विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: एकता और समानता के विचारों की विरासत पर मंडराता खतरा

By विश्वनाथ सचदेव | Published: February 3, 2022 04:39 PM2022-02-03T16:39:56+5:302022-02-03T16:41:53+5:30

ऐसा नहीं है कि पहली बार ऐसा कोई बदलाव हुआ है, पहले भी धुन बदलती रही है, पर इस बार का बदलाव विशेष था- 'एबाइड बाय मी' की यह प्रार्थना राष्ट्रपिता गांधी की प्रार्थना-सभा का हिस्सा थी।

Vishwanath Sachdev blog The threat looms over the legacy of the ideas of unity and equality | विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: एकता और समानता के विचारों की विरासत पर मंडराता खतरा

विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: एकता और समानता के विचारों की विरासत पर मंडराता खतरा

Highlightsसमारोह की शुरुआत सुभाष चंद्र बोस की मूर्ति के अनावरण के साथ हुई थीगांधी और सुभाष की यह साझा पसंद अब हमारी 'बीटिंग दि रिट्रीट' का हिस्सा नहीं है

आजादी के 75वें साल का गणतंत्न दिवस समारोह 'बीटिंग दि रिट्रीट' के साथ समाप्त हो गया। अद्भुत था नजारा। एक हजार द्रोण के माध्यम से आकाश तिरंगा हो गया था, गांधीमय हो गया था। सुखद परिवर्तन था यह। सिर्फ यही नहीं बदला था इस समारोह में। इस समारोह की शुरुआत सुभाष चंद्र बोस की मूर्ति के अनावरण के साथ हुई थी, और बीटिंग दि रिट्रीट में से 'एबाइड बाय मी' की धुन की जगह 'ऐ मेरे वतन के लोगों' की धुन के साथ समापन हुआ था।

ऐसा नहीं है कि पहली बार ऐसा कोई बदलाव हुआ है, पहले भी धुन बदलती रही है, पर इस बार का बदलाव विशेष था- 'एबाइड बाय मी' की यह प्रार्थना राष्ट्रपिता गांधी की प्रार्थना-सभा का हिस्सा थी। निर्णय लेने वालों के अपने तर्क हैं, पर यह एक महत्वपूर्ण संयोग है कि गांधी को प्रिय यह गीत नेताजी सुभाषचंद्र बोस को भी बहुत प्रिय था। नेताजी के परपोते सुगाता बोस के अनुसार 1937 में कोलकाता में हुए कांग्रेस के अधिवेशन के अवसर पर गांधीजी, जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस तीनों शरतचंद्र बोस के घर ठहरे थे। वहीं एक शाम गांधीजी की प्रार्थना सभा में बापू का प्रिय गीत 'एबाइड बाय मी' गाया गया तो सुभाष की आंखों में आंसू थे। गांधी और सुभाष की यह साझा पसंद अब हमारी 'बीटिंग दि रिट्रीट' का हिस्सा नहीं है। 

क्या इसे हटाया जाना नेताजी को पसंद होता?

बहरहाल, किंग जॉर्ज पंचम की छतरी के नीचे नेताजी की प्रतिमा लगाने का निर्णय स्वागत-योग्य है। इस कदम का स्वागत करते हुए नेताजी की पुत्नी अनिता बोस ने यह कहना जरूरी समझा कि नेताजी का सही सम्मान उनके विचारों और मूल्यों को जीवन में उतार कर ही किया जा सकता है। क्या थे उनके आदर्श? क्या थे वे मूल्य जिनके लिए वे जिये और मरे? इन सवालों के उत्तर तलाशने जरूरी हैं, पर जरूरी यह भी है कि हम यह सामड़ों कि स्वतंत्न भारत में आज जो कुछ हो रहा है, क्या वह नेताजी को स्वीकार्य होता?

बहुत कुछ हो रहा है नए भारत में। बहुत कुछ स्वागत-योग्य है, लेकिन कुछ ऐसा भी है जिस पर हर विवेकशील भारतीय को चिंता होनी चाहिए। एकता और समानता के विचारों की जो विरासत नेताजी हमारे लिए छोड़ गए हैं, उस पर खतरा मंडरा रहा है। नेताजी के लिए देश का हर नागरिक पहले भारतीय था, फिर कुछ और। समता, स्वतंत्नता, न्याय और बंधुता के आधारों पर हमने नए भारत की स्थापना की थी, आज इन आधारों को कमजोर किया जा रहा है। हिंदू-मुसलमान में समाज को बांटने की कोशिशें हो रही हैं।

बांटने की इस कुनीति को नेताजी ने अच्छी तरह समझा था, और वे हमेशा इस बात से सतर्क रहे कि उनका भारत सांप्रदायिकता का शिकार न बने। यह अनायास नहीं था कि उनकी आजाद हिंद सेना में सभी धर्मो के लोग साथ मिलकर लड़ रहे थे। उनकी आजाद हिंद सरकार में भी हिंदुओं से मुसलमानों की संख्या अधिक थी। महबूब अहमद नेताजी के सैन्य सचिव थे, आबिद हसन उनके निकट सहयोगी थे। आजाद हिंद सेना के पहले कमांडर मुहम्मद जमान किमानी थे। 

इतिहास साक्षी है कि जब नेताजी अंग्रेजों के चंगुल से बच निकले तो अफगानिस्तान में उनका स्वागत एक मुसलमान ने ही किया था। पनडुब्बी से उनकी पहली यात्ना में भी उनके साथ आबिद हसन ही थे और उनकी अंतिम हवाई यात्ना में भी उनके साथ हबीबुर्रहमान थे। आजाद हिंद सेना पर अंग्रेजों द्वारा चलाए गए मुकदमों में मुख्य अभियुक्त एक हिंदू था, दूसरा मुसलमान और तीसरा सिख। यह सब संयोग नहीं था, नेताजी की सोची समझी नीति का ही परिणाम था।

15 अगस्त 1947 को जब जवाहरलाल नेहरू ने लाल किले पर तिरंगा फहराया तो उन्होंने अपने उद्बोधन में सिर्फ दो व्यक्तियों के नाम लिए थे- एक गांधी और दूसरा सुभाष। नेहरू ने कहा था, 'यह काम (लाल किले पर झंडा फहराना) सुभाषचंद्र बोस का था।' किले की प्राचीर से जय हिंद की घोषणा करके नेहरू ने वस्तुत: आजाद हिंद सेना के हर सिपाही के प्रति सम्मान भी प्रकट किया था।

आज इंडिया गेट पर सुभाष की प्रतिमा लगा कर देश उनके प्रति उचित सम्मान प्रदर्शित कर रहा है। लेकिन नेताजी का सच्चा सम्मान तो तब होगा जब हम ईमानदारी से उनके मूल्यों-आदर्शो के अनुरूप चलेंगे। नेताजी का भारत हर जाति, हर धर्म, हर वर्ग, हर वर्ण के भारतीय का भारत है। हमें अपने और नेताजी के भारत को वैसा ही बनाना है।

यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। धर्म के नाम पर देश को बांटने की हर कोशिश को नाकामयाब बनाना होगा। चेट्टियार मंदिर से जब नेताजी बाहर निकले तो नेताजी ने माथे पर टीका यह कह कर मिटा दिया था कि मुझे हिंदू के रूप में नहीं, भारतीय के रूप में देखा जाए। इस बात के मर्म को समझकर ही हम 'जय हिंद' कहने के सच्चे अधिकारी बन सकते हैं।

Web Title: Vishwanath Sachdev blog The threat looms over the legacy of the ideas of unity and equality

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