि जो राष्ट्र इतना पैसा रक्षा पर खर्च नहीं करेंगे तो वे रूस से उनका बचाव नहीं करेंगे,

उल्टे रूस को उन पर आक्रमण के लिए प्रोत्साहित करेंगे. ऐसे अटपटे मिजाज वाले व्यक्ति का कोई संगठन कर भी क्या सकता है? पिछले कार्यकाल में वे यहां तक धमका चुके हैं कि यदि नाटो के देश उनकी बात नहीं मानते तो वे नाटो से अलग होने में पल भर की देर नहीं करेंगे.

नाटो देशों के प्रति अमेरिकी राष्ट्रपति का यह अहंकारी रवैया बेवजह भी नहीं है. व्यावहारिक तौर पर अमेरिका समूचे यूरोपीय देशों को किसी भी परमाणु हमले से बचाव की गारंटी देता रहा है. यूरोप के राष्ट्रों पर रूस के परमाणु हमले का संकट बना रहता है. मगर, यह स्थिति तो 1945 के बाद से ही बन गई थी, जब जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर अमेरिका ने परमाणु बम गिराए थे.

उसके बाद से ही अमेरिका परमाणु हथियारों का अकेला स्वयंभू चौकीदार बना हुआ है. नाटो के देश भी यह तथ्य जानते हैं, लेकिन डोनाल्ड ट्रम्प जिस सामंती और धौंस डपट का प्रदर्शन करते हैं, वह 2025 का यूरोप स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है. अतीत में इक्का-दुक्का घटनाएं अवश्य हुईं, जब अमेरिका की अधिनायकवादी सोच का नाटो के सदस्यों ने विरोध भी किया.

लेकिन बाद में अमेरिका ने उनको मना लिया. पर, डोनाल्ड ट्रम्प तो इतने जिद्दी और हेकड़ीबाज हैं कि वे इसकी जरूरत भी नहीं समझते. सबसे पहले अमेरिका और उसके पिछलग्गू ब्रिटेन के नाटो में रौब का फ्रांस ने विरोध किया था और 1966 में नाटो से अपने को अलग कर लिया था. फ्रांस का कहना था कि उसकी संप्रभुता अमेरिका के कारण खतरे में है.

उन्होंने अपने देश से नाटो का कार्यालय और अमेरिकी सैनिकों को हटा दिया था. करीब सोलह बरस पहले अमेरिका ने फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी को मनाया. उसके बाद फ्रांस फिर से नाटो में शामिल हुआ. अमेरिका से खफा ग्रीस ने भी नाटो से कुट्टी कर ली थी. जब 1974 में साइप्रस में तख्तापलट हुआ तो उसे ग्रीस का समर्थन था.

इससे तुर्किए क्रोध में आया और उसने साइप्रस पर हमला करके उसके एक तिहाई इलाके पर कब्ज कर लिया. आज भी यह इलाका उसके कब्जे में है. ग्रीस और तुर्किए नाटो में थे. ग्रीस को लगा कि अमेरिका चाहता तो तुर्किए को रोक सकता था. उसने नाटो से सैन्य सहयोग का नाता तोड़ लिया. छह साल बाद अमेरिका ने मनाया और ग्रीस फिर नाटो में शामिल हो गया.

तीसरा अवसर आया, जब तुर्किये ने रूस से एस-400 मिसाइल रक्षा तंत्र खरीदा था. अमेरिका ने इसे नाटो के लिए खतरा बताया क्योंकि नाटो तो रूस से बचाव के लिए ही बना था. तुर्की को एफ-35 लड़ाकू जेट कार्यक्रम से बाहर कर दिया. इसी तरह हंगरी की रूस से स्वाभाविक निकटता अमेरिका को कभी नहीं पोसाई.

इन अतीत कथाओं को लिखने का मकसद यह है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प अपने सारे पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों से अलग हैं. अमेरिका में उन्हें झूठा और पाखंडी कहा जाने लगा है. वे इसीलिए अपने देश के इतिहास में सर्वाधिक अलोकप्रिय राष्ट्रपति हैं. वे हेग शिखर सम्मेलन में चाहेंगे कि नाटो देश उनके इशारे पर नाचें. लेकिन ऐसा होता नहीं दिखाई देता.

स्पेन और कनाडा ने रक्षा बजट बढ़ाने की मांग खारिज कर दी है. ट्रम्प ने अपनी शैली में उत्तर देते हुए कहा कि नाटो स्पेन और कनाडा से निपट लेगा. नाटो ने एक महीने में तीन लाख सैनिक बढ़ाने का ऐलान किया है. नाटो के महासचिव कह चुके हैं कि अब रूस से निपटने की बारी है.

संदर्भ के तौर पर बता दूं कि इजराइल नाटो का सदस्य नहीं है लेकिन उसे प्रमुख गैर नाटो सहयोगी का दर्जा दिया गया है. उस पर अमेरिका दशकों से मेहरबान है. आंकड़े कहते हैं कि 2022 में उसे अमेरिका ने 4.8 अरब डॉलर की मदद दी थी.

लेकिन पिछले साल जो बाइडेन ने इजराइल को 18 खरब, 47 अरब, 15 करोड़ 19 लाख रुपए यानी 22.76 बिलियन डॉलर की सहायता दी. एक बरस में इतनी बढ़ोत्तरी और नाटो के सदस्य देशों को रक्षा बजट बढ़ाने का ट्रम्पी निर्देश आने वाले दिनों के लिए आशंकाओं को जन्म देता है.

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