Santosh Deshmukh Murder Case: अपराध और अपराधी में धर्म-जाति की राजनीति?, संतोष देशमुख और सोमनाथ सूर्यवंशी की मौत पर...
By Amitabh Shrivastava | Published: January 11, 2025 05:58 AM2025-01-11T05:58:45+5:302025-01-11T05:58:45+5:30
Santosh Deshmukh Murder Case: बीड़ जिले की केज तहसील के मस्साजोग गांव के सरपंच संतोष देशमुख की जब हत्या हुई तो शुरुआती दौर में उसे राजनीतिक दुश्मनी से जुड़ा माना गया.
Santosh Deshmukh Murder Case: महाराष्ट्र में सरपंच संतोष देशमुख और दलित कार्यकर्ता सोमनाथ सूर्यवंशी की मौत को लेकर राजनीति चरम पर है. विधानसभा चुनाव के बाद विपक्ष के पास यह एक ऐसा हथियार है, जो उसे चुनावी पराजय के अवसाद से निकलने का पूरा अवसर दे रहा है. जान गंवाने वाले दोनों ही व्यक्ति अलग-अलग जाति का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) की कमजोरी भी मानी जाती है. यहां तक कि मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस गृह विभाग संभालते हैं, इसलिए एक तीर से कई निशाने लग रहे हैं.
कुल जमा दोनों मामलों से मराठा आरक्षण आंदोलनकारी मनोज जरांगे को राज्य में नई सरकार बनने के बाद वापसी का अवसर मिला है. दूसरी ओर हाशिए पर जा रहे दलित नेताओं को मुख्यधारा में अपना नाम लाने की एक वजह मिली है. आश्चर्यजनक यह है कि किसी बड़े अपराध पर भी राजनीति इतनी हावी है कि वह कभी जातीय रंग में रंगी जा रही और कभी किसी राज्य विशेष के नाम पर गंभीर बनाई जा रही है.
इसमें कानून पर विश्वास और निष्पक्ष जांच के वातावरण तैयार करना तो दूर, अपराध की तह तक जाने की हर प्रक्रिया को शक और सवाल के घेरे में लेकर आशंकाओं को जन्म लेने का पर्याप्त अवसर मिल रहा है. लगभग एक माह पहले बीड़ जिले की केज तहसील के मस्साजोग गांव के सरपंच संतोष देशमुख की जब हत्या हुई तो शुरुआती दौर में उसे राजनीतिक दुश्मनी से जुड़ा माना गया.
किंतु धीरे-धीरे हत्याकांड को एक शक्ल मिलनी आरंभ हुई और फिर उसे राजनीतिक मुद्दा बना दिया गया. समूचे मामले को भाजपा विधायक सुरेश धस और मराठा आंदोलन के नेता जरांगे के अधिक आक्रामक ढंग से उठाने के बाद सभी दलों को अपने-अपने ढंग से आवाज उठाने का मौका मिल गया. बीड़ को भाजपा और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) का जिला माना जाता है.
वर्तमान सरकार के दो मंत्रियों से लेकर पिछली सरकारों के अनेक मंत्री इसी जिले से आते रहे हैं. अविभाजित राकांपा ने बीड़ जिले को अपना साबित कर वर्ष 2019 में कुल छह में से चार सीटें जीती थीं. इस बार लोकसभा चुनाव राकांपा (शरद पवार गुट) ने जीता, जबकि विधानसभा चुनाव में राकांपा (अजित पवार गुट) को तीन, राकांपा (शरद पवार गुट) को एक और भाजपा को दो सीटें मिलीं.
स्पष्ट है कि राकांपा(शरद पवार गुट) को विभाजन का काफी नुकसान उठाना पड़ा. इसी प्रकार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के माध्यम से राकांपा नेता धनंजय मुंडे और उनकी चचेरी बहन पंकजा मुंडे के एक मंच पर आने से जातिगत समीकरणों का भी असर बना. ऐसे में सरपंच देशमुख हत्याकांड जाति और राजनीति दोनों के सम्मिश्रण से परिस्थितियों को नई दिशा देने में सक्षम साबित हो रहा है.
