विजय दर्डा का ब्लॉग: क्या राष्ट्रीय राजनीति का चेहरा बनेंगी ममता बनर्जी?
By विजय दर्डा | Published: May 4, 2021 08:54 AM2021-05-04T08:54:39+5:302021-05-04T08:59:52+5:30
पश्चिम बंगाल के नतीजों ने साफ कर दिया है कि ममता बनर्जी बीजेपी की तमाम तैयारियों के बावजूद पहले से ज्यादा ताकतवर बनकर उभरी हैं. ऐसे में राष्ट्रीय राजनीति में उनकी भूमिका को लेकर भी बातें होने लगी हैं.
पश्चिम बंगाल चुनाव को लेकर बड़े-बड़े दावों के बीच मैं भाजपा के अपने मित्रों को लगातार कह रहा था कि ममता बनर्जी हर हाल में हैट्रिक लगाएंगी. भाजपा अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद दो अंकों को पार नहीं कर पाएगी. यह सब मैं एक राजनेता के रूप में नहीं बल्कि एक पत्रकार के रूप में अपने विश्लेषण के आधार पर कह रहा था.
मैंने ममता दीदी की राजनीति का हमेशा ही गहराई से विश्लेषण किया है. वो जमीन से जुड़ी नेता हैं और उनके पास वामपंथियों को सरकार से उखाड़ फेंकने का कठिन अनुभव है. उन्होंने लाठियां खाई हैं और वे जानती हैं कि चक्रव्यूह कैसे तोड़ा जाता है.
इस बार भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें उखाड़ फेंकने के लिए चुनाव से दो-ढाई साल पहले ही चक्रव्यूह रचना प्रारंभ कर दिया था. सभी बड़े नेता, भाजपा से जुड़े सभी संगठन और आरएसएस ने सारी शक्ति लगा दी. हिंदू वोटों का गजब का ध्रुवीकरण किया. इसके लिए स्टार प्रचारक दिन-रात लगे रहे.
संघ ने घर-घर संपर्क किया. साम-दाम-दंड-भेद की चाणक्य नीति का पूरा उपयोग किया गया. चुनाव का मौसम आते-आते हवाओं के रंग बदलने लगे. दीदी की बदौलत बड़ा बनने वाले कई नेता भाजपा में चले गए. ऐसा माहौल बनाया गया कि दीदी तो इस बार गईं..! लेकिन दीदी इतनी आसानी से कहां हार मानने वाली थीं.
उन्होंने हर प्रहार का अपनी फायर ब्रांड वाली इमेज से ही जवाब दिया. वे अपना निर्वाचन क्षेत्र छोड़कर नंदीग्राम जा पहुंचीं और बड़े कद के नेता शुभेंदु अधिकारी, जो उनका साथ छोड़कर भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे थे, उनके सामने खड़ी हो गईं. भाजपा की रणनीति कामयाब हो गई. ममता नंदीग्राम से चुनाव हार गईं.
चुनाव के दौरान ममता बनर्जी दुर्घटनाग्रस्त हो गईं. उनका मूवमेंट कमजोर पड़ गया. लेकिन दीदी ने फिर एक बार साबित कर दिया कि वे पश्चिम बंगाल में सर्वमान्य नेता हैं. उन पर और उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी पर भ्रष्टाचार और गुंडागर्दी के भले ही कितने भी आरोप लगे हैं, जनता ने उन्हें वोट दिया. बल्कि दीदी पहले से ज्यादा ताकतवर बनकर उभरी हैं.
दीदी को यदि कांग्रेस का भी पूरा साथ मिला होता तो स्थिति और भी गजब की होती. कांग्रेस ने पांचवें राउंड में प्रचार बंद किया लेकिन ममता को जो डैमेज करना था वह तब तक कांग्रेस कर चुकी थी. इन प्रारंभिक गलतियों के कारण मुस्लिम वोटों का बंटवारा होने की आशंका ज्यादा बढ़ गई. इसका स्पष्ट फायदा भाजपा को मिला है.
कांग्रेस और वामपंथियों को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा. अधीर रंजन चौधरी यह बात जानते थे. लेकिन इतना स्पष्ट है कि लोगों ने धर्मनिरपेक्ष ताकतों को जिंदा रखने के लिए ममता को वोट किया है.
पश्चिम बंगाल का यह चुनाव परिणाम राष्ट्रीय राजनीति में बड़ा बदलाव लाने वाला साबित हो सकता है..! लेकिन इस बात की चर्चा करने से पहले जरा इस बात पर नजर डालें कि दूसरे राज्यों में क्या हुआ?
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि कांग्रेस को लोगों ने स्पष्ट रूप से बता दिया कि आप जनता की भावना को समङों और वैसा बर्ताव करें. जो नेता जमीन से जुड़े हैं कांग्रेस उनका सम्मान करे और उनको पार्टी में बागडोर संभालने दे.
