विजय दर्डा का ब्लॉग: दोस्तों का स्पर्श नहीं, अकेलेपन में डूब रहे बच्चे
By विजय दर्डा | Published: April 12, 2021 08:48 AM2021-04-12T08:48:23+5:302021-04-12T08:57:03+5:30
कोरोना महामारी के बाद आज छोटे-छोटे बच्चे भी ऑनलाइन पढ़ाई के लिए मजबूर हैं. इसके कई दुष्प्रभाव आने वाले दिनों में देखने को मिल सकते हैं. बच्चे एक-दूसरे से भौतिक रूप से मिल भी नहीं पा रहे हैं. इसका भी बुरा असर नजर आ सकता है.
महाराष्ट्र में चल रहा सत्ता संघर्ष, पुलिस महकमे में मचा घमासान, छत्तीसगढ़ में नक्सलियों का उपद्रव, पश्चिम बंगाल और अन्य राज्यों में चुनावी सभाओं व रैलियों में बिना मास्क के और बगैर सुरक्षित दूरी के उमड़ते लोग, कोरोना का भीषण प्रकोप एवं दवाइयों और वैक्सीन की कमी को लेकर आरोप-प्रत्यारोप और अपना वजूद बचाने के लिए जद्दोजहद करता हुआ उद्योजक और व्यापारी व्यवसायी! इन सारे महत्वपूर्ण विषयों को छोड़कर इस बार मैंने भविष्य के कर्णधारों यानी बच्चों और किशोरों को लेकर यह कॉलम लिखने का निश्चय किया क्योंकि युवा पीढ़ी, खासकर विद्यार्थी इस वक्त भीषण तनाव में हैं. ये तनाव इतना गहरा है कि मुझे यह डर लग रहा है कि कहीं यह कोई व्यापक मनोवैज्ञानिक समस्या न खड़ी कर दे!
भविष्य को लेकर मैं गंभीर रूप से चिंतित हो रहा हूं. कोरोना ने जो हालात पैदा कर दिए हैं उससे स्थिति और खराब होती जा रही है. आज केजी स्तर के छोटे-छोटे बच्चे भी ऑनलाइन पढ़ाई के लिए मजबूर हैं. मुझे आंखों के एक डॉक्टर बता रहे थे कि ऑनलाइन पढ़ाई का कोई सार्थक परिणाम तो निकलेगा नहीं बल्कि इसका ज्यादा बुरा असर बच्चों की आंखों पर होगा. उन्हें स्क्रीन डिजीज हो जाएगी. स्क्रीन की इतनी बुरी लत पड़ेगी कि इनकी दुनिया मोबाइल, कम्प्यूटर यानी कि स्क्रीन के आसपास घूमती रहेगी. इस उम्र में जो उन्हें वास्तव में एक्टिविटी करनी चाहिए उससे वे कोसों दूर चले जाएंगे.
बच्चों पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को लेकर हाल के दिनों में मेरी देश और विदेश के कई मनोवैज्ञानिकों के साथ चर्चाएं होती रही हैं. एक मनोवैज्ञानिक ने मुझे बताया कि बच्चे एक-दूसरे से भौतिक रूप से मिल नहीं पा रहे हैं. एक-दूसरे का हाथ हाथों में थाम नहीं पा रहे हैं. जाहिर सी बात है कि स्पर्श की अपनी एक भाषा होती है, उसमें स्नेह और प्रेम का संदेश होता है, समरसता की एक सीख होती है, घुलने-मिलने का आनंद होता है जो बच्चों को प्रफुल्लित करता है.
स्वाभाविक तौर पर जब स्पर्श नहीं है तो ये सारे भाव गुम होते जा रहे हैं. ऑनलाइन पढ़ाई तो हो जाती है लेकिन एक-दूसरे से मिलने के सुख से बच्चे वंचित हो रहे हैं. मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि यह स्थिति ज्यादा दिन रही तो बच्चों में अवसाद और बढ़ता चला जाएगा.
एक पैरेंट ने मनोवैज्ञानिक को बताया कि कोरोना काल में अकेले रहते हुए उनका बच्च इतना आत्मकेंद्रित हो गया है कि अब दूसरे बच्चों से मिलने का अवसर भी आ जाए तो उसमें मिलने का उत्साह दिखाई नहीं देता. अब वह घर के कम्प्यूटर और मोबाइल से दोस्ती कर बैठा है. दूसरे बच्चों से मिलने से कतराने लगा है.
मनोवैज्ञानिकों की बात सुनकर मुझे साउथ कोरिया के उस बच्चे की कहानी याद हो आई जो अकेलेपन में इतना डूब गया था कि अपनी उम्र के बच्चों से भी मिलना-जुलना बंद कर दिया. बाद में उसका इलाज करना पड़ा ताकि वह नॉर्मल हो सके.
कहने का आशय यह है कि बच्चों में तनाव का स्तर इतना बढ़ गया है कि उनके मानसिक व शारीरिक विकास पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है.
कोरोना काल में एक ओर स्कूल छूटा है तो दूसरी ओर परीक्षा का तनाव भी उन्हें परेशान करता रहा है. पालक चाहते थे कि बच्चों की परीक्षाएं हों लेकिन सरकार ने पहली से आठवीं तथा नौवीं और ग्यारहवीं के बच्चों को अगली कक्षा में पहुंचा दिया है परंतु उसके पहले शिक्षा विभाग ने इन बच्चों को भी बहुत तनाव दिया.
अब 10वीं और 12वीं बोर्ड के बच्चों की परीक्षा होनी बाकी है. इसे लेकर कभी कहा कि ऑनलाइन परीक्षा होगी, कभी कहा कि ऑफलाइन परीक्षा होगी! कभी कहा कि प्रैक्टिकल होगा, कभी कहा कि नहीं होगा! सवाल यह है कि बच्चों की पढ़ाई पूरी नहीं हो पाई तो वे परीक्षा कैसे देंगे? अकेले महाराष्ट्र में दसवीं और बारहवीं की परीक्षा में करीब 30 लाख विद्यार्थी शामिल होते हैं.
आखिर इतने बच्चों को तनाव में रखने का औचित्य क्या है? शिक्षा विभाग का यह रवैया ठीक नहीं है. इतना कन्फ्यूजन क्यों? इससे तो बच्चों में तनाव ही पैदा होता है!
वैसे हमारी पूरी शिक्षा प्रणाली ही बच्चों को तनाव देती है. मानव संसाधन विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट कहती है कि 11 से 17 वर्ष आयु वर्ग के स्कूली बच्चे भारी तनाव के शिकार हो रहे हैं जिससे उनके मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है.
मुझे याद है कि 1993 में जाने-माने वैज्ञानिक डॉ. यशपाल की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया गया था कि किस तरह से बच्चों को भारी-भरकम बस्ते के बोझ से मुक्ति दिलाई जाए लेकिन हालात में कोई बहुत फर्क नहीं पड़ा. हां, दिल्ली सरकार ने हाल के वर्षो में एक जोरदार पहल की है. दिल्ली के स्कूलों में ‘हैप्पी क्लास’ चल रहे हैं. बच्चे खेल खेल में पढ़ते हैं. मेरी राय है कि इस तरह के ‘हैप्पी क्लास’ पूरे देश में प्रारंभ किए जाने चाहिए...और ये जो अंक प्रणाली है उसे बदलना बहुत जरूरी है.
हर कोई यह स्वीकार करता है कि किसी परीक्षा में सर्वोच्च अंक लाने का मतलब यह कतई नहीं है कि वह बच्च सर्वश्रेष्ठ है. देखने में यह आया है कि जिंदगी में वे बच्चे भी ज्यादा सफल हुए हैं जो अंकों की होड़ से दूर रहे हैं. लेकिन ज्यादा अंक लाने की जो होड़ समाज में पैदा हो गई है उससे बच्चे परेशान हैं. कई बार वे आत्महत्या तक कर लेते हैं.
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 2011 से 2018 के बीच करीब 70 हजार विद्यार्थियों ने खराब अंक तथा परीक्षा परिणाम के भय से अपनी जान दे दी. इनमें लगभग 50 प्रतिशत घटनाएं स्कूल स्तर की थीं.
मैं एक और आंकड़ा आपके सामने रखना चाहूंगा. मानव संसाधन विकास मंत्रलय की रिपोर्ट कहती है कि गांवों में जहां 6.9 फीसदी बच्चों में मानसिक समस्या देखी गई है, वहीं शहरों में यह आंकड़ा करीब 13.5 फीसदी है. हम सबको यह समझना होगा कि ज्यादा अंक लाना ही जिंदगी नहीं है! इसके साथ ही हमें अपनी शिक्षा प्रणाली को ऐसा स्वरूप देना होगा कि हमारे विद्यार्थी तनाव का शिकार ही न हों!