यही कारण है कि पुणे हो या मुंबई या फिर लातूर हो या नांदेड़, हर तरफ विरोध-प्रदर्शनों के माध्यम से राजनीति को धार दी जा रही है. कुछ ऐसी ही वजह सोमनाथ सूर्यवंशी के मामले की हो चली है, जिसमें संविधान और दलित अत्याचार के नाम पर कांग्रेस नेता राहुल गांधी से लेकर प्रकाश आंबेडकर, अजित पवार सभी सहानुभूति के नाम पर अपना-अपना हेतु साध्य कर चुके हैं.
पुलिस हिरासत में मौत का मामला जांच के अधीन है और राज्य सरकार उस पर विधिवत कार्रवाई कर रही है, लेकिन लोकसभा में संविधान और आरक्षण के नाम पर मत मिलने के जादू की तरकीब को समझने वालों को ताजा स्थिति किसी बड़े लाभ से कम नहीं दिख रही है. बीड़ और परभणी के दो मामलों में एक तरफ जहां राज्य के मंत्री धनंजय मुंडे निशाने पर हैं.
वहीं दूसरी ओर दलितों पर अत्याचार के नाम पर भाजपानीत सरकार को कठघरे में खड़े करने का प्रयास है. मुंडे के मामले में बीड़ को बिहार से जोड़कर देखा जा रहा है. हालांकि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों को मिलाकर देखा जाए तो वर्ष 2022 में हत्या के मामलों की दर महाराष्ट्र में 1.8, बिहार में 2.3, वर्ष 2021 में महाराष्ट्र में 1.9 और बिहार में 2.4, वर्ष 2019 में महाराष्ट्र में 1.7, बिहार में 2.6, वर्ष 2018 में महाराष्ट्र में 1.8, बिहार में 2.5 थी.
इसी प्रकार राजनीतिक कारणों से वर्ष 2021 में बिहार में 8, महाराष्ट्र में 5, वर्ष 2019 में बिहार में 6, महाराष्ट्र में 3, वर्ष 2018 में बिहार में 9, महाराष्ट्र में 7 हत्याएं हुईं. इन कुछ आंकड़ों से बीड़ के एक मामले को लेकर महाराष्ट्र को बिहार से जोड़कर अधिक गंभीरता के साथ देखा नहीं जा सकता और राजनीतिक हत्याओं का हर राज्य का अपना रिकॉर्ड और इतिहास है.
ताजा मामला हत्या के आरोपियों के राजनीतिक संबंधों से जुड़ा है, जो वर्तमान दौर में सामान्य है और जिसकी जांच में सच्चाई सामने आएगी. किंतु उससे पहले राजनीति चमकाने के लिए जातिगत वैमनस्य का वातावरण तैयार करना राज्य के लिए एक दु:खद स्थिति है. संतोष देशमुख और सोमनाथ सूर्यवंशी दोनों के मामले में एक तरफ पुलिस और दूसरी तरफ कुछ आरोपी जांच के अधीन हैं.
परभणी के मामले में कुछ तथ्यात्मक प्रमाण उपलब्ध हैं, वहीं बीड़ के प्रकरण में भी अनेक प्रकार की जानकारी सामने आ रही है. इन दोनों के बहाने राजनीति के अपराधीकरण की चर्चा या उस पर रोक लगाने की कोई बात सामूहिक रूप से कहने के लिए कोई भी दल या नेता तैयार नहीं हैं. साफ है कि हर एक के पाले में कोई न कोई आपराधिक चरित्र का व्यक्ति अवश्य बैठा हुआ है.
इसलिए इस समस्या का हल यदि केवल धनंजय मुंडे के वाल्मीक कराड़ के संबंधों से निकल सकता है तो अवश्य निकाला जाना चाहिए. किंतु हर राजनीतिक दल का अपना आंतरिक बल है, जो आवश्यकता के अनुसार काम करता है. उसे किसी नेता का सहारा-संरक्षण अवश्य होता है.
इसे किसी राज्य, जाति या धर्म विशेष के नाम से भटकाया नहीं जा सकता है. आवश्यकता यही है कि अपराध और अपराधी को राजनीति से परे देख कानून के दायरे में बात की जाए. बजाय इसके कि अपराध की आड़ में जाति-धर्म की दरार से राजनीतिक भविष्य की अपनी राह चमकाई जाए.