विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: संविधान की मर्यादा का ध्यान रखना जरूरी

By विश्वनाथ सचदेव | Published: December 18, 2020 01:29 PM2020-12-18T13:29:04+5:302020-12-18T13:31:00+5:30

ब्राह्मण को ब्राह्मणऔर वैश्य को वैश्य कहने में किसी को कोई आपत्ति नहीं है तो शूद्र को शूद्र कहने में किसी को आपत्ति क्यों होती है?

Vishwanath Sachdev's blog: It is important to take care of the dignity of the constitution | विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: संविधान की मर्यादा का ध्यान रखना जरूरी

सांकेतिक तस्वीर (फाइल फोटो)

जब हमने अपना संविधान बनाया तो काफी विचार-विमर्श के बाद पूरे होश-हवास में यह तय किया था कि हमारा भारत एक पंथ निरपेक्ष देश होगा. हर नागरिक को अपने विवेक के अनुसार कोई धर्म स्वीकारने, उसका पालन करने का अधिकार होगा और इस संदर्भ में राज्य की भूमिका सिर्फनागरिक के इस अधिकार की रक्षा करने तक सीमित होगी.

कुल मिलाकर इस नीति का अनुपालन भी हो रहा है, पर कुछ व्यक्ति, कुछ संगठन, कुछ दल जब-तब किसी धर्म-विशेष के विरुद्ध और किसी धर्म-विशेष के पक्ष में आवाज उठाते रहते हैं. दुर्भाग्य से इन कुछ में कभी-कभी वे भी शामिल हो जाते हैं, जिनके कंधों पर हमारे संविधान की रक्षा का दायित्व है.

एक उदाहरण अभी हाल का है. भाजपा की सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने बंगाल में दिए अपने एक भाषण में मुख्यमंत्नी ममता बनर्जी को पागल बताते हुए दावा किया है कि अगले विधानसभा चुनाव के बाद पश्चिम बंगाल में भाजपा का शासन आएगा और वहां हिंदू राज होगा. यह पहली बार नहीं है जब इस तरह की कोई विवादास्पद बात उन्होंने कही है.

अक्सर वे विवादों के घेरे में रही हैं. हाल ही में मध्य प्रदेश में उन्होंने एक भाषण में सवाल उठाया था कि जब ब्राह्मण को ब्राह्मणऔर वैश्य को वैश्य कहने में किसी को कोई आपत्ति नहीं है तो शूद्र को शूद्र कहने में किसी को आपत्ति क्यों होती है? ज्ञातव्य है कि प्रज्ञा सिंह मालेगांव ब्लास्ट केस में आरोपी हैं.

इसके बावजूद भाजपा ने उन्हें संसद के चुनाव में उम्मीदवार बनाया. यह सही है कि भोपाल की जनता ने उन्हें अपना प्रतिनिधि चुना है. उन्हें अपनी बात कहने का भी पूरा अधिकार है, पर संविधान की मर्यादाओं के उल्लंघन का अधिकार देश किसी को नहीं देता. इस देश में किसी धर्म-विशेष के राज की बात करना अथवा ब्राह्मण, क्षत्रिय या शूद्र के संदर्भ में आपत्तिजनक बयान देना संविधान की मर्यादाओं का उल्लंघन ही है. दुर्भाग्य की बात यह भी है कि प्रज्ञा ठाकुर अकेली नहीं हैं जो इस तरह की बात कहती हैं.

हमारे कई सांसद और मंत्नी भी इसी तरह की बातें करते हैं. हमारे प्रधानमंत्नी एक से अधिक बार देश के संविधान को सबसे बड़ा धर्म-ग्रंथ कह चुके हैं. और यह है भी. ज्ञातव्य है कि जब वे पहली बार प्रधानमंत्नी बने थे तो उन्होंने संसद की दहलीज पर और संविधान की प्रति के सामने सिर झुकाकर सारे देश को यह संदेश देने का प्रयास किया था कि हमारा संविधान सर्वोपरि है.

उसे किसी भी तरह से अपमानित करने का अधिकार किसी को नहीं दिया जा सकता. बंगाल के आगामी चुनावों के बाद वहां हिंदू राज की स्थापना की बात कहकर सांसद प्रज्ञा ठाकुर ने हमारे संविधान का अपमान किया है. मैं नहीं जानता दंड-संहिता में इसके लिए क्या सजा निर्धारित है, पर देश की जनता का दायित्व बनता है कि वह ऐसे नेताओं को स्वीकार करने से इंकार करे.

