राजेश बादल का ब्लॉग: राज्यपालों के बहाने उठते कुछ गंभीर सवाल
By राजेश बादल | Published: February 11, 2020 06:12 AM2020-02-11T06:12:01+5:302020-02-11T06:12:01+5:30
कोलकाता के राजभवन से इन दिनों गुस्सैल हवाएं निकल रही हैं. राज्यपाल जगदीप धनखड़ तमतमाए हुए हैं. दो दिन पहले उन्होंने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कहा कि बंगाल में बारूद का खुला कारोबार चल रहा है. ऐसे में शांतिपूर्ण मतदान कैसे संभव है?
दिल्ली विधानसभा चुनाव के गंदगी भरे प्रचार अभियान से निश्चित तौर पर केरल और बंगाल के राजप्रमुख भी प्रसन्न नहीं होंगे. इस निर्वाचन के शोर में राज्य सरकारों से उनके रिश्तों में आई ताजा तल्खी हाशिए पर चली गई. अगर इन दो प्रदेश सरकारों ने रूठे राज्यपालों को मनाने का प्रयास नहीं किया तो गवर्नरों ने भी अपनी सरकार से संबंध सुधारने की पहल नहीं की. अपनी-अपनी जिद पर अड़े दोनों पक्ष हवा में तलवारें लहरा रहे हैं और म्यान में उन्हें रखने का फिलहाल इरादा नहीं दिखाई देता. भारतीय लोकतंत्न में कुछ ऐसे अध्याय भी लिखे जाने थे.
कोलकाता के राजभवन से इन दिनों गुस्सैल हवाएं निकल रही हैं. राज्यपाल जगदीप धनखड़ तमतमाए हुए हैं. दो दिन पहले उन्होंने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कहा कि बंगाल में बारूद का खुला कारोबार चल रहा है. ऐसे में शांतिपूर्ण मतदान कैसे संभव है? कुछ दिन पहले वे हताशा में विधानसभा भवन के द्वार पर ही धरना देकर बैठ गए थे. भारत के इतिहास में किसी राज्यपाल के धरना देने की यह पहली घटना है. उन्हें विधानसभा अध्यक्ष ने दोपहर के भोज पर बुलाया था. लेकिन किन्ही कारणों से आयोजन स्थगित कर दिया गया.
राजभवन को बाकायदा सूचित भी कर दिया गया. इसके बाद भी वे विधानसभा जा पहुंचे. एक द्वार बंद मिला तो दूसरे से पैदल ही घुस गए और धरना देने लगे. इससे पहले वे कह चुके थे कि अधिकारी उनकी नहीं सुनते और सरकार उनसे सलाह नहीं लेती. उनके दफ्तर ने एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा कि राज्यपाल ने अभिभाषण में कुछ बदलाव करने के लिए नोट भेजा था, जिसे राज्य सरकार ने नकार दिया.
एक अवसर पर उन्होंने कहा कि वे न तो रबर स्टांप हैं और न पोस्ट ऑफिस. अभिभाषण में वे राज्य सरकार की आलोचना कर चुके हैं और बीते तीन महीने से बाकायदा ममता बनर्जी के खिलाफ बयान दे रहे हैं. राजभवन इसकी प्रेस विज्ञप्तियां जारी करता है. संविधान के जानकार हैरत में हैं. वे कहते हैं कि इन हरकतों से राज्यपाल ने अपने को उपहास का केंद्र बना लिया है.
इसी राज्य में पांच साल भाजपा के ही केशरीनाथ त्रिपाठी जैसे विद्वान गवर्नर का कार्यकाल पूरा कर सेवानिवृत्त हुए हैं. एकाध अपवाद छोड़ दें तो ममता बनर्जी सरकार से उनके संबंधों में तनाव की खबरों ने कभी राजभवन की सीमा नहीं लांघी. फिर सवाल यह उठता है कि राजस्थान का यह कानूनविद जाट नेता बंगाल के राजभवन से किस नए किस्म की राजनीति कर रहा है?
