बुद्ध पूर्णिमा विशेष: मन के परिष्कार में ही छिपी है मनुष्य के कल्याण की संभावना

By गिरीश्वर मिश्र | Published: May 26, 2021 02:51 PM2021-05-26T14:51:53+5:302021-05-26T14:52:20+5:30

Buddha Purnima: जिस आत्म तत्व के एकत्व या बहुत्व को लेकर बहसें होती रही हैं, उससे मुक्त होकर बुद्ध सत्य अर्थात जो है या तथ्य की बात करते हैं.

Buddha Purnima 2021: possibility of human welfare is hidden in the sophistication of the mind | बुद्ध पूर्णिमा विशेष: मन के परिष्कार में ही छिपी है मनुष्य के कल्याण की संभावना

फाइल फोटो

बौद्ध चिंतन ‘तथता’ यानी चीजें जैसी हैं उनको लेकर आगे बढ़ता है और ‘होने’ (अस्तित्व) की व्याख्या करता है. यह सब बिना किसी आत्मा या शाश्वत की अवधारणा के ही किया जाता है. जो है वह क्षणिक है क्योंकि सब कुछ आ-जा रहा है. अनुभव में कुछ भी ऐसा नहीं है जो क्षण भर भी ज्यों का त्यों टिका रहे. 

जीवन तरंगों का निरंतर चलने वाला पारावार या संसार है. क्षणिक अस्तित्व या बदलाव की निरंतरता ही सत्य है. वस्तुत: बौद्ध चिंतन आत्मा के नकार, वस्तुओं की अनित्यता और दु:ख की गहनता (सर्व दु:खं!) के विचारों पर टिका हुआ है. 

निर्वाण का विचार भी तैलरहित दीप शिखा के बुझने जैसा ही है. बौद्ध विचार में मनुष्य या सभी प्राणी किसी एक कारण की उपज नहीं हैं बल्कि दो या अधिक कारणों की रचना माने जाते हैं. रचा जाना या होना काल के आयाम पर अनेक बिंदुओं पर घटित होता है. 

वस्तुत: परस्पर निर्भर कारणों की एक श्रृंखला काम करती है. कार्य कारण में नियमबद्धता इसलिए है कि जीवन चक्र  सदा गतिमान रहता है. पहले क्या है (या कारण क्या है) यह कहना संभव नहीं है.

जिस आत्म तत्व के एकत्व या बहुत्व को लेकर बहसें होती रही हैं, उससे मुक्त होकर बुद्ध सत्य अर्थात जो है या तथ्य की बात करते हैं. तथागत बुद्ध पूरी तरह जीवन शैली पर केंद्रित रहे. अतियों को छोड़ मध्यम मार्ग को अपनाते हुए उन्होंने  शरीर की सत्ता की अतियों को त्याग दिया. 

आदर्शवाद और भौतिकवाद दोनों में आत्म ही आरंभ और अंत करते हैं. बुद्ध ने शांतचित्त से विचार और ज्ञान की साधना से वस्तुओं की वास्तविक प्रकृति,  दु:ख की प्रकृति और कारणों को समझा. वे कर्मो के परिणाम के एकत्न होने को मानते हैं. उनके मत में घटनाओं के कारण होते हैं और उनका अंत भी होता है. 

संसार यानी जन्म-मृत्यु का बंधन जो दु:ख भरा है, उससे छुटकारा पाना उनका उद्देश्य था. पर उनकी साहसी सोच सबसे अलग थी.

गहन विश्लेषण से भगवान बुद्ध को मनुष्य में नाम (मानसिक) और रूप (भौतिक) ये दो तत्व दिखे. उन्होंने इनकी विशेषताओं की भी पहचान की और अंतत: आत्म की परतों को उघाड़ दिया. इंद्रियों और उनके विषयों के संपर्क से नाम-रूप बनता है जिससे चैतन्य की दशा बनती है. 

चेतना एक क्रिया है, जो रहती नहीं है, कुछ होने के लिए पैदा होती या घटित होती है. नाम, रूप और चेतना का क्र म निरंतर चलता रहता है. बुद्ध ने आत्म के विश्लेषण के बाद यह अनुभव किया कि यह वस्तुत: भौतिक तत्वों के संयोग से निर्मित है न कि कोई आत्मा जैसा स्थायी तत्व है. 

परिवर्तनों के एक क्रम से ही यह बनता है. कल्पित अपरिवर्तित रहने वाली सत्ता सिर्फ मिथक ही है. विचार और कार्य बदलने पर भी कर्ता ज्यों का त्यों रहे, यह तर्कयुक्त नहीं है. कर्ता और कर्म परस्पर सापेक्ष हैं इसलिए एक में परिवर्तन से दूसरा भी बदलेगा. ‘मैं’ ही उठता, बैठता, खाता-पीता है. यह मैं कर्म से अलग नहीं है. कर्म ही यह कर्ता है. ‘मैं सोचता हूं’ की जगह ‘सोचना उपस्थित है’ कहना उचित है.

सत्य की ओर यात्रा पर चलने में शील, समाधि और प्रज्ञा के अनुरूप रहने से शरीर और मन को अनुशासित करना सरल हो जाता है. शील से दोषों से मुक्ति मिलती है. समाधि से विचारों की स्थिरता होती है, मन का संतुलन ज्ञान से आता है. अभ्यास से प्रज्ञा का उदय होता है. 

बौद्ध चिंतन मन के परिष्कार में ही कल्याण की संभावना देखता है : मलिन मन से बोलने और कार्य करने से दु:ख ही होते हैं और अच्छे मन से बोलने या कार्य करने से सुख उपजता है. यदि कोई बैर रखता है तो बैर से उसका समाधान नहीं होगा, अबैर अपनाना पड़ेगा.  

संतोष और संयम के अभ्यास से मन में राग नहीं पैदा होगा. अच्छे आचरण का व्यापक प्रभाव पड़ता है.  बुद्ध विचार प्रक्रि या जहां सूक्ष्म स्तर पर संसार की अनित्यता को बताती है वहीं आचरण से परिष्कार का आलोक भी देती है.   

Web Title: Buddha Purnima 2021: possibility of human welfare is hidden in the sophistication of the mind

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