राज्यपालों से राज्य सरकारों का बिगड़ता तालमेल, प्रमोद भार्गव का ब्लॉग
By प्रमोद भार्गव | Published: February 23, 2021 12:43 PM2021-02-23T12:43:38+5:302021-02-23T12:45:17+5:30
पुडुचेरी सरकार से कांग्रेस विधायकों के इस्तीफे के बाद पुडुचेरी में उत्पन्न हुए राजनीतिक संकट के बीच उपराज्यपाल किरण बेदी को मंगलवार रात को अचानक उनके पद से हटा दिया गया था
देश के गैर भाजपा शासित राज्यों में राज्यपाल और मुख्यमंत्रियों के बीच टकराव की स्थितियां लगातार देखने में आ रही हैं.
राजभवन जहां सरकार के फैसलों पर रोक लगा रहे हैं या प्रभावित कर रहे हैं तो वहीं मुख्यमंत्नी राज्यपालों पर अपनी विचारधारा को पोषित करने अथवा थोपने का आरोप लगा रहे है. पश्चिम बंगाल से लेकर महाराष्ट्र तक संवैधानिक मर्यादाओं का स्पष्ट उल्लंघन देखने में आ रहा है.
हाल ही में महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे सरकार ने राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी को सरकारी विमान से प्रदेश के बाहर यात्ना करने की अनुमति नहीं दी. दूसरी तरफ विधान परिषद में राज्यपाल के कोटे की बारह सीटों पर मनोनयन के लिए मंत्निमंडल द्वारा मंजूर बारह नामों की सूची 9 माह पहले राज्यपाल को भेजी गई थी, जो अब तक लंबित है.
राज्यपाल जगदीप धनखड़ का ममता बनर्जी से टकराव
पश्चिम बंगाल में राज्यपाल जगदीप धनखड़ का ममता बनर्जी से टकराव शुरू से ही बना हुआ है, किंतु अब विधानसभा चुनाव के नजदीक आते-आते चरम पर है. ममता राज्यपाल पर भाजपा का एजेंडा चलाने का आरोप लगा रही हैं. वहीं राज्यपाल का आरोप है कि प्रदेश में समूचे प्रशासन का राजनीतिकरण कर दिया गया है.
अरविंद केजरीवाल और उपराज्यपाल अनिल बैजल के बीच भी विवाद
विधानसभा चुनाव के मुहाने पर खड़े केरल में मुख्यमंत्नी पी. विजयन और राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के बीच प्रदेश में संशोधित नागरिकता कानून खत्म करने के बाद से ही तीखा विवाद चल रहा है. वहीं देश की राजधानी दिल्ली में अरविंद केजरीवाल और उपराज्यपाल अनिल बैजल के बीच भी विवाद चरम सीमा पर है.
दरअसल दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त नहीं है इसलिए बैजल सरकार के कामों पर आपत्ति लगाकर उन्हें अटका देते हैं. इन चार प्रांतों के ताजा घटनाक्रमों से साफ होता है कि राजभवन सत्ता के केंद्र की भूमिका में आ गए हैं इसलिए उनका राज्य सरकारों से तालमेल नहीं बन पा रहा है.
मुख्यमंत्री और राज्यपाल में टकराव
हालांकि राज्यों में जब केंद्र सरकार के विपरीत विचारधारा वाली सरकार होती है तो मुख्यमंत्नी और राज्यपाल के बीच कुछ फैसलों को लेकर टकराव का पैदा होना कोई नई बात नहीं है. यह एक तरह से परंपरा बन गई है. राज्यों में राज्यपालों की नियुक्ति और उनकी पूर्वाग्रहों से प्रभावित कार्यप्रणाली से राज्यपाल जैसे पद की गरिमा हमेशा विवादग्रस्त होकर धूमिल होती रहती है.
इसलिए जब केंद्रीय सत्ता में परिवर्तन होता है तो राज्यपालों के बदले जाने का सिलसिला भी शुरू हो जाता है. वैसे हकीकत तो यह है कि राज्यपाल का राज्य सरकार में कोई सीधा दखल नहीं है, इसलिए इस पद की जरूरत ही नहीं है. लेकिन संविधान में परंपरा को आधार माने जाने के विकल्पों के चलते राज्यपाल का पद अस्तित्व में बना हुआ है.
अंग्रेजी राज में वाइसराय की जो भूमिका थी, कमोबेश उसे ही संवैधानिक दर्जा देते हुए राज्यपाल के पद में रूपांतरित किया गया है.असल में हमारे देश में जिस तरह की राजनीतिक संस्कृति बनाम विकृति पिछले कुछ दशकों में पनपी है, उसमें संविधान में दर्ज स्वायत्तता का परंपरा के बहाने दुरुपयोग ही ज्यादा हुआ है.
न्यायालय, निर्वाचन आयोग और कैग पर प्रहार
न्यायालय, निर्वाचन आयोग और कैग जैसी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर भी जान-बूझकर आक्रामक प्रहार किए गए. ऐसे में राज्यपाल तो सीधे राजनीतिक हित साधन के लिए केंद्रीय सत्ता द्वारा की गई नियुक्ति है. गोया राज्यपाल को प्रतिपक्ष संदेह की दृष्टि से देखता है.
राज्यपाल की हैसियत और संवैधानिक दायित्व की व्याख्या करते हुए उच्चतम न्यायालय के पांच न्यायाधीशों की खंडपीठ ने 4 मई 1979 को दिए फैसले में कहा था कि यह ठीक है कि राज्यपाल की नियुक्ति केंद्र सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति करते हैं, जिसका अर्थ हुआ कि उपरोक्त नियुक्ति वास्तव में भारत सरकार द्वारा की गई है. लेकिन नियुक्ति एक प्रक्रिया है, इसलिए इसका यह अर्थ नहीं लगाना चाहिए कि राज्यपाल भारत सरकार का कर्मचारी है.
राज्य-सरकारों के लिए परेशानी का सबब
राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त हर व्यक्ति भारत सरकार का कर्मचारी नहीं होता. यही स्थिति राज्यपाल के पद पर लागू होती है. इसके बावजूद ज्यादातर राज्यपाल संविधान की बजाय नियोक्ता सरकार के प्रति ही उत्तरदायी बने दिखाई देते हैं. यही वजह है कि गाहे-बगाहे वे राज्य-सरकारों के लिए परेशानी का सबब भी बन जाते हैं.
इसलिए इस संस्था को गैरजरूरी करार दे दिया जाता है और इसके स्थान पर उच्च न्यायालयों अथवा प्रमुख सचिवों को राज्यपाल के जो गिने-चुने दायित्व हैं, उन्हें सौंपने की बात राज्यपाल संशोधन विधेयक को पारित करते समय उठाई गई थी. लेकिन इन बातों को दरकिनार कर दिया गया.
दरअसल राज्यपाल का प्रमुख कर्तव्य केंद्र सरकार को आधिकारिक सूचनाएं देना है. लेकिन राज्यपाल तार्किक सूचनाएं देने की बजाय केंद्रीय सत्ता की मंशा के अनुरूप राज्य की व्यवस्था में दखल देने लग गए हैं. इस वजह से राज्यपाल और मुख्यमंत्रियों के बीच टकराव के हालात पैदा हो रहे हैं.