अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: श्रीलंका की दुर्गति और भारत के लिए सबक

By अभय कुमार दुबे | Updated: July 20, 2022 15:31 IST2022-07-20T15:23:07+5:302022-07-20T15:31:10+5:30

श्रीलंका की मौजूदा दुर्गति इसलिए हुई क्योंकि श्रीलंका के नेताओं और नीति-निर्माताओं ने कर्ज लेकर घाटे की पूर्ति करने का तरीका अपनाया। इससे थोड़े समय तक इस देश के मानव-विकास सूचकांक यूरोपीय देशों के स्तर पर पहुंच गए थे लेकिन यह एक भ्रम था।

Abhay Kumar Dubey's blog: Sri Lanka's economic woes and lessons for India | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: श्रीलंका की दुर्गति और भारत के लिए सबक

फाइल फोटो

Highlightsश्रीलंकाई विकास के मॉडल की पोल बुरी तरह से खुल गई और इसकी चार वजहें थीं 2019 में ईस्टर के मौके पर हुए आतंकी हमले और कोविड ने पर्यटन को बुरी तरह से प्रभावित कियाविदेशी मुद्रा की किल्लत के कारण अचानक रासायनिक खाद के आयात को प्रतिबंधित कर दिया गया

मोटे तौर पर श्रीलंका की मौजूदा दुर्गति के कारण इस प्रकार हैं: शुरू से ही इस देश की अर्थव्यवस्था राजकोषीय घाटे और चालू खाते के घाटे की समस्या से ग्रस्त रही है। बजाय इसके कि इस घाटे का मुकाबला स्थानीय स्तर पर उत्पादन के जरिये करने का रास्ता अपनाया जाता, श्रीलंका के नेताओं और नीति-निर्माताओं ने कर्ज लेकर घाटे की पूर्ति करने का तरीका अपनाया। इससे थोड़े समय तक इस देश के मानव-विकास सूचकांक यूरोपीय देशों के स्तर पर पहुंच गए थे लेकिन, यह एक भ्रम था।

जैसे ही कुछ आफतें आईं—श्रीलंकाई विकास के मॉडल की पोल बुरी तरह से खुल गई। ये आफतें चार किस्म की थीं। 2019 में ईस्टर के मौके पर एक बड़ा आतंकवादी हमला हुआ। इसने पर्यटन से होने वाली आमदनी को बुरी तरह से प्रभावित किया। दूसरे, विदेशी मुद्रा की किल्लत को देखते हुए राष्ट्रपति ने अचानक रासायनिक खाद के आयात को प्रतिबंधित कर दिया और पूरे देश को रातोंरात ऑर्गनिक खेती के जोन में बदलने की घोषणा कर दी गई। इस अनायास कदम ने न केवल एक दीर्घकालीन किसान आंदोलन को जन्म दिया, बल्कि खेती का बेड़ा गर्क कर दिया।

तीसरे, अपने कॉरपोरेट समर्थकों की राय पर अमल करते हुए राष्ट्रपति गोटाबाया ने वैल्यू एडेड टैक्स आधा कर दिया और कैपिटल गेन टैक्स को खत्म ही कर दिया गया। इससे सरकार की राजस्व आमदनी बहुत घट गई। श्रीलंका में जीडीपी के अनुपात में कराधान पहले से ही कम था। खर्चे चलाने के लिए सरकार टकसाल में दनादन रुपए छापने लगी। इससे मुद्रास्फीति बहुत बढ़ गई। नतीजतन रुपए की कीमत भी गिरनी ही थी।

चौथे, रही-सही कसर कोविड महामारी ने पूरी कर दी। स्थानीय उत्पादन बुरी तरह से गिर गया। विदेश में रह रहे श्रीलंकाइयों द्वारा भेजे जाने वाले डॉलर भी न के बराबर रह गए। गोटाबाया की मुश्किल यह थी कि वे अपनी टकसाल में डॉलर नहीं छाप सकते थे। श्रीलंका दिवालिया होने के लिए अभिशप्त हो गया।

