प्रवेश परीक्षाओं को लेकर संस्थानों में समन्वय की जरूरत, डॉ. विजय पांढरीपांडे का ब्लॉग
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: August 5, 2021 01:36 PM2021-08-05T13:36:05+5:302021-08-05T13:37:06+5:30
आईआईटी के लिए, मेडिकल के लिए, आर्किटेक्चर के लिए अलग-अलग परीक्षाएं हैं. स्नातक पास होने के बाद स्नातकोत्तर प्रवेश के लिए, पीएचडी के लिए अलग-अलग परीक्षाएं होती हैं.
दसवीं का परीक्षा परिणाम आने के बाद सरकार ने आगे की पढ़ाई में दाखिले के लिए सीईटी का निर्णय लिया है. इस तरह की प्रवेश परीक्षा सभी चरणों में आयोजित की जाती है.
आईआईटी के लिए, मेडिकल के लिए, आर्किटेक्चर के लिए अलग-अलग परीक्षाएं हैं. स्नातक पास होने के बाद स्नातकोत्तर प्रवेश के लिए, पीएचडी के लिए अलग-अलग परीक्षाएं होती हैं. हर विश्वविद्यालय अपनी अलग परीक्षा लेता है, कोई भी दूसरे संस्थान पर भरोसा नहीं करता है. एक बोर्ड, एक राज्य दूसरे राज्य पर भरोसा नहीं करता है.
इससे विद्यार्थियों को जो परेशानी होती है, अभिभावकों को जो आर्थिक नुकसान होता है, उसके बारे में कोई आवाज नहीं उठाता. इन प्रवेश परीक्षाओं के पीछे बहुत बड़ा आर्थिक गणित होता है. खासकर जब विश्वविद्यालय या निजी शैक्षणिक संस्थान इस तरह की प्रवेश परीक्षा आयोजित करते हैं, तो वे करोड़ों का शुद्ध लाभ कमाते हैं.
जो प्राध्यापक, कर्मचारी इसके लिए कई महीनों तक (कभी-कभी तो साल भर) काम करते हैं, वे मानदेय के रूप में लाखों रुपए कमाते हैं! आयोजन समिति साल भर सुविधाओं का लाभ लेती है. इसके अलावा अगर पेपर ब्रेक, रिजल्ट में बदलाव जैसे मामले होते हैं तो इसमें शामिल लोग लाखों रुपए कमाते हैं. ऐसे मामलों में जांच के बाद भी सच्चाई बहुत कम सामने आ पाती है. आरोपी आमतौर पर नहीं मिलते.
आईआईटी प्रवेश परीक्षा का अपवाद छोड़ दें तो अन्य परीक्षाओं का दर्जा साधारण है. निजी संस्थान प्रवेश के लिए कई समझौते करते हैं. गोपनीयता के नाम पर कोई भी प्रश्न पूछने की मनाही होती है. सबकुछ ढंका-छुपा होता है! असफल होने वाले विद्यार्थियों की संख्या कम होती है, परिणाम घोषित होने से पहले सभी को अंक दान कर दिए जाते हैं!
इसलिए इनमें से अधिकांश परीक्षाओं की वैधता और गुणवत्ता संदिग्ध होती है. इसके लिए कुलपति और शिक्षा विशेषज्ञों को एक साथ बैठकर ठोस कदम उठाने की जरूरत है. छात्रों के हितों को ध्यान में रखते हुए दीर्घकालिक नीतिगत निर्णय लिए जाएं. सभी बोर्डो के पाठ्यक्रम में सुसूत्रता होनी चाहिए.
इसी तरह विश्वविद्यालय स्तर पर सभी विभागों, शाखाओं, स्नातक, स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में सामान्य तौर पर सुसूत्रता होनी चाहिए. राष्ट्रीय स्तर पर सभी विद्यार्थियों के लिए एक ही परीक्षा होनी चाहिए. इसका स्वरूप सिर्फ पिछले पाठ्यक्रम तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि इसमें छात्रों की कल्पनाशक्ति, लेखन, संवाद कौशल, तर्क, तार्किक सोच का परीक्षण करना चाहिए.
बहुविकल्पीय प्रश्न तो अब सभी परीक्षाओं में पूछे जाते हैं. ऐसी परीक्षा साल में एक ही बार नहीं बल्कि तीन या चार बार लें. इससे छात्रों का अभ्यास होगा. इस साल नहीं तो अगले साल प्रवेश मिलेगा. प्रवेश सिर्फ जुलाई में ही देने की नीति बदलनी चाहिए और जैसा कि विदेशों में है, किसी भी सेमेस्टर में प्रवेश की अनुमति दी जानी चाहिए. इससे एक साथ प्रवेश की मौजूदा भीड़ से बचा जा सकता है.
वैसे अनेक स्थानों पर क्रेडिट सिस्टम शुरू हो चुका है. इसमें एक फायदा यह है कि यह सब नई शिक्षा नीति के अनुरूप है. छात्रों के समग्र मूल्यांकन के तरीके पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है. तीन घंटे की परीक्षा, सौ अंक, वही प्रश्न, निर्धारित समय में वही उत्तर, खुले हाथों अंक बांटने का पैमाना अब बदला जाना चाहिए. एक प्रश्न के अनेक उत्तर हो सकते हैं.
एक प्रश्न के अलग-अलग हिस्सों को देखें तो विभिन्न विकल्प संभव हैं. ऐसी परीक्षा होनी चाहिए जो दिमाग को सक्रिय करे, कल्पनाशक्ति को बढ़ावा दे. मूल्यांकन पारदर्शी होना चाहिए जिसमें संदेह के लिए कोई जगह न हो. सभी प्रक्रियाएं परस्पर भरोसेमंद होनी चाहिए. इस पूर्ण परिवर्तन के लिए जो भी करें, सोच-समझकर करें, जल्दबाजी में नहीं, तात्कालिक मरहमपट्टी न करें.
तभी विद्यार्थियों को दीर्घकाल में लाभ होगा और बदलाव की प्रक्रिया से बार-बार नहीं गुजरना पड़ेगा. समयानुसार उसमें थोड़ा-बहुत फेरबदल हो सकता है. एक और बात पर ध्यान देना जरूरी है. हमें समझना होगा कि कोरोना, डेल्टा वायरस, सूखा, तूफान, बाढ़, प्राकृतिक आपदाएं सभी अब हमारे जीवन का हिस्सा हैं.
इससे भागने का कोई उपाय नहीं है. इसलिए इसको निमित्त बनाकर आज का निर्णय कल पर छोड़ना ठीक नहीं है. अब इसे आपातकाल कहना बंद करना ही बेहतर है! इन सबके बीच ही आगे बढ़ना होगा. एक बार आप मन में यह ठान लेंगे तभी आगे का मार्ग सुलभ होगा.