रंगनाथ सिंह का ब्लॉग: मैंने अर्थव्यवस्था की चिन्ता करना बन्द कर दिया है
By रंगनाथ सिंह | Published: August 5, 2022 11:55 AM2022-08-05T11:55:11+5:302022-08-05T13:07:46+5:30
हर समझदार व्यक्ति अपनी निजी आर्थिक स्थिति की वाजिब चिन्ता करता है लेकिन क्या यह हर लेखक के सम्भव है कि वो अपने साथ-साथ देश-दुनिया की अर्थव्यवस्था की लिखित चिन्ता करता रहे? पढ़ें रंगनाथ सिंह का नजरिया...
आजकल हिन्दी बुद्धिजीवियों के बीच अर्थव्यवस्था की चिन्ता बहुत ज्यादा हो रही है। हर व्यक्ति को अपनी पसन्द की चिन्ता करने का अधिकार है लेकिन आजकल एक नई चिन्ता तेजी से पैर पसार रही है, वह है दूसरों की चिन्ता की चिन्ता। कई लोग इस चिन्ता में हलकान हैं कि दूसरे लोग उनकी चिन्ता में चिन्ता मिलाकर अर्थव्यवस्था की चिन्ता क्यों नहीं कर रहे!
कुछ दिन पहले एक पोस्ट जिसका अर्थव्यवस्था से दूर-दूर तक का नाता नहीं था एक सज्जन ने मुझसे पूछा कि आप अर्थव्यवस्था की चिन्ता क्यों नहीं कर रहे! मैंने उनको जो जवाब दिया उसे कई दर्जन लोगों ने लाइक कर दिया तो उन्होंने तंग आकर वह कमेंट डिलीट कर दिया। वैसे तो मैं अर्थव्यवस्था पर इसलिए लिखने बचता हूँ क्योंकि मुझे उसकी हाईस्कूल स्तर से ज्यादा की समझ नहीं है। अखबारी जरूरत भर मोटे आर्थिक मुद्दों पर समझ बना लेना ही हिमालय चढ़ने जैसा रहा है। इसलिए आर्थिक मामलों पर रायशुमारी से यथासम्भव बचता हूँ। यह तो हुई व्यावहारिक वजह लेकिन आर्थिक मामलों पर ज्यादा दिमाग न खपाने की कुछ वैचारिक वजह भी है जो मैंने उन सज्जन को बतायी थी और वही थोड़े विस्तार से नीचे दे रहा हूँ,
अब मैं सोचता हूँ कि कृष्ण, ईसा, मोहम्मद और मार्क्स जैसे महापुरुष जब दुनिया से आर्थिक गैरबराबरी नहीं दूर कर सके तो मैं किस खेत की मूली हूँ? गलतसंगत के कारण कोरोना पूर्व काल में आर्थिक गैरबराबरी की थोड़ी चिन्ता करता भी था लेकिन अब वह भी बन्द कर दी है। मैं कोई चिन्ता का धन्धा भी नहीं करता कि गरीबी-भुखमरी की चिन्ता करके गाड़ी-बंगला-फॉरेनट्रिप की व्यवस्था कर लूँगा! मुझसे तो अपनी निजी अर्थव्यवस्था की ढंग से चिन्ता नहीं हो पाती तो बाकी देश-दुनिया की अर्थव्यवस्था की चिन्ता करके भी उनका हाल अपने जैसा ही कर दूँगा! और क्या?
मीडिया में रहते हुए हर तरह की खबर पर नजर रखना मजबूरी है लेकिन अब मेरे पास इतनी उम्र नहीं बची है कि ज्यादा चिन्ताएँ पाली जा सकें। जिनको पाल रखा है उनको ही पालपोसकर बालिग कर लूँ, यही बहुत होगा। और वैसे भी अपने देश में लोग अपने कामकाज के विषयों के बजाय दूसरे के विषयों में ज्यादा विशेषज्ञ होते हैं। मैं नहीं चाहता कि मेरा नाम भी ऐसे पर-विषय-विशेषज्ञ में शुमार हो। बाकी कहने को यह भी कहा जा सकता है कि सारी चिन्ताएँ मैं करूँगा तो आप क्या करेंगे!
आज इतना ही। शेष, फिर कभी।