बुरे की सक्रियता और अच्छे की निष्क्रियता से विनाश में बदलता विकास
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: January 22, 2025 06:53 AM2025-01-22T06:53:38+5:302025-01-22T06:53:43+5:30
और उतना भी शायद लोगों को टेलीफोबिया या अनजाने भय से बचाने के लिए पर्याप्त होगा

बुरे की सक्रियता और अच्छे की निष्क्रियता से विनाश में बदलता विकास
हेमधर शर्मा
जो स्मार्टफोन आज हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है, चिंताजनक खबर यह है कि ब्रिटेन में उसी स्मार्टफोन की घंटी सुनकर करीब 25 लाख युवा डर जाते हैं. टेलीफोबिया नामक इस नई बीमारी के इलाज के लिए ब्रिटेन के नॉटिंघम कॉलेज में एक नया कोर्स शुरू किया गया है, जिससे युवाओं का मोबाइल के प्रति डर खत्म किया जा रहा है.
नॉटिंघम कॉलेज का कोर्स हो सकता है लोगों का टेलीफोबिया खत्म कर उनके भीतर आत्मविश्वास ला दे, लेकिन इतनी बड़ी संख्या में अगर युवा इससे पीड़ित हैं, तो क्या हमें बीमारी के लक्षणों का इलाज करने तक सीमित रहने के बजाय उसके कारणों की तह में नहीं जाना चाहिए?
समुचित जांच की जाए तो दुनिया में शायद करोड़ों लोग टेलीफोबिया से कम-अधिक मात्रा में पीड़ित मिल जाएंगे. फोन के जरिये फ्रॉड किए जाने की ढेरों खबरें हमें प्राय: प्रतिदिन ही पढ़ने को मिलती हैं. अगर आप भी कभी इस तरह के फ्रॉड का शिकार हो जाएं तो फोन की घंटी सुनकर क्या आपको भी एक अनजाना सा भय नहीं लगने लगेगा?
सच तो यह है कि दुनिया में विकास की रफ्तार बढ़ने के साथ ही हमारे मन में भय भी बढ़ता जाता है. आज जिस तरह की दुुनिया में हम जी रहे हैं, उसमें बुरी खबरों की ही आशंका ज्यादा होती है. सड़कों पर वाहन और आपराधिक तत्व इतने ज्यादा बढ़ गए हैं कि घर से जब हमारा बच्चा स्कूल के लिए निकलता है या कोई प्रियजन बाहर जाता है तो उसके सकुशल घर लौट आने तक एक अनजाना तनाव हमें घेरे रहता है.
पुराने जमाने में जब किसी के घर डाकिया टेलीग्राम लेकर आता था तो उसे पढ़े बिना ही रोना-धोना मच जाता था, क्योंकि धारणा बन गई थी कि टेलीग्राम से दु:खद खबरें ही आती हैं. आज विकास के साधनों पर भी बुरे तत्व इस तरह हावी हैं कि उसके खराब होने की धारणा बनती जा रही है. टेलीग्राम से अच्छी खबरें भी भेजी जा सकती थीं और भेजी भी जाती थीं, लेकिन उनकी संख्या दु:खद खबरों की तुलना में नगण्य थी.
इसी तरह टेलीफोन या अन्य आधुनिक गैजेट्स में मानव जाति के विकास की अपार संभावनाएं हैं और कुछ हद तक इनसे विकास हो भी रहा है, लेकिन बुरे तत्व उनका जितना दुरुपयोग कर रहे हैं, उसकी तुलना में सदुपयोग इतना नगण्य है कि टेलीफोन की घंटी टेलीफोबिया बनती जा रही है, सोशल मीडिया लोगों को अनसोशल बनाता जा रहा है!
क्या हमने कभी सोचा है कि सजा सख्त करते जाने के बावजूद रेप-गैंगरेप जैसी घटनाएं कम होने के बजाय बढ़ क्यों रही हैं? या पर्यावरण को लेकर इतना हो-हल्ला मचने के बावजूद ग्लोबल वार्मिंग में गुणात्मक इजाफा क्यों हो
रहा है?
पुरानी कहानी है कि एक राजा ने अपने राज्य की सुख-समृद्धि के लिए एक तालाब खुदवाया और मुनादी करवाई कि रात में सभी नागरिक उसमें एक-एक लोटा दूध डालें. अगले दिन सुबह तालाब लबालब तो था, लेकिन दूध से नहीं बल्कि पानी से.
आज अगर समाज में बुराइयों का बोलबाला है तो इसमें हमारे भी एक लोटे पानी का योगदान है. कुछ लोग भी अपने हिस्से का एक लोटा दूध डालें तो पानी कम से कम दूध जैसा दिखाई तो देगा! और उतना भी शायद लोगों को टेलीफोबिया या अनजाने भय से बचाने के लिए पर्याप्त होगा. कहावत है कि डूबते को तिनके का सहारा भी काफी होता है. क्या हम खुद को वह तिनका बनाने की कोशिश नहीं कर सकते?