राजेश बादल का ब्लॉग: जनाधार बढ़ाने और बचाने का इम्तिहान
By राजेश बादल | Published: March 2, 2021 11:28 AM2021-03-02T11:28:55+5:302021-03-02T11:28:55+5:30
पश्चिम बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी में विधानसभा चुनाव की घोषणा हो चुकी है. कांग्रेस के लिए इस चुनाव में कुछ खोने के लिए नहीं है. वहीं, बीजेपी के सामने बहुत कुछ साबित करने की चुनौती है.
पांच प्रदेशों में इस बार विधानसभा चुनाव अनेक मायनों में तनिक हटकर हैं. राजनीतिक दलों की चुनौतियां अलग हैं और मतदाताओं की अलग. दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के सामने इस चुनाव के बहाने अपने अस्तित्व की परीक्षा की घड़ी है तो क्षेत्रीय दल अपने नेतृत्व की अग्निपरीक्षा देखेंगे.
इस जनतांत्रिक अनुष्ठान का भी अपने ढंग से अलग इम्तिहान है. अपने कार्यो के आधार पर नहीं, बल्कि चुनाव दर चुनाव तिकड़मों के जरिए बहुमत जुटाने का हुनर सियासतदानों ने अमल में लाना शुरू कर दिया है.
इससे संसदीय निर्वाचन प्रणाली भी कई परेशानियों का सामना करती दिखाई देती है. यानी लोकतंत्र के सारे घटक अपनी अंदरूनी उलझनों में हैं.
विधानसभा चुनाव: बीजेपी के लिए लिटमस टेस्ट
केंद्र में हुकूमत कर रही भारतीय जनता पार्टी पिछले आम चुनाव में अपने दम पर सरकार चलाने की स्थिति में आई थी. यह उसकी अखिल भारतीय कामयाबी थी. हालांकि उसमें उत्तर भारत का रिकॉर्ड योगदान था.
इसलिए यह सवाल भी जायज है कि लोकसभा की सीटों के लिए प्राप्त वोट प्रतिशत क्या विधानसभाओं में भी सलामत रहेगा? एक तरह से यह केंद्र सरकार के कामकाज का लिटमस टेस्ट भी माना जा सकता है.
यह भी देखना दिलचस्प होगा कि उत्तर-पूर्व और दक्षिण भारत में जनाधार बढ़ाने के लिए लगातार प्रयास कर रही भाजपा क्या कांग्रेस के पुराने आकार में पहुंचेगी. उत्तर-पूर्व के प्रदेश असम में पिछले विधानसभा चुनाव में 2014 के लोकसभा निर्वाचन के नतीजों ने भी असर डाला था.
प्रधानमंत्री के रूप में असम से ही निर्वाचित डॉक्टर मनमोहन सिंह के मुकाबले अपेक्षाकृत वाचाल प्रधानमंत्री के चेहरे को लोगों ने पसंद किया था. इसके अलावा कांग्रेस में भाजपा ने जबर्दस्त सेंध लगाई थी.
कांग्रेस में तरुण गोगोई के कारण उपेक्षित हेमंत बिस्वा शर्मा को पार्टी ने खींच लिया. इससे कांग्रेस संगठन कमजोर पड़ गया और भाजपा को 60 सीटों पर चमत्कारिक जीत मिली. इस बार पांच साल का नकारात्मक वोट सामने है. हेमंत बिस्वा शर्मा को मुख्यमंत्नी नहीं बनाने से वे दुखी हैं. करीब तीस फीसदी वोट बैंक को बचाए रखने की चुनौती है.
पश्चिम बंगाल में बीजेपी के सामने कड़ी चुनौती
भाजपा के लिए सर्वाधिक कांटे की स्थिति बंगाल में है. ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के किले में सेंध की कोशिशें पार्टी ने असम की तर्ज पर शुरू कर दी हैं. ममता भी उतने ही आक्रामक अंदाज में उत्तर दे रही हैं.
उन्हें पांच साल के दौरान सरकार से नाराज लोगों को संभालना है और करीब पैंतालीस फीसदी वोटबैंक भी बचा कर रखना है. भाजपा को पिछले विधानसभा चुनाव में केवल 3 स्थानों पर संतोष करना पड़ा था. अलबत्ता उसका मत प्रतिशत दस फीसदी के आसपास था.