केरल एक ऐसा राज्य है जहां कोई भी पार्टी लगातार दूसरी बार सत्ता में नहीं आई थी. यह पहली बार है कि लेफ्ट ने दोबारा सत्ता हासिल की. इसका कारण यह है कि जो जमीन से जुड़े नेता थे, कांग्रेस ने उन्हें हटा दिया और हाईकमान के करीबी के.सी. वेणुगोपाल को नेतृत्व सौंपा. राहुल गांधी केरल से ही सांसद हैं.
विश्लेषक कह रहे हैं कि कांग्रेस ने पुडुचेरी में नारायण सामी को थोपा जिसके कारण पुडुचेरी हाथ से निकल गया. सामी से बहुत नाराजगी थी जिसके कारण सरकार भी गई थी. इसके बावजूद कांग्रेस नहीं संभली. भाजपा की रणनीति सफल हुई कि उन्होंने पुडुचेरी की सरकार को पहले ही बर्खास्त कर दिया था.
असम में कांग्रेस ने बदरुद्दीन अजमल की पार्टी ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट को साथ लेकर चुनाव लड़ा लेकिन जो रणनीति बनाई थी वह असफल हो गई. हेमंत बिस्वा शर्मा जमीन से जुड़े नेता थे लेकिन उनके भाजपा में चले जाने के कारण कांग्रेस के हाथ से सत्ता निकल गई और परिणाम ये हुआ कि अजमल को साथ लेने के बावजूद कांग्रेस बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाई.
जहां तक तमिलनाडु का सवाल है तो मेरी स्टालिन से और उनके करीबियों से भी बातचीत हुई थी. जब मैं वहां गया तो मुङो साफ दिख रहा था कि स्टालिन को सत्ता में आना है क्योंकि वे वर्षो से जमीनी स्तर पर काम कर रहे थे.
जयललिता के जाने के बाद पलानीस्वामी की सरकार भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में फंसी हुई थी. उसका पूरा फायदा स्टालिन ने उठाया. भाजपा की मदद होने के बावजूद भी एडीएमके वहां कुछ नहीं कर सकी. जहां तक कांग्रेस का सवाल है तो वह स्पष्ट रूप से स्टालिन के रहमोकरम पर थी. स्टालिन कांग्रेस से खुश नहीं थे लेकिन सोनिया गांधी का लिहाज करते हुए उन्होंने कांग्रेस को 25 सीटें दे दी थीं लेकिन उसमें भी उन्हें नुकसान ही हुआ.
चलिए, अब फिर लौटते हैं पश्चिम बंगाल जहां दीदी ने गजब का दम दिखाया है. लेकिन बात केवल पश्चिम बंगाल की नहीं है बल्कि उन्होंने देश की विपक्षी राजनीति में भी एक नई उम्मीद जगाई है. अब ये देखना है कि पूरे देश में जो धर्मनिरपेक्ष ताकतें हैं वे एक साथ कैसे आती हैं और सोनिया जी कैसी रणनीति अपनाती हैं.
क्या वे वो रणनीति अपनाएंगी जब पैदल चलकर मायावती के घर गई थीं? क्या वो वैसी ही रणनीति अपनाकर हर राज्य के दिग्गजों को लेकर आगे बढ़ेंगी? ..या यूपीए-2 बनता है जिसमें शरद पवार संयोजक बनकर सभी को एक झंडे के नीचे लाने में सफल हुए? अभी कुछ भी कहना मुश्किल है लेकिन इतना स्पष्ट है कि आगे की लड़ाई भाजपा बनाम सेक्युलर फोर्स नहीं बल्कि नरेंद्र मोदी वर्सेज ऑल होने वाली है. देखना दिलचस्प होगा कि ममता दीदी का रुख क्या रहता है.!
एक और बात..चलिए चुनाव हो गए लेकिन अब कोरोना यहां प्रसाद के रूप में कितनों तक पहुंचा है और लोगों का क्या हाल करेगा, यह चिंता का विषय है. देश में ऐसा कहा जा रहा है कि महाराष्ट्र में कोरोना सबसे ज्यादा फैला हुआ है लेकिन भारत सरकार का जो आंकड़ा मैं देख रहा था वह चौंकाने वाला है.
जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए या पंचायत चुनाव हुए हैं वहां रैलियों और सभाओं के कारण कोरोना के आंकड़े भयावह रूप से बढ़े हैं. अप्रैल महीने में आसाम में 5412 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल में 1266 प्रतिशत, केरल में 1229 प्रतिशत, यूपी में 1227 प्रतिशत, तमिलनाडु में 563 प्रतिशत तथा पुडुचेरी में 359 प्रतिशत कोरोना मरीजों की संख्या बढ़ी है. इसे कहते हैं घनघोर लापरवाही..!