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प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल का ब्लॉग: जैन धर्म पंथ नहीं, जीवन दर्शन

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: April 6, 2020 08:06 IST

जैन धर्म भारत की तप पर आधारित त्यागवादी जीवन परंपरा का पंथ है. यह पंथ नहीं, जीवन दर्शन है. यह एक ऐसा जीवन दर्शन है जिसमें मनुष्य अपने को अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य और सत्य के पंच महाव्रतों का पालन करते हुए सभी ग्रंथियों से मुक्त कर निर्ग्रथ करता है.

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आज जब सर्वत्न हिंसा का पारावार है, स्वार्थो की पूर्ति के लिए दूसरे को शोषित और शासित करने की धूम मची हुई है, वैयक्तिक संपत्ति के संग्रह और उस अर्जित संपत्ति को अपने ऐंद्रिक आनंद के लिए उपयोग करने की अधिकारवादी व्यवस्था सर्वत्न प्रभावी है, तब भगवान महावीर की  शिक्षाओं का स्मरण और अधिक आवश्यक है.

ट्रस्टीशिप की बात, जिसको गांधीजी ने बार-बार भारत के स्वधर्म के रूप में दोहराया था, भगवान महावीर के द्वारा ही प्रतिपादित हुई थी. जैन धर्म भारत की तप पर आधारित त्यागवादी जीवन परंपरा का पंथ है. यह पंथ नहीं, जीवन दर्शन है. यह एक ऐसा जीवन दर्शन है जिसमें मनुष्य अपने को अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य और सत्य के पंच महाव्रतों का पालन करते हुए सभी ग्रंथियों से मुक्त कर निर्ग्रथ करता है.

जैन अहिंसा हिंसा न करने का केवल निषेधात्मक नहीं, अपितु जैन जीवन दर्शन का सारतत्व है. भगवान महावीर ने तीन प्रकार की हिंसा से सर्वविध दूर रहने को ही अहिंसा माना है. शरीर के स्तर पर अहिंसा अर्थात किसी भी प्राणी को अपने शरीर के द्वारा दु:ख न पहुंचाना. यह हिंसा का सबसे स्थूल रूप है जहां यह दिखाई देती है. इसीलिए हिंसा का प्रारंभ भी वहीं से माना जाता है. इससे आगे बढ़कर मानसिक हिंसा से मुक्ति महत्वपूर्ण है यानी मन के स्तर पर किसी के प्रति हिंसा का न आना.

मानसिक अहिंसा का मतलब किसी का अनिष्ट न सोचना है. मानसिक अहिंसा सबके प्रति वैर भाव का त्याग है. सभी व्यक्तियों और प्राणियों के प्रति मित्न भाव की उत्पत्ति है. तीसरा स्तर बौद्धिक अहिंसा है जिसका तात्पर्य किसी के प्रति घृणा के भाव से मुक्ति है और व्यक्ति, परिस्थिति या परिवेश सबको सहजता से स्वीकार करना है. वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति को यथावत स्वीकार करना ही घृणा से मुक्ति है. जब व्यक्ति में वस्तु या परिस्थिति के प्रति घृणा जन्म लेती है तो मानसिक अशांति होती है जो असंतुलन और असामंजस्य का कारण बनती है.

बौद्धिक अहिंसा की अवधारणा और उससे मुक्ति चेतना की सूक्ष्मता के स्तर पर अहिंसा के भाव को जगाना है. मनुष्य किसी व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति को जैसा है, वैसा स्वीकार करता है और उसकी स्वीकृति से समन्वित जीवन जीता है. यही संतुलित जीवन ही विक्षोभ और संत्नास से मुक्त सुख और संतोष का जीवन है.

अहिंसा सत्य के बिना संभव नहीं है. सत्य से तात्पर्य सत्य बोलना मात्न नहीं है. सत्य व्रत का अर्थ है उचित और अनुचित में उचित का चुनाव करना. क्षणभंगुर और शाश्वत में से शाश्वत को चुनना और स्वीकार करना. इसी प्रकार महावीर द्वारा प्रतिपादित अपरिग्रह का विचार आज के संसार के लिए संपोष्य और लोक कल्याणकारी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था का प्रेरक सिद्धांत है.

अपरिग्रह का तात्पर्य है मन, शरीर, बुद्धि, अर्थ, संपत्ति, संतति किसी को केवल अपना न मानना. अपरिग्रह का यह सिद्धांत भगवान महावीर के द्वारा प्रतिपादित धर्म पंथ का केंद्रीय विचार है. अपरिग्रह स्थापित हो जाए तो अहिंसा और सत्य की स्थिति को प्राप्त करना मनुष्य के लिए सहज हो जाता है. अपरिग्रह का सिद्धांत भी त्रिआयामी है- व्यक्ति अपरिग्रह, विचार अपरिग्रह, वस्तु अपरिग्रह.

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