इस बार चुनौती वोट बैंक बढ़ाने की नहीं है. असल प्रश्न यह है कि क्या वह अपने दम पर सरकार बनाएगी? लोकसभा चुनाव 2019 के परिणाम उसका हौसला बढ़ाते हैं. यद्यपि ममता ने इसे बंगाल की अस्मिता से जोड़ दिया है. इस कारण स्थिति जटिल है.
तमिलनाडु में संसार की इस सबसे बड़ी पार्टी के लिए अभी भी मुकाबला आसान नहीं है. सिर्फ दो फीसदी मत प्रतिशत के सहारे वह क्या उम्मीद करे? अगर कोई संभावना भाजपा का वोट बैंक बढ़ने की हो सकती है तो सत्तारूढ़ ऑल इंडिया अन्नाद्रमुक मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) के नकारात्मक वोट, पार्टी में अंदरूनी खींचतान और नेत्री जयललिता का नहीं होना है. विधानसभा में हाजिरी लगाने के लिए ये कारण पर्याप्त हैं.
पुडुचेरी में बीजेपी का क्या होगा
पुड्डुचेरी में भी इस बार दल की उम्मीदें जगी हैं. उसने कांग्रेस की सरकार गिराई है तो स्पष्ट है कि राष्ट्रपति शासन में निर्वाचन होने का फायदा मिलेगा. उसे नक्शे में अपनी दमदार हाजिरी लगाने का अवसर इसलिए भी मिल सकता है क्योंकि पूर्व विधानसभा अध्यक्ष और कांग्रेस के कुछ बड़े विधायक टूट कर उसके पाले में आ सकते हैं.
इसके अलावा उसका गठबंधन एआईएनआरसी से है, जिसके करीब 28-30 प्रतिशत वोट पक्के रहते हैं. इस दल के सुप्रीमो पूर्व मुख्यमंत्री एन. रंगास्वामी हैं. उनकी छवि अच्छी है. वे लोकप्रिय हैं. भाजपा की योजना कामयाब रही तो वे पुड्डुचेरी के अगले नाविक हो सकते हैं.
केरल अभी भी भाजपा के लिए टेढ़ी खीर है. हालांकि पिछले चुनाव में उसने लगभग साढ़े दस प्रतिशत वोट पाए थे और खाता भी खोला था. देखना होगा इस बार संघ की मदद कितना जनाधार बढ़ाती है. यदि पार्टी दहाई के आंकड़े पर पहुंचती है तो यह भी करिश्मा ही होगा.
कांग्रेस के पास पांच राज्यों के चुनाव में खोने के लिए कुछ नहीं
कांग्रेस के लिए इन पांचों राज्यों में खोने के लिए कुछ नहीं है. एक पुड्डुचेरी में सरकार बची थी. वह भी चली गई. इसलिए उसके नजरिए से तो सारी इबारत एकदम साफ-साफ लिखी हुई है. चुनाव दर चुनाव उसका जनाधार खिसकता जा रहा है. सीटें कम होती जा रही हैं.
कांग्रेस अपने दम पर वह किसी भी राज्य में सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है. अकेले पुड्डुचेरी में उसकी सीटें 15 और वोट 30 फीसदी थे. इसके ऊपर जाने की कोई सूरत नजर नहीं आती. इसे ही पार्टी बचा ले तो बड़ी बात है.
केरल में उसके 22 विधायक चुने गए थे और मतों का प्रतिशत 22 था. असम में अलबत्ता 31 फीसदी वोटों के साथ 26 सीटों पर उसे कामयाबी मिली थी. तमिलनाडु में लगभग साढ़े छह प्रतिशत मतों के ढेर पर वह खड़ी है. इस बार द्रमुक के आसार बेहतर हैं तो वह अवश्य कुछ हासिल कर सकती है.
बंगाल में पिछली बार की तरह उसने फिर वाम दलों के साथ जाने का अदूरदर्शी फैसला लिया है. पिछली बार उसने 12 प्रतिशत मत के साथ 44 स्थानों पर जीत हासिल की थी. यह वाम दलों से बारह सीट ज्यादा थी. इस बार अधीर रंजन चौधरी के लिए अग्निपरीक्षा की घड़ी है. वे कितना जनाधार बढ़ा सकते हैं. सीटों में तो कोई बहुत बढ़ोत्तरी के आसार फिलहाल नहीं लगते.