हमारा देश बहुधर्मी है, और यह धार्मिक विविधता हमें एक इंद्रधनुषी सौंदर्य ही नहीं देती, इसकी ताकत भी है. इस ताकत को कमजोर करने का अवसर और अधिकार किसी को नहीं दिया जा सकता. सवाल सिर्फबहुधर्मिता का ही नहीं है, हम बहुभाषी भी हैं, बहुवर्णी भी हैं. इस बहुलता की रक्षा करके ही हम अपनी रक्षा कर सकते हैं, अपनी सार्थकता बनाए रख सकते हैं. लेकिन यदि प्रज्ञा ठाकुर जैसे हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि अनर्गल बातें करते रहते हैं, और शीर्ष नेतृत्व इस पर चुप्पी साध लेता है तो यह एक विडंबना भी होगी, और त्नासदी भी.

ज्ञातव्य है कि प्रज्ञा ठाकुर ने चुनाव में विजय से पहले ही गोडसे को देशभक्त बता कर गांधी को अपमानित करने की कोशिश की थी. तब प्रधानमंत्नी ने कहा था कि वह इस बात के लिए प्रज्ञा ठाकुर को मन से कभी क्षमा नहीं कर पाएंगे.

इसके बावजूद जब भाजपा ने उन्हें भोपाल से अपना उम्मीदवार बनाया था तो इस पर आश्चर्य ही नहीं, पीड़ा भी व्यक्त की गई थी. यह सही है कि चुनाव में प्रज्ञा को जीत मिली थी, पर इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि वे कुछ भी कहने के लिए स्वतंत्न हैं.

देश के किसी भी निर्वाचित व्यक्ति से, चाहे वह पंचायत का सदस्य हो या संसद का, यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह संविधान की मर्यादाओं का उल्लंघन करे, अथवा देश के सामाजिक ताने-बाने को अपनी कथनी-करनी से कमजोर बनाए. प्रज्ञा ठाकुर की तरह की सोच वाले हमारे नेता यही कर रहे हैं. इस तरह की कोशिशों को रोका जाना, विफल बनाना जरूरी है. यह काम राजनीतिक दलों के जिम्मेदार नेता और सरकार में बैठे वरिष्ठ जन कर सकते हैं. लेकिन वे चुप हैं.

यह चुप्पी सहमति का संकेत देने वाली है. और सहमति की यह स्थिति खतरनाक है. देश के लिए, समाज के लिए, हम सबके लिए.
सवाल सिर्फ किसी एक नेता या कुछ नेताओं के भाषण का ही नहीं है, सवाल संविधान की मर्यादाओं के आदर और उन्हें बचाने का है. पिछले कुछ वर्षो में राजनेताओं में कुछ भी कहने की प्रवृत्ति बढ़ी है.

वे यह मानकर चल रहे हैं कि किसी के बारे में कुछ भी कहा जा सकता है, उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा. वे भूल जाते हैं कि उनका अमर्यादित आचरण गलत उदाहरण तो पेश करता ही है, समाज का वातावरण भी दूषित करता है.

पश्चिम बंगाल में इन दिनों जो कुछ हो रहा है वह कुल मिलाकर जनतांत्रिक परंपराओं और मूल्यों का नकार है. न तो किसी भी प्रकार की हिंसा का हमारी व्यवस्था में कोई स्थान है और न ही अनर्गल आरोप लगाने का. ये दंडनीय अपराध हैं. हमारी व्यवस्था इन अपराधियों के खिलाफ यदि कदम नहीं उठाती तो हमें, यानी देश के नागरिकों को, उन अपराधियों को दंडित करना होगा.

यह मतदाताओं का दायित्व बनता है कि वह संविधान-विरोधी विचार वालों को उनके किए की सजा दें. हम उन्हें नकार सकते हैं. हम उन्हें कह सकते हैं कि संविधान सर्वोपरि है. उसकी अवहेलना या उसका अपमान इस देश के हर नागरिक का अपमान है. हम क्यों सहें अपमान?

Web Title: Vishwanath Sachdev's blog: It is important to take care of the dignity of the constitution

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