ओशो (1931-1990): एक आध्यात्मिक यात्रा का नाटकीय दुखांत
By रंगनाथ सिंह | Published: January 19, 2018 03:29 PM2018-01-19T15:29:54+5:302021-03-26T11:53:17+5:30
ओशो के माता-पिता ने उनका नाम चंद्रमोहन जैन रखा था। जिसे खुद उन्होंने पहले आचार्य रजनीश फिर भगवान श्री रजनीश और आखिरकार ओशो किया।
ओशो ने न जन्म लिया, न ही उनकी मृत्यु हुई, वो इस पृथ्वी ग्रह की यात्रा पर आए थे और चले गये। धरती से परे जीवन हो या न हो, ओशो की समाधि पर यही लिखा है। अगर थोड़ी देर के लिए हम मान भी लें कि ये सच है तो ओशो के दुनिया को छोड़ने की बरसी पर ये ख़्याल ज़हन में आ ही जाता है कि वो यात्री किसी और ग्रह से अपने पीछे छूट गयी दुनिया को कैसे देखता होगा! उसे कैसा लगता होगा ये देखकर कि आज ओशो कम्यून से बाहर उसकी चर्चा सेक्स, संपत्ति विवाद के बाद अब उसी की कथित हत्या के लिए हो रही है।
11 दिसंबर 1931 को मध्य प्रदेश के कुचवाड़ा में जन्मे चंद्रमोहन जैन का 58 वर्ष की उम्र में 19 जनवरी 1990 को देहांत हुआ। चंद्रमोहन से वो आचार्य रजनीश हुए, फिर भगवान श्री रजनीश और अंत में ओशो के रूप में विदा हुए। चंद्रमोहन नाम माँ-बाप ने दिया था। कहते हैं कि रजनीश उनका बचपन में का नाम था लेकिन उसमें आचार्यत्व उन्होंने खुद जोड़ा। खुद ही वो भगवान बने। खुद ही ओशो बने। दर्शन में उनकी रुचि बचपन से थी। ओशो ने बाद में दावा किया कि उन्हें 21 मार्च 1953 को "ज्ञान" की प्राप्ति हुई थी। इसके बाद उन्होंने डीएन जैन कॉलेज से दर्शन में बीए किया। 1957 में सागर विश्वविद्यालय से उन्होंने दर्शन में ही एमए किया। साल 1958 में वो जबलपुर विश्वविद्यालय में लेक्चरर बन गये।
ओशो शायद पहले व्यक्ति होंगे जिसने "ज्ञान" पाने के बाद बीए और एमए करके नौकरी की होगी। 1966 में उन्होंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया। कॉलेज में उनके साथी रहे कांति कुमार जैन ने लिखा है कि एक दिन जब वो उनके कमरे पर गये तो देखा कि चंद्रमोहन चौकी पर बैठकर अपने एक अकेले सहपाठी को "प्रवचन" दे रहे थे। हालाँकि ओशो ने आधिकारिक तौर पर 1970 में बॉम्बे में "नव संन्यास" की दीक्षा देने शुरू की। विलक्षण मेधा और विशद अध्ययन वाले इस युवा धर्म गुरु को चेले भी मिलने लगे। उनके शिष्यों में शुरू से ही यूरोपीय और अमेरिकी अच्छी खासी तादाद में थे। 1974 में वो बॉम्बे से पुणे चले गये। उनकी एक अमीर यूरोपीय शिष्या ने उनके लिए जरूरी जमीन-जायदाद की व्यवस्था कर दी। उसके बाद ओशो के अनुयायियों की संख्या बढ़ती ही गयी।
देसी लोगों से ज्यादा विदेशियों में लोकप्रियता का सीधा अंजाम जो होना था, वही हुआ। 1981 में ओशो अमेरिका के ओरेगॉन चले गये और वहाँ अपना आश्रम बनाया। ओशो का अमेरिका प्रवास विवादों से घिरा रहा। ओशो को विवादों के बीच 1985 में अमेरिका छोड़ना पड़ा। भारत लौटने के बाद 19 जनवरी 1990 तक वो मुख्यतः पुणे में रहे। ओशो के जीते जी और मरने के बाद के सालों में ओशो कम्यून की चर्चा सबसे ज्यादा उन्मुक्त यौन आचार-विचार को लेकर होती रही। मरने के बाद ओशो की बदनामियों में सेक्स के साथ संपत्ति-विवाद भी जुड़ गया। रही सही कसर उनकी हत्या के दावों ने पूरी कर दी। एक आध्यात्मिक यात्रा "सेक्स, मनी और मर्डर" की दास्ताँ बन कर रह गयी।
