ब्लॉग: नर सेवा ही नारायण सेवा है...नए पंथ की स्थापना से बढ़कर है
By शक्तिनन्दन भारती | Published: October 15, 2021 01:32 PM2021-10-15T13:32:32+5:302021-10-15T13:33:47+5:30
सत्य करुणा और अहिंसा से प्रेरित चित्त कभी भी नए धर्म की स्थापना का प्रयास नहीं करेगा बल्कि वह मानव मात्र के कल्याण का प्रयास करेगा।
धर्म अपने गलत अर्थ में रूढ़ और गलत परंपराओं और गलत नीतियों का वाहक बन जाता है। रूढ़िवादी धर्म और रूढ़िवादी परंपराओं को मानने में व्यक्ति का चित्त भी अभ्यस्त होने लगता है तथा गलत परंपराओं और रूढ़ियों को सही साबित करने के लिए अलग से नए पंथ और संप्रदाय बनाने की कोशिश में लग जाता है।
जितने भी पंथ और संप्रदाय थे प्रारंभ में एकल थे किंतु कालांतर में उसमें बहुआयामी शाखाएं विकसित हो गईं। पंथों के बहुआयामी शाखाओं में बँटने का एकमात्र कारण था मूल पंथ की गलतियों को छिपाने का व्याख्यायित प्रयास। "मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना" वाली कहावत इसी वजह से सही चरितार्थ होती है।
श्रुतियों और परंपराओं की गलत व्याख्या के विषय में आदि शंकराचार्य का कथन है कि यदि श्रुतियाँ कहती हैं कि आग जलाती नहीं है और हमारे अनुभव में यह देखने में आता है कि आग तो सब कुछ भस्म कर सकती है तो हमें अपने अनुभव को ही प्रमाण मानना चाहिए।
बुद्ध ने अपना अंतिम उपदेश "अप्प दीपो भव" व्यक्ति की आत्यंतिक अनुभूति गम्य आंतरिक सत्यता को ध्यान में रख कर ही दिया होगा।
अपने अनुभव को प्रमाण मानने के पीछे शर्त यह है कि अनुभवकर्ता की शारीरिक मानसिक अवस्था दुरुस्त हो और वह मनोवैज्ञानिक रूप से वह झूठा ना हो।
मानवता की दृष्टि जब भी बहिर्मुखी रही है हर उस समय उसने एक नया पंथ या संप्रदाय दिया है। वैज्ञानिक खोजों के लिए चित्त का बहिर्मुखी होना आवश्यक है किंतु धार्मिक और संप्रदायगत विवेचना के लिए चित्त का अंतर्मुखी होना अत्यंत आवश्यक है। मानव कल्याण के लिए किए जाने वाले अहंकार पूर्ण प्रयासों के कारण ही नए पंथ और संप्रदाय का सृजन होता है।
अहंकार का त्याग करते हुए मानव कल्याण के लिए किए जाने वाले छोटे से छोटे प्रयास को भी वरेण्य मानना और इसकी परंपरा विकसित करना नए पंथ और संप्रदाय के गठन को हतोत्साहित कर सकता है।
सत्य करुणा और अहिंसा से प्रेरित चित्त कभी भी नए धर्म की स्थापना का प्रयास नहीं करेगा बल्कि वह मानव मात्र के कल्याण का प्रयास करेगा। एक भूखे व्यक्ति को भोजन दे देना, एक बीमार और एक रोगी की सेवा कर देना भी किसी नए पंथ या संप्रदाय की स्थापना से बढ़कर है। नर सेवा ही नारायण सेवा है।