विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: भारतीय भाषाओं के बीच विवाद नहीं, संवाद हो
By विश्वनाथ सचदेव | Published: May 6, 2022 01:08 PM2022-05-06T13:08:10+5:302022-05-06T13:09:33+5:30
हिंदी देश की एकमात्र 'राष्ट्रभाषा' नहीं है, हमारी सारी भाषाएं 'राष्ट्रभाषाएं' हैं. इनमें हिंदी भी एक है - एकमात्र नहीं. हमें सब भाषाओं का सम्मान करना है.
14 सितंबर को देश में राजभाषा दिवस मनाया जाता है. हिंदी हमारे देश की राजभाषा है. इस संदर्भ में होने वाले कार्यक्रम मुख्यतया सरकारी स्तर पर ही होते हैं. जैसे यह एक वार्षिक सरकारी उत्सव होता है वैसे ही इस दिन देश के कुछ हिस्सों, विशेषकर दक्षिण भारत में ‘हिंदी को थोपने’ के विरुद्ध नारे लगाए जाते हैं. यह नारे लगाने का काम मुख्यतः राजनीतिक उद्देश्यों से आयोजित होता है.
इस बार यह आरोप कुछ जल्दी ही लग रहा है. दक्षिण भारत के एक फिल्मी कलाकार ने इस बीच एक बयान दिया था कि हिंदी अब देश की राष्ट्रभाषा नहीं रही. इसका जवाब बॉलीवुड के एक फिल्मी कलाकार ने यह कहकर दिया कि ‘यदि हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं है तो दक्षिण की फिल्मों को हिंदी में क्यों प्रस्तुत किया जाता है.’ पता नहीं क्या सोचकर इन दो कलाकारों ने हिंदी के संदर्भ में यह बात कही थी, पर जल्दी ही उन्होंने अपनी तरफ से इस विवाद को खत्म भी कर दिया.
पर विवाद खत्म हुआ नहीं. राजनीतिक स्वार्थ से प्रेरित होकर दक्षिण के कुछ राजनेताओं ने इसे लपक लिया. इसी बीच देश के गृह मंत्री के एक बयान ने भी विवाद को हवा दे दी. उन्होंने हिंदी को देश की संपर्क भाषा के रूप में विकसित करने की आवश्यकता को रेखांकित किया, तो कर्नाटक और तमिलनाडु के राजनेताओं ने इसे ‘हिंदी को थोपना’ कहकर राजनीति करनी शुरू कर दी. थोपा-थोपी का यह आरोप नया नहीं है, कई बार यह आरोप उग्र रूप ले चुका है. इसलिए जरूरी है कि विवाद की जड़ तक पहुंचा जाए और शिकायतों के निराकरण की ईमानदार कोशिश हो.
अब इस विवाद ने जो रूप ले लिया है उसमें जो सवाल उठते हैं वे इस प्रकार हैं : क्या हिंदी देश की राष्ट्रभाषा है, क्या देश के गृह मंत्री ने हिंदी को विकसित करने की बात कहकर संविधान का कोई उल्लंघन किया है और क्या हिंदी बनाम अंग्रेजी का सवाल उठना सही है?
पहले राष्ट्रभाषा की बात कर लें. यह सही है कि आजादी की लड़ाई के दौरान देश के लगभग सभी बड़े नेताओं ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात कही थी और ऐसा कहने वालों में लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, सुभाषचंद्र बोस, राजगोपालाचारी, सुब्रह्मण्यम भारती, केशव चंद्र सेन, लाला लाजपत राय जैसे अहिंदी भाषी प्रमुख थे. जब भाषा का सवाल संविधान सभा में आया, तब भी हिंदी को देश की राजभाषा बनाने का प्रस्ताव गोपाल स्वामी आयंगर ने रखा था और समर्थन करने वालों में के. एम. मुंशी और बाबासाहब आंबेडकर भी थे. यह सारे नाम अहिंदी भाषियों के हैं.
यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि हिंदी को देश की राजभाषा घोषित किया गया था, राष्ट्रभाषा नहीं. हमारे संविधान में यह भी कहा गया है कि केंद्र सरकार का कर्तव्य है कि वह राजभाषा हिंदी के संवर्धन के लिए प्रयासरत रहे, इसलिए देश के गृह मंत्री द्वारा हिंदी के विकास की बात कहने को हिंदी को थोपने के प्रयास के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए.
अब सवाल हिंदी बनाम अंग्रेजी का. देश के कुछ लोग हिंदी को थोपे जाने की बात कह रहे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि देश पर हिंदी नहीं, अंग्रेजी थोपी जा रही है. आज हिंदी को ही नहीं, हमारे देश की सारी भाषाओं को अंग्रेजी से खतरा है.
एक समर्थ भाषा के रूप में अंग्रेजी पढ़ना कतई गलत नहीं है वैश्विक स्थितियों को देखते हुए यह हमारी जरूरत भी हो सकती है. लेकिन अंग्रेजी की उपयोगिता और अंग्रेजी की श्रेष्ठता में अंतर है, इस अंतर को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए. मैं यह भी दुहराना चाहता हूं कि हिंदी देश की एकमात्र राष्ट्रभाषा नहीं है, हमारी सारी भाषाएं राष्ट्रभाषाएं हैं इनमें हिंदी भी एक है - एकमात्र नहीं. हमें सब भाषाओं का सम्मान करना है, हम जितनी भाषाएं सीखेंगे उतने समृद्ध होंगे.
भाषाई विवाद को निपटाने के लिए त्रिभाषा फार्मूला बना था, उस पर फिर से विचार करने की जरूरत है. विवाद नहीं संवाद की आवश्यकता है. भारतीय भाषाओं में संवाद, राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठकर एक दूसरे से जोड़ने की ईमानदार कोशिश ही इस समस्या का समाधान है.