विजय दर्डा का ब्लॉग: उम्मीदों के गुलशन में निराशा के कैक्टस..!
By विजय दर्डा | Published: January 3, 2022 09:25 AM2022-01-03T09:25:53+5:302022-01-03T09:25:53+5:30
आशा, आकांक्षा और अभिलाषा के फूल खिले हैं मन में लेकिन कैसे करूं मैं नए साल की आवभगत...?
बीते वर्ष की अंतिम रात को नींद के आगोश में जाते हुए न जाने कितने सपने संजोये थे मैंने. घड़ी के तीनों कांटों का मिलन हुआ तब मैं भी वक्त के कैनवास पर वर्ष 2022 की अगवानी कर रहा था. अपनी पारंपरिक मान्यता के अनुरूप हर्षोल्लास के साथ जश्न भी मनाया था.
मेरे घर में जो सर्वधर्म समभाव वाला छोटा सा मंदिर है उसमें पूजा-अर्चना की थी. अपनी खुशहाली, परिवार की खुशहाली, नाते-रिश्तेदारों और इष्ट मित्रों की खुशहाली, लोकमत परिवार की खुशहाली के साथ ही देश और दुनिया की खुशहाली के लिए मन्नतें मांगी थीं. नए साल की नई किरणों में आलोकित हो जाने की चाहत लेकर सोया था..!
मुझे क्या पता था कि सुबह नींद खुलेगी तो एक काली खबर इंतजार कर रही होगी. कड़ाके की ठंड के बावजूद लोग जीवन में सुख-समृद्धि और अच्छे स्वास्थ्य की मनोकामना पूर्ण होने का भक्तिभाव लेकर माता वैष्णोदेवी के दरबार में पहुंचे थे. ऐसे मौकों पर जिसका हमेशा डर होता है, वही हुआ. रात ढल रही थी कि अचानक भगदड़ मच गई. 12 श्रद्धालुओं की मौत हो गई, कई घायल हो गए और सपने चूर-चूर हो गए..!
धार्मिक स्थलों पर भगदड़ में मौत की यह कोई पहली घटना नहीं है. पिछले साल 21 अप्रैल को तमिलनाडु के करुप्पासामी मंदिर में भगदड़ के कारण 7 लोगों की जान चली गई थी. सबरीमाला मंदिर में 2011 में मची भगदड़ में 106 लोगों की मौत हो गई थी और 100 से ज्यादा घायल हुए थे. हिमाचल प्रदेश के नयना देवी मंदिर में 3 अगस्त 2008 को भगदड़ में 145 लोगों की जान चली गई थी जबकि जोधपुर स्थित चामुंडा देवी मंदिर में 120 लोगों की मौत हो गई थी. 2005 में महाराष्ट्र के सतारा जिले में मंधेर देवी मंदिर में मची भगदड़ ने 350 लोगों की जान ले ली थी. ये तो कुछ उदाहरण हैं. हर राज्य में ऐसी घटनाएं घटी हैं.
सवाल यह है कि कौन जिम्मेदार है इसके लिए? घटनाएं अचानक नहीं होतीं. यह देश श्रद्धा पर टिका हुआ देश है. भक्तिभाव का देश है. यहां पर ईश्वर के प्रति समर्पण है, श्रद्धा है और अंधश्रद्धा भी है. प्रशासन को पता होता है कि लोग आएंगे, जल्दी दर्शन करने और ज्यादा देर भक्तिभाव की लालसा होती है. ऐसे में क्या यह प्रशासन की जिम्मेदारी नहीं है कि वह सोच-समझ कर नियोजन करे? ऐसे कैसे जानें चली जाती हैं?
वैष्णोदेवी जैसे संस्थानों में तो बड़े-बड़े अधिकारी बैठे रहते हैं. लोग पर्ची लेकर ऊपर गए तो भीड़ कैसे बढ़ गई और भगदड़ कैसे मच गई? किसी न किसी को तो जिम्मेदारी लेनी ही होगी. लोग तो अपने तरीके से ही बर्ताव करेंगे. अराजक बर्ताव उनकी आदत में शुमार है. वास्तव में लोगों की जिंदगी शासन और कुशासन के बीच फंसी रहती है.
रोज सुबह अखबार हाथ में आते ही सूचना मिलती है कि ये घटना हो गई..वो दुर्घटना हो गई..! कई बार तो लगता है कि लॉकडाउन ही अच्छा था!
बारात लेकर लौट रहे लोगों के मन में कितनी उमंगें, कितनी खुशियां रही होंगी..लेकिन सड़क हादसा हुआ और सभी लोग लाशों में तब्दील हो गए! मैं मानता हूं कि यह सब रातोंरात नहीं बदल सकता. हम सभी जानते हैं कि किस तरीके से वाहन चलाने के लाइसेंस दिए जाते हैं. रास्ते पर चलने का अनुशासन नहीं है. बचपन से सिखाया नहीं जाता कि रास्ते पर कैसे चलना चाहिए. कैसे रास्ता देना चाहिए. वास्तव में कोई सिविक सेंस है ही नहीं! बहुत से युवा तो बेलगाम होकर खतरनाक तरीके से सड़क पर दोपहिया वाहन दौड़ाते हैं. इनमें से कई घर नहीं पहुंचते, उनकी मौत की खबर पहुंचती है! क्या इन पर लगाम नहीं लगा सकते? चलने का सलीका सीखने में लोगों को दस-बीस साल लग जाएंगे तब तक लाखों जानें चली जाएंगी इसलिए व्यवस्था सुधारनी होगी.
नए साल की पहली सुबह एक अच्छी खबर आई कि महामारी से सबक सीखते हुए सरकार ने स्वास्थ्य क्षेत्र में इन्फ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने का निर्णय लिया है. खबर यह भी आई कि डेढ़ सौ से ज्यादा नए विश्वविद्यालय खुलेंगे. डॉक्टर्स की कमी दूर करने का प्रयत्न किया जाएगा.
अच्छी बात है. लेकिन हमें इस पर भी विचार करना होगा कि बहुत से डॉक्टर आखिर क्यों व्यावसायिक होते जा रहे हैं? मैं जब सेवा के प्रति समर्पित अच्छे और बड़े संवेदनशील डॉक्टर्स से बात करता हूं तो वे कहते हैं कि जब तक सीटें बिकती रहेंगी, तब तक हालात नहीं सुधरेंगे. जब लोग करोड़ों रुपए खर्च करके डॉक्टर बनेंगे, करोड़ों की मशीन खरीदेंगे तो आप कैसे उम्मीद करते हैं कि वे संवेदनशील रहें!
क्या सरकार को यह पता नहीं है कि मेडिकल की सीटें बिकती हैं? आखिर सरकार में बैठे लोग भी तो आम जनता के बीच से ही चुनकर जाते हैं. दरअसल डॉक्टर्स तैयार करने के लिए सीटें बढ़ा दें, जरूरत के अनुसार दो से लेकर पांच साल तक के अलग-अलग कोर्स तैयार करें तो जल्दी और ज्यादा डॉक्टर्स देश को मिल सकते हैं.
यह तकनीक का जमाना है और व्यापक पैमाने पर यदि तकनीक का उपयोग किया जाए तो हालात को जल्दी बदला जा सकता है. मरीजों को लूट से राहत मिल सकती है. जरूरत सरकार के स्तर पर दृढ़ता, बेहतर नीतियों और समय पर क्रियान्वयन की है.
और हां, आप मत भूलिए कि इस देश में आज भी तीस से चालीस प्रतिशत लोगों को ठीक से खाना नहीं मिल पा रहा है. रहने के लिए घर नहीं है और पहनने के लिए पर्याप्त कपड़े नहीं हैं. एक तरफ फोर्ब्स की सूची बढ़ रही है. मध्यमवर्ग का आकार बढ़ रहा है मगर जो नीचे का तबका है वह आज भी झोपड़पट्टी में रह रहा है. सिसक-सिसक कर नरक की जिंदगी बिताने पर मजबूर है. इन विषम स्थितियों से उन्हें उबरना पड़ेगा.
..और ये कितनी बड़ी विडंबना है कि एक तरफ सरकार लोगों को बोल रही है कि शादी में 50 लोग से ज्यादा न जुटें, अंतिम यात्र में 20 से ज्यादा लोग न हों, मास्क पहनें, सुरक्षित दूरी बनाए रखें और दूसरी ओर एक विधायक के यहां शादी में दस-बीस हजार लोग एकत्रित हो रहे हैं! ओमिक्रॉन देश में बड़े पैमाने पर दस्तक दे रहा है और नेताओं की चुनावी रैलियों में लाखों लोग जुट रहे हैं! भीड़ के चेहरे पर न मास्क है और न सुरक्षित दूरी!
इन हालात में मैं नए साल की कैसे आवभगत करूं..? चलते चलते ये कविता पढ़िए.. जिसने भी लिखी है, खूब लिखी है. हम भी ऐसी ही उम्मीद करें..
नए साल का नया सवेरा,
जब, अंबर से धरती पर उतरे
तब शांति, प्रेम की पंखुड़ियां,
धरती के कण-कण पर बिखरें.
चिड़ियों के कलरव गान के संग,
मानवता की शुरू कहानी हो,
फिर न किसी का लहू बहे,
ना किसी आंख में पानी हो.
शबनम की सतरंगी बूंदें,
बरसे घर-घर द्वार,
मिटे गरीबी भुखमरी,
नफरत की दीवार.
ठंडी-ठंडी पवन खोल दे,
समरसता के द्वार,
सत्य, अहिंसा और प्रेम,
सीखे सारा संसार.
सूरज की ऊर्जा में किरणों,
अंतरमन का तम हर लें,
नई सोच के नवप्रभात से,
घर-घर मंगल दीप जले.