ओशो की मौत के 27 साल बाद 2017 में पत्रकार अभय वैद्य ने "हू किल्ड ओशो" किताब लिखकर इन अफवाहों को ठोस जमीन दे दी। अभय 1980 के दशक में पुणे में पत्रकार के तौर पर ओशो कम्यून से जुड़े हुए थे। ओशो ने जब अमेरिका छोड़ा तो उनके पीछे उनके तीन शिष्यों को स्थानीय लोगों पर जैविक रसायन का इस्तेमाल करने आरोप सही साबित हुआ था। अमेरिकी कोर्ट में ओरगॉन स्थित रजनीशपुरम में रहने वाली ओशो की सेक्रेटरी माँ आनन्द शीला (शीला पटेल) ने अमेरिकी कोर्ट में अपना अपराध स्वीकार किया। शीला को भी 20 साल की सजा हुई लेकिन अच्छे चालचलन के आधार पर सजा पूरी होने से पहले ही उसे पैरोल मिल गया। जेल से बाहर आने के करीब दो दशक बाद आनन्द शीला ने "डोन्ट किल हिम! द स्टोरी ऑफ माई लाइफ विथ भगवान रजनीश" किताब लिखकर ओशो की मृत्यु पर सवाल उठाए।
ओशो की यात्रा कितनी त्रासद रही इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि साल 2018 में ओशो की पुण्यतिथि पर मीडिया में उन पर छपी ज्यादातर रिपोर्ट-लेख में इसी बात को तवज्जो दी गयी है कि ओशो की मौत स्वाभाविक नहीं थी, संभव है कि उनकी हत्या की गयी। सारे तथ्य इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि दाल में कुछ काला था। साफ हो चुका है कि ओशो की माँ जो उनकी मौत के समय पुणे कम्यून में थीं, उन्हें भी यही लगता था कि कुछ लोगों ने उनके बेटे की हत्या की है। ओशो का मृत्युप्रमाण पत्र तैयार करने वाले डॉक्टर गोकुल गोकाणी ने भी रजनीश की मौत के परिस्थितियों को संदिग्ध बताया है। मृत्यु के कुछ ही देर बाद ओशो का चट-पट अंतिम संस्कार कर दिया गया। अगर ये आरोप और ओशो का समाधि-लेख सच है तो हम ये भी कह सकते हैं कि वो ख़ुद इस यात्रा पर नहीं गये बल्कि उनका टिकट काटकर यात्रा पर भेज दिया गया। हत्या और संपत्ति में हेरफेर का आरोप जिन पर लगा है वो सब ओशो के सबसे करीबी थे। तो क्या इससे ओशो की शिक्षा और आदमी की पहचानने की क्षमता पर सवाल नहीं उठते?
ओशो के शिष्य उनकी भौतिक और बौद्धिक संपदा पर कब्जे के लिए लड़ रहे हैं। भले ही वो पार्ट-टाइम में वो ओशो को वचनों को तोतों की तरह रटते रहते हैं। ओशो के शिष्य रहे योगेश ठक्कर ने ओशो रजनीश ट्रस्ट पर आर्थिक धोखाधड़ी और मनीलॉन्ड्रिंग का मुकदमा किया है। 16 जनवरी को बॉम्बे हाई कोर्ट ने इस मुकदमे की सुनवाई करते हुए पुणे के पुलिस कमिश्नर से पूछा कि इस मामले को इकोनॉमिक्स अफेंस विंग (ईवीडब्ल्यू) को क्यों न दे दिया जाए? सोचिए, ओशो के शिष्य जब उनसे कुछ नहीं सीख सके तो कोई दूसरा क्या सीखेगा?
बुद्ध, महावीर, लाओत्से, गोरखनाथ, कबीर, नानक और ईसा जैसे महापुरुषों की शिक्षाओं का सार ग्रहण करने के बाद ओशो ने वही हासिल किया जो कोई अय्याश अमीर हासिल करता है। महँगी घड़ियां, टोपियाँ, कपड़े, बंगले, घर के साजोसामान और कारें उन्हें पसंद थीं। महिलाएं तो उनके आसपास वैसे ही रहती थीं जैसे गुड़ के आसपास चींटियाँ रहती हैं। विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर अपने समय से आगे सोचने वाले विचारक भी विलासिता की काजल की कोठरी से बेदाग न निकाल सका। ओशो का जैसा अंत हुआ और अंत के बाद जो हो रहा है उसका एक ही संदेश है। आज के तमाम गुरुओं-बाबाओं की तरह ओशो ने भी अध्यात्म को धंधा बनाकर गंदा किया।
जाहिर है ओशो उन आधुनिक धर्म गुरुओं में थे जो बहुत ही सावधानी से अपने इमेज गढ़ते थे फिर आज हम कह सकते हैं कि वो आखिरकार चूक गये। आज वो जिन्दा होते तो 90 साल के होते लेकिन श्रीविहीन हो चुके होते। ऐसे में मन में एक ही सवाल उठता है, क्या ओशो की समाधि की बगल में एक तख्ती नहीं लगा देनी चाहिए- "ओशो चले गये, रिसॉर्ट छोड़ गये।"