राज्यसभा चुनाव को लेकर विजय दर्डा का ब्लॉग: चापलूसों की बारात...झेल सको तो झेलो
By विजय दर्डा | Published: June 13, 2022 05:15 PM2022-06-13T17:15:03+5:302022-06-13T17:15:03+5:30
निश्चय ही राज्यसभा के गठन के पीछे लक्ष्य यह था कि राज्यों का इसमें समुचित प्रतिनिधित्व हो। जो लोग सीधे चुनाव लड़कर लोकसभा में न पहुंच पाएं, लेकिन जिनकी जरूरत हो उन्हें राज्यसभा में पहुंचाया जाए।
राज्यसभा के चुनाव संपन्न हो गए। कुछ तो पहले ही निर्विरोध निर्वाचित होकर आ गए थे। राजनीतिक दांवपेंच के कारण चार राज्यों की 16 सीटों के लिए मतदान की नौबत आई। राजनीति में दांवपेंच कोई नई बात नहीं है। हर पार्टी सामने वाले को चारों खाने चित करने के लिए नए-नए फार्मूले आजमाती है।
इस बार भी वही हुआ। तो जो जीते उन सभी को हृदय से बधाई और साथ में यह उम्मीद भी कि संसद के उच्च सदन राज्यसभा की गरिमा को चार चांद लगाने में ये सभी लोग महती भूमिका निभाएंगे। मैं 18 वर्षों तक उच्च सदन का सदस्य रहा हूं इसलिए जानता हूं कि राज्यसभा वैचारिक तौर पर हमेशा ही काफी संपन्न रही है।
यहां मैं हार-जीत के कारणों और उसके पीछे की राजनीति की चर्चा नहीं करूंगा, बल्कि मैं इस बात की चर्चा करना चाहता हूं कि किसी राज्य से उस राज्य के बाहर के लोगों को राज्यसभा में क्यों भेजा जाए? निश्चय ही राज्यसभा के गठन के पीछे लक्ष्य यह था कि राज्यों का इसमें समुचित प्रतिनिधित्व हो। जो लोग सीधे चुनाव लड़कर लोकसभा में न पहुंच पाएं, लेकिन जिनकी जरूरत हो उन्हें राज्यसभा में पहुंचाया जाए।
इसके साथ ही 12 विशेषज्ञों को मनोनीत करने का अधिकार राष्ट्रपति को दिया गया ताकि सरकार इनकी विशेषज्ञता का उपयोग कर सके, लेकिन देखने में यह आया है कि राज्यसभा के गठन की वास्तविक अवधारणा के साथ राजनीतिक दल खिलवाड़ कर रहे हैं। खासतौर पर इस बार कांग्रेस ने जो किया वह अत्यंत चिंताजनक है।
निश्चित ही हर पार्टी में कुछ ऐसे नेता होते हैं जिनकी केंद्रीय स्तर पर आवश्यकता होती है और उनको राज्यसभा में लाना जरूरी होता है। जैसे कांग्रेस डॉ. मनमोहन सिंह को असम से निर्वाचित करवा कर लाई थी। ऐसे और भी उदाहरण हैं। जब व्यक्ति योग्यता के शिखर पर होता है तो कोई सवाल नहीं उठता है, लेकिन जब केंद्रीय नेतृत्व चापलूसों को एडजस्ट करने के लिए राज्य के नेताओं की राजनीतिक बलि देने लगे तो इसे आप क्या कहेंगे?
महाराष्ट्र के नेता मुकुल वासनिक को महाराष्ट्र से टिकट न देकर राजस्थान से टिकट दिया गया। क्या उन्हें महाराष्ट्र से टिकट नहीं दिया जाना चाहिए था? उत्तर प्रदेश के इमरान प्रतापगढ़ी को महाराष्ट्र से क्यों टिकट मिला? दरअसल, जब इमरान प्रतापगढ़ी को राजस्थान से टिकट देने की बात उठी तो अशोक गहलोत ने साफ कह दिया कि हमें यहां मुशायरा और कव्वाली नहीं करानी है, तो क्या केंद्रीय नेतृत्व को प्रतापगढ़ी के लिए महाराष्ट्र ही मिला?
यहां मैं स्पष्ट कर दूं कि किसी के प्रति भी मेरा कोई द्वेष नहीं है, मैं मेरिट की बात कर रहा हूं। टिकट देते वक्त क्या यह भुला दिया गया कि लोकसभा चुनाव में उनकी जमानत जब्त हो गई थी! पार्टी के किसी बड़े और शक्तिशाली नेता का वरदहस्त प्राप्त हो जाना योग्यता का पैमाना कभी नहीं हो सकता है।
मैं रणदीप सुरजेवाला को राज्यसभा में पहुंचाने की जरूरत को समझ सकता हूं लेकिन उत्तर प्रदेश के प्रमोद तिवारी को राजस्थान से या राजीव शुक्ला को छत्तीसगढ़ से क्यों राज्यसभा में भेजा गया? यहां मैं कहना चाहूंगा कि राजीव शुक्ला मेरे मित्र हैं लेकिन मैं बगैर भेदभाव के विश्लेषण कर रहा हूं। सवाल यह है कि जिन नेताओं ने मेहनत करके छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को सत्ता में बिठाया, क्या उनका हक नहीं बनता था?
स्पष्ट तौर पर किसी ने भले ही विरोध नहीं किया हो लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि सभी राज्यों में कांग्रेस के विधायक इस रवैये से बहुत नाराज थे इसीलिए तो विधायकों को कई जगह दुल्हन की तरह छिपा कर रखा गया! अब आप देखिए कि कांग्रेस ने अपने एक बड़े नेता अजय माकन की बलि चढ़ा दी।
यदि उन्हें महाराष्ट्र से मौका देते तो उनकी जीत तय थी। वैसे यह कोई पहला अवसर नहीं है। जब मैंने निर्दलीय रूप से राज्यसभा का चुनाव लड़ा था तब कांग्रेस आलाकमान के खासमखास और पूर्व राज्यपाल आर.डी. प्रधान को शिकस्त दी थी। मुझे समझ में नहीं आता कि राज्यसभा में कांग्रेस की मुखर आवाज बने रहने वाले गुलाम नबी आजाद और आनंