विजय दर्डा का ब्लॉग: बौखलाइए मत, सच का सामना कीजिए!

By विजय दर्डा | Published: August 29, 2022 06:54 AM2022-08-29T06:54:15+5:302022-08-29T06:54:39+5:30

गुलाम नबी आजाद के पत्र में कांग्रेस छोड़ने की पीड़ा भी है और कांग्रेस को विनाश के कगार पर ले जाने वालों के प्रति गहरा उद्वेग भी है. उनकी बातों पर गहराई से ध्यान देकर पार्टी को सही रास्ते पर लाने के बजाय उनकी आलोचना शुरू हो गई है. वास्तव में यह वक्त बौखलाने का नहीं बल्कि सच का सामना करने की हिम्मत जुटाने का है...!

Vijay Darda blog congress should not panic but face the truth on Ghulam Nabi Azad leaving party | विजय दर्डा का ब्लॉग: बौखलाइए मत, सच का सामना कीजिए!

कांग्रेस को सच का सामना करने की जरूरत

गुलाम नबी आजाद के पत्र को लेकर इस वक्त कांग्रेस के अंदर बौखलाहट की स्थिति है. आलाकमान को अपनी गिरफ्त में ले चुके लोग आजाद पर लांछन लगा रहे हैं. कोई कह रहा है कि राज्यसभा की सीट न मिलने के कारण आजाद ने पार्टी छोड़ी तो कोई कह रहा है कि वे दिल्ली का अपना निवास बचाना चाह रहे थे. सतही तौर पर ये बातें सही लग सकती हैं लेकिन क्या यही सच है? आजाद ने कांग्रेस की बदहाली को लेकर जो खुली बातें की हैं, क्या वे गलत हैं?

एक पत्रकार के रूप में हमेशा ही मेरा आकलन रहा है कि लोकतंत्र की मजबूती के लिए सशक्त विपक्ष का होना बहुत जरूरी है. यह भूमिका निभाने की ताकत केवल और केवल कांग्रेस में है. यदि कांग्रेस आईसीयू में है तो उसे लेकर कांग्रेसी तो चिंतित हैं ही, लोकतंत्र में विश्वास रखने वाला हर व्यक्ति भी गंभीर चिंता में है. 

इसमें कोई संदेह नहीं कि नेहरू-गांधी परिवार के प्रति कांग्रेसियों का विश्वास रहा है. आदर भी रहा है लेकिन जब परिवार ही संकट में हो ओैर नेतृत्व कोई रास्ता तलाश पाने में असफल साबित हो रहा हो तो परिवार में बात तो करनी पड़ेगी! ठीक दो साल पहले गुलाम नबी आजाद और कपिल सिब्बल सहित कांग्रेस के 23 वरिष्ठ नेताओं ने जब इस संदर्भ में आत्म-निरीक्षण की बात की तो उन्हें विरोधी करार दे दिया गया. उन पर हमले शुरू हो गए! आलाकमान को घेरे रहने वाले कॉकस ने ऐसे बताया जैसे जी-23 के लोग दुश्मन हों!

अंतत: क्या हुआ? कांग्रेस के बड़े जनाधार वाले नेता एक-एक कर पार्टी छोड़ते चले गए. यहां तक कि राहुल गांधी के करीबी माने जाने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद और आरपीएन सिंह ने भी कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया. कपिल सिब्बल, अश्विनी कुमार तो गए ही, हरियाणा के बिरेंदर सिंह और राव इंद्रजीत सिंह, असम कांग्रेस में बड़े नेता रहे हेमंत बिस्वा शर्मा भी भाजपा में चले गए. 

अरुणाचल के मुख्यमंत्री प्रेमा खांडू पहले कांग्रेस में थे. कर्नाटक के पूर्व सीएम एस.एम. कृष्णा, महाराष्ट्र के पूर्व सीएम नारायण राणो भी भाजपा के साथ हो लिए. जो छोड़कर गए उन्हें सत्ता का लोभी बता दिया गया. लेकिन यह मसला संगठन को लेकर नाउम्मीदी का है.

जहां तक गुलाम नबी आजाद का सवाल है तो मैं उन्हें निजी तौर पर काफी पहले से जानता हूं. मुझे याद है कि इंदिरा गांधी उन्हें संसद में भेजना चाहती थीं लेकिन जम्मू-कश्मीर से ऐसा संभव नहीं था. इंदिराजी ने मेरे बाबूजी ज्येष्ठ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जवाहरलाल दर्डा को फोन किया कि विदर्भ की किसी सीट से आजाद को संसद में भेजने की व्यवस्था कीजिए. 

गुलाम नबी आजाद ने तत्कालीन वाशिम संसदीय सीट से चुनाव लड़ा और जीतकर संसद में पहुंचे. आजाद को न केवल इंदिराजी चाहती थीं बल्कि आजाद तो राजीव गांधी और संजय गांधी के भी बहुत करीबी रहे. उनकी शादी में संजय गांधी प्लेन चला कर बारात लेकर कश्मीर गए थे. जब ये बीमार थे तब राजीव गांधी उन्हें एक बार नहीं बल्कि तीन बार देखने गए.

आजाद ने यह सम्मान और विश्वास अपने कर्म से प्राप्त किया. ब्लॉक लेवल से अपना राजनीतिक कैरियर शुरू करने वाले आजाद ने युवक कांग्रेस को काफी ऊंचाई पर पहुंचाया, विभिन्न विभागों के मंत्री और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री के रूप में अपनी बेहतरीन कार्यदक्षता का परिचय दिया. जब वे सदन में विपक्ष के नेता थे तब मैं भी संसद में था. अत्यंत शालीन और सुलझे हुए आजाद की खासियत यह रही कि अपनी वाणी से उन्होंने किसी को कभी ठेस नहीं पहुंचाई. 

यही कारण है कि विपक्ष के साथ भी उनके रिश्ते हमेशा ही सौहार्द्रपूर्ण रहे. संसद से उनकी विदाई का वक्त आपको याद ही होगा कि किस तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनकी तारीफ की थी.

कांग्रेस के प्रति समर्पित और गांधी परिवार के प्रति निष्ठावान ऐसा व्यक्ति यदि कहता है कि आंतरिक चुनाव के नाम पर नेतृत्व धोखा दे रहा है, सोनिया गांधी अब सिर्फ नाम मात्र की नेता रह गई हैं, राहुल गांधी के पीए और गार्ड्स फैसले ले रहे हैं, राहुल गांधी ने आते ही व्यवस्थाएं ध्वस्त कर दीं तो निश्चय ही बातें बेबुनियाद नहीं हैं. 

कांग्रेस को करीब से जानने और समझने वाले लोगों को यह मालूम है कि अहमद पटेल और आजाद सोनियाजी के काफी करीबी थे लेकिन उन्हें अलग कर दिया गया. आज क्या राहुल गांधी से मिलना आसान रह गया है? लोग बताते हैं कि राहुल गांधी के इनर सर्किल में पूर्व बैंकर अलंकार सवाई हैं जो उनके दौरों में शामिल रहते हैं. एसपीजी के एक पूर्व अधिकारी के. वी. बायजू राजनीतिक अप्वाइंटमेंट का फैसला लेते हैं. 

के.के. विद्यार्थी नाम के सज्जन ईमेल का उत्तर देते हैं और अन्य गतिविधियां देखते हैं. इनमें से कितने लोगों को कांग्रेस के कार्यकर्ता जानते हैं? क्या यह स्थिति कांग्रेस के लिए खतरनाक नहीं है?

एक दिन मुझसे पूछा गया कि लोकमत में भाजपा की इतनी खबरें क्यों आती हैं? मैंने जवाब दिया कि मैं निजी तौर पर एक विचारधारा का हूं लेकिन लोकमत लोगों का अखबार है, कांग्रेस का मुखपत्र नहीं है. मेरे पिताजी ने यही बात कही थी और यही सिखाया भी कि अखबार का दायित्व पाठकों के प्रति है. पार्टी के नेताओं को भी देश और पार्टी के प्रति जिम्मेदार होना चाहिए लेकिन अभी सब उल्टा हो रहा है! 

अशोक गहलोत, कमलनाथ, भूपेश बघेल, पृथ्वीराज चव्हाण या इन जैसे कुछ नेताओं की बात छोड़ दें तो कितने नेता हैं जो पार्टी को मजबूत करते हैं? ...और ऐसे नेताओं को भी तवज्जो मिलती है क्या? क्या इनके रास्ते में कांटे नहीं बिछाए जाते? ऐसा क्यों?

एक बात समझ लीजिए कि राजनीतिक दल कोई साधु-संतों का संगठन नहीं है. नेता विभिन्न तरीकों से पार्टी को मजबूत करते रहते हैं. यदि सत्ता में रहते हुए कांग्रेस ने खुद को मजबूत नहीं किया या आज नहीं कर रही है तो इसके लिए भाजपा या संघ को तो दोषी नहीं ठहराया जा सकता! 

वे अपनी पार्टी मजबूत कर रहे हैं. संघ खुद को मजबूत कर रहा है. ...और इधर कांग्रेस खुद को तबाह करने में लगी है. इन सारी परिस्थितियों से सबसे ज्यादा कांग्रेस का आम कार्यकर्ता परेशान है कि ये क्या हो रहा है. उसकी आवाज कोई नहीं सुनता. हर कार्यकर्ता महसूस कर रहा है कि कुछ लोग पार्टी को विनाश के कगार पर ले आए हैं. जरूरी है कि सच को सुनिए, सच को दरकिनार मत कीजिए. सच यही है कि कांग्रेस की जड़ों को कांग्रेस के कुछ नेता ही कमजोर कर रहे हैं.

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