भारत श्रीलंका की इस स्थिति से क्या सबक सीख सकता है? भारतीय अर्थव्यवस्था श्रीलंका की तरह छोटी, पर्यटन आधारित या उसकी खेती एक या दो तरह की उपज पर आधारित नहीं है। भारत में उत्पादन का आधार बहुमुखी है और उसके पास छह सौ अरब डॉलर का विदेशी मुद्राकोष मौजूद है लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं है कि भारतीय अर्थव्यवस्था भी विभिन्न कारणों से आर्थिक संकट से गुजर रही है।

महंगाई और बेरोजगारी का बोलबाला हो चुका है लेकिन राजकोषीय घाटे और चालू खाते की घाटे की पूर्ति के लिए भारत को विदेशी कर्ज की आवश्यकता नहीं पड़ती है। घाटे की पूर्ति करने के लिए उसे श्रीलंका की तरह सॉवरिन डॉलर बांड्स जैसे घातक कदम भी नहीं उठाने पड़ते है। यहां की सरकार कॉरपोरेट परस्त तो है, लेकिन वह जनता के बीच अपनी छवि को लेकर भी सतर्क रहती है। कॉरपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने वाली नीतियां बनाई जाती हैं, साल-साल भर लंबे आंदोलन भी चलते हैं, लेकिन अंत में संसद में पारित हो चुके कानूनों तक को वापस ले लिया जाता है।

राजनीतिक नेतृत्व में निरंकुशता के पहलू तो हैं, लेकिन अभी तक मनमाने फैसले लेने की प्रवृत्ति ने वे सीमाएं नहीं लांघी हैं, जो गोटाबाया ने लांघ ली थीं। जब गोटाबाया ने कॉरपोरेट सलाहकारों की मानते हुए टैक्सों में जबरदस्त कटौती की थी, तो मुद्राकोष ने उन्हें चेताया था कि ऐसे कदमों का बुरा हश्र हो सकता है लेकिन उनके कानों पर जूं तक नहीं रेंगी।

गोटाबाया जैसा रवैया भारत के प्रधानमंत्री ने केवल एक बार दिखाया है—जब उन्होंने अचानक नोटबंदी की घोषणा की थी लेकिन दूसरी तरफ भारत के सत्ताधारियों ने आर्थिक संकट से आम लोगों पर पड़ने वाले प्रभाव से हो सकने वाली अलोकप्रियता के अंदेशे को भांपकर एक विशाल सब्सिडी तंत्र भी विकसित किया है, जो विभिन्न स्कीमों और बैंकों में खाते खुलवाने के जरिये गरीबों तक कुछ न कुछ आर्थिक राहत पहुंचाता रहता है। इस प्रक्रिया में एक बड़ा लाभार्थी वर्ग पैदा हुआ है, जो सरकार को वोट दे या न दे, लेकिन उसका गुस्सा सड़क पर निकल कर विरोध प्रदर्शन की हद तक नहीं पहुंचता है।

भारतीय अर्थव्यवस्था श्रीलंका जैसे चक्कर में तब फंसेगी जब यह विशाल सब्सिडी तंत्र भी लोगों के गुस्से को नियंत्रित कर पाने में नाकाम हो जाएगा। जैसे ही ऐसा होगा, महंगाई और बेरोजगारी को चुनावी मुद्दा बनने से नहीं रोका जा सकेगा़, उस समय लोगों का गुस्सा सरकार के खिलाफ वोट डालने में फूट सकता है। अगर इस परिस्थिति ने महंगाई और बेरोजगारी के खिलाफ किसी बड़े जनांदोलन को जन्म दिया तो आक्रोशित जनता की प्रतिक्रिया आंदोलन के प्रति सरकार के रवैये पर निर्भर करेगी।

Web Title: Abhay Kumar Dubey's blog: Sri Lanka's economic woes and lessons for India

विश्व से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे