रहीस सिंह का ब्लॉग: कश्मीर में शांति देख अशांत होने लगता है पाकिस्तान
By रहीस सिंह | Published: July 6, 2021 10:41 AM2021-07-06T10:41:26+5:302021-07-06T10:41:26+5:30
पाकिस्तान और उसके मित्र चीन सहित कुछ अन्य देश जैसे तुर्की, मलेशिया आदि कश्मीर को अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की कोशिश में तो हैं. साथ ही चीन भी इसी बहाने भारत पर दबाव की रणनीति अपनाना चाहता है.
पिछले महीने 24 तारीख को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जम्मू-कश्मीर की मुख्यधारा की आठ पार्टियों के 14 नेताओं के साथ बैठक में दिल्ली और दिलों की दूरी कम करने पर जोर दिया था. प्रधानमंत्री ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि परिसीमन के बाद जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव होंगे.
जम्मू-कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए सरकार पूरी तरह प्रतिबद्ध है और डीडीसी चुनावों की तरह शांतिपूर्वक विधानसभा चुनाव कराना हमारी प्राथमिकता है. लेकिन बैठक के बाद महबूबा मुफ्ती सहित कुछ अन्य नेताओं के जो बयान आए वे किसी भी दृष्टि से स्वीकार्य नहीं हो सकते.
सवाल यह उठता है कि महबूबा मुफ्ती जैसे नेताओं को कश्मीर के मामले में वार्ता के लिए पाकिस्तान को शामिल करने की जरूरत क्यों पड़ती है?
क्या कभी महबूबा मुफ्ती जैसे नेता किसी भी मंच पर यह सवाल उठाते दिखे हैं कि बलूचिस्तान और सिंध मामले में पाकिस्तान इनके नेताओं से बात करते समय भारत को शामिल करे? क्या इन्होंने कभी भी यह विषय रखा कि पाक अधिकृत कश्मीर पर अब जल्द से जल्द बातचीत शुरू होनी चाहिए? नहीं न, आखिर क्यों?
जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है इसलिए उससे संबंधित निर्णय लेने का अधिकार भारत सरकार और संसद को है. भारत के नागरिक और जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक प्रतिनिधि होने के नाते उन्हें भारत की संसद द्वारा लिए गए निर्णय को स्वीकार कर जम्मू-कश्मीर के विकास में सहभागी बनना चाहिए था. लेकिन ऐसा नहीं दिख रहा है.
आखिर वे या उनके अन्य कुछ साथी जम्मू-कश्मीर को अंतर्राष्ट्रीय विषय क्यों बनाना चाहते हैं जो अब तक पाकिस्तान की डिप्लोमेटिक लाइन रही है?
अगस्त 1947 में भारत भूमि पर ही एक अलग देश के रूप में अस्तित्व में आए पाकिस्तान की पृष्ठभूमि किन्हीं लोकतांत्रिक या मानवीय अधिकारों की लड़ाई की नहीं थी. इसलिए वह कभी भी भारत के साथ सहकार का मनोविज्ञान विकसित नहीं कर पाया.
इसके विपरीत वह भारत को कट्टरपंथियों की तर्ज पर ‘इटरनल एनिमी’ मानते हुए आगे बढ़ा. कश्मीर में पाकिस्तान द्वारा जो भी समस्या पैदा की गई, वह उसकी इसी मनोवृत्ति का परिणाम थी. फिर भी यदि जम्मू-कश्मीर के कुछ नेता पाकिस्तान से वार्ता करने की बात करते हैं तो इसका अर्थ क्या लगाया जाए?
सवाल यह है कि भारत पाकिस्तान से कश्मीर मसले पर क्यों बात करे? हां उससे बात हो तो पाक अधिकृत कश्मीर पर हो. जो नेता पाकिस्तान को इस मामले में शामिल करने की बात करते हैं उन्हें यह अच्छी तरह से स्वीकार कर लेना चाहिए कि पाकिस्तान एक ‘फेल्ड स्टेट’ है.
वह कश्मीर सिंड्रोम का शिकार है और जब कभी वहां की सरकारें आंतरिक चुनौतियों से घिरने लगती हैं वे कश्मीर राग शुरू कर देती हैं. अब पाकिस्तान कश्मीर में थर्ड एक्टर्स का इस्तेमाल करने में सफल नहीं हो पा रहा है. इसलिए उसकी पीड़ा तो समझी जा सकती है लेकिन जम्मू-कश्मीर के उन नुमाइंदों की नहीं जो भारतवासी हैं और जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक प्रतिनिधि होने का दावा करते रहे हैं.
अब अनुच्छेद 370 और 35ए पर बात करें तो राष्ट्रपति के आदेश के पश्चात भारतीय संसद द्वारा संविधान से हटा दिए गए इन दोनों अनुच्छेदों को हटाने की प्रक्रिया संसद ने पूरी की है इसलिए इसे सभी को स्वीकार करना चाहिए था, मगर जम्मू-कश्मीर के कुछ राजनीतिक दलों और राजनेताओं ने ऐसा नहीं किया.
यद्यपि विधि की व्याख्या करने का अंतिम अधिकार सुप्रीम कोर्ट के पास है, इसलिए विधि संबंधी पक्षों पर उसकी व्याख्या की प्रतीक्षा करनी चाहिए. लेकिन इससे अलग कुछ पक्ष हैं, जिन्हें यहां पर रखना जरूरी मालूम पड़ता है.
पहला यह कि संविधान के अध्याय 21 में इसे ‘अस्थायी, संक्रमणकालीन और विशेष उपबंध’ शीर्षक के तहत रखा गया था. यानी यह प्रावधान स्थायी नहीं था, फिर इसे स्थायी प्रावधान के तौर पर इन नेताओं ने क्यों देखा? दूसरा, अनुच्छेद 35 ए को 1954 में राष्ट्रपति के विशेष आदेश के जरिये शामिल किया गया था. जो उपबंध राष्ट्रपति के आदेश द्वारा स्थापित किया जा सकता है उसे उनके आदेश से संसद द्वारा हटाया भी जा सकता है.
इसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 (3) में स्पष्ट भी किया गया है. जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा 1957 में ही भंग की जा चुकी है. इसलिए बहुत से संविधानविदों के अनुसार राष्ट्रपति का आदेश ही पर्याप्त है.
उल्लेखनीय है कि 1927 में जम्मू-कश्मीर राज्य के प्रशासन ने राज्य के निवासियों को विशेष आनुवंशिक अधिकार दिए थे. लेकिन उस समय भारत ब्रिटिश उपनिवेश था. स्वतंत्रता के पश्चात तो औपनिवेशिक व्यवस्था को समाप्त कर औपनिवेशिक चिह्नें को मिटाना था लेकिन ऐसा हुआ नहीं.
1954 में 35ए को अनुच्छेद 370 के तहत लागू किया गया. इसलिए निरंतर ये सवाल उठाया गया कि एक ही देश में दो विधान क्यों? अब जब सरकार ने दो विधान का विकल्प समाप्त कर एक विधान, एक निशान और एक प्रधान की व्यवस्था देकर राष्ट्र की अखंडता की दिशा में निर्णायक कदम उठाया है, तो फिर संशय किस बात का? और विषय का अंतर्राष्ट्रीयकरण क्यों?
पाकिस्तान और उसके सदाबहार मित्र चीन सहित कुछ गिने-चुने देश (तुर्की, मलेशिया आदि) कश्मीर को अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की कोशिश में ही नहीं हैं बल्कि चीन तो भारत पर दबाव की रणनीति भी अपनाता हुआ दिख रहा है. संभव है कि गलवान घाटी में चीनी सैन्य गतिविधियां इसी का नतीजा हों.