वेदप्रताप वैदिक का ब्लॉग: नेपाल की राजनीति फिर अधर में
By वेद प्रताप वैदिक | Published: May 24, 2021 03:37 PM2021-05-24T15:37:43+5:302021-05-24T15:40:08+5:30
कोरोना के इस संकट के दौर में नेपाल की राजनीति में जारी उठापटक ने नई मुश्किलें पैदा कर दी हैं. इस महामारी के माहौल में चुनाव हो पाएंगे या नहीं, यह भी पक्का नहीं है.
नेपाल की सरकार और संसद एक बार फिर अधर में लटक गई है. राष्ट्रपति विद्यादेवी भंडारी ने वही किया है, जो उन्होंने पहले 20 दिसंबर को किया था यानी संसद भंग कर दी है और छह माह बाद नवंबर में चुनावों की घोषणा कर दी है. यानी प्रधानमंत्री के.पी. ओली को कुर्सी पर टिके रहने के लिए अतिरिक्त छह माह मिल गए हैं.
जब पिछले 20 दिसंबर को संसद भंग हुई थी तो नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय ने इस निर्णय को गलत बताया और संसद को फरवरी में पुनर्जीवित कर दिया था लेकिन ओली उसमें अपना बहुमत सिद्ध नहीं कर सके.
पिछले तीन महीने में काफी जोड़-तोड़ चलती रही. कई पार्टियों के गुटों में फूट पड़ गई और सांसद अपनी मनचाही पार्टियों में आने और जाने लगे. इसके बावजूद ओली ने संसद में अपना बहुमत सिद्ध नहीं किया. संसद में जब विश्वास का प्रस्ताव आया तो ओली हार गए.
राष्ट्रपति ने फिर नेताओं को मौका दिया कि वे अपना बहुमत सिद्ध करें लेकिन सांसदों की जो सूचियां ओली और नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा ने राष्ट्रपति को दीं, उनमें दर्जनों नाम एक-जैसे थे. यानी बहुमत किसी का नहीं था.
सारा मामला विवादास्पद था. ऐसे में राष्ट्रपति विद्यादेवी भंडारी किसे शपथ दिलातीं? उन्होंने संसद भंग कर दी और नवंबर में चुनावों की घोषणा कर दी. अब विरोधी दलों के नेता दुबारा सर्वोच्च न्यायालय की शरण लेंगे. उन्हें पूरा विश्वास है कि न्यायालय दुबारा इसी संसद को फिर से जीवित कर देगा.
उनकी राय है कि यदि सर्वोच्च न्यायालय दुबारा संसद को जीवित नहीं करेगा और ओली सरकार इस्तीफा नहीं देगी तो उसके खिलाफ वे जन-आंदोलन चलाएंगे. दूसरे शब्दों में अगले पांच-छह महीनों तक नेपाल में कोहराम मचा रहेगा, जबकि कोरोना से हजारों लोग रोज पीड़ित हो रहे हैं.
नेपाल की अर्थव्यवस्था भी आजकल डावांडोल है. विपक्ष के नेता राष्ट्रपति विद्यादेवी भंडारी और ओली पर मिलीभगत का आरोप लगा रहे हैं. ओली की कृपा से ही वे अपने पद पर विराजमान हुई हैं, इसीलिए वे ओली के इशारे पर सबको नचा रही हैं.
इस आरोप में कुछ सत्यता हो सकती है लेकिन सवाल यह भी है कि यदि विपक्ष की सरकार बन भी जाती तो वह जोड़तोड़ की सरकार कितने दिन चलती? इससे बेहतर तो यही है कि चुनाव हो जाएं और नेपाली जनता जिसे पसंद करे, उसी पार्टी को सत्तारूढ़ करवा दे. कोरोना के इस संकट के दौरान चुनाव हो पाएंगे या नहीं, यह भी पक्का नहीं है. नेपाली राजनीति मुश्किल में फंस गई है.