अब केरल की बात. वहां भी विधि विशेषज्ञ राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान आगबबूला हैं. गुस्सा इस बात पर है कि सीएए के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने से पहले केरल सरकार ने उन्हें जानकारी क्यों नहीं दी. यह भी हिंदुस्तान में शायद पहली बार हुआ है, जब किसी राज्यपाल को ऐसी शिकायत हुई. वे कहते हैं कि हर प्रदेश को केंद्र का यह निर्णय मानना मजबूरी है क्योंकि यह केंद्रीय सूची का विषय है. केंद्र-राज्य संबंधों में एकतरफा धारा बहाने की बात गवर्नर जायज मानते हैं, लेकिन इस बात का उत्तर कौन देगा कि क्या केंद्र को इस निर्णय से पहले राज्य से मशविरा नहीं करना चाहिए था? संभव था कि कुछ और परिपक्व कानून निकल कर आता.
किसी प्रदेश पर कोई भी निर्णय इस तरह थोपा नहीं जा सकता. राज्यपाल को स्मरण होना चाहिए कि आजादी के बाद दशकों तक नेहरू सरकार की परंपरा चलती रही कि राज्यपाल नियुक्त करने से पहले केंद्र से संबंधित प्रदेश सरकार को नाम भेजे जाते रहे हैं. अनुमति मिलने के बाद ही राज्यपाल को उस प्रदेश में भेजा जाता था. वर्तमान सरकार ने क्या किसी राज्य सरकार से राज्यपाल की नियुक्ति से पहले राय लेने की औपचारिकता का पालन किया था?
संवैधानिक व्यवस्था कहती है कि राज्यपाल राज्य सरकार से भेजा गया अभिभाषण पढ़ने के लिए बाध्य है. किसी बिंदु पर वह असहमत हो तो सरकार का ध्यान खींच सकता है. वह उस पर पत्न भेजकर अनुरोध कर सकता है, लेकिन राज्य सरकार पाती है कि वह सही है तो फिर गवर्नर उसे बदलने के लिए बाध्य नहीं कर सकता. मगर केरल के राजप्रमुख तो साफ बोले कि मुख्यमंत्नी चाहते हैं कि मैं सीएए के खिलाफ जो लिखा गया है, वह पढूं, इसलिए उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए इसे पढ़ने जा रहा हूं. राज्यपाल महोदय शायद भूल गए कि वे किसी की चाहत पूरी करने या इच्छा का सम्मान करने के लिए इस पद की शोभा नहीं बढ़ा रहे हैं, बल्कि यह उनका विधिक कर्तव्य भी है कि वे वही पढ़ेंगे, जो सरकार ने उनके पास भेजा है, वे उससे बच नहीं सकते. एक बार पुनर्विचार के लिए राज्य सरकार के पास लौटा सकते हैं. इससे अधिक कुछ नहीं.
असल में राज्यपाल जब केंद्र के इशारे पर चलते हैं तो अक्सर बवाल होता है. अगर वे शपथ के जरिए राष्ट्रपति और संविधान से बंधे हैं तो निर्वाचित सरकार और मुख्यमंत्नी भी उसी संविधान का संकल्प लेते हैं. इस तरह एक ही संविधान को मानने वाली दो संस्थाओं में यह टकराव जम्हूरियत के लिए ठीक नहीं है.
बुनियादी बात है कि निर्वाचित सरकार ही कोई कानून बनाती है. राज्यपाल नहीं. यदि केंद्र कोई कानून बनाता है तो राष्ट्रपति भी पुनर्विचार के लिए लौटा सकता है मगर उस पर हस्ताक्षर करना इस शिखर पद की अंतिम नियति है. यह बारीक फर्क राज्यपालों को समझना चाहिए. चाहे वे कितने ही बड़े विधि विशेषज्ञ क्यों न हों. अनुच्छेद 163 बेशक राज्यपाल के स्वविवेक को तानाशाह होने की छूट देता है, पर तब गवर्नर को यह भी देखना होगा कि उसकी हरकत पर पूरे देश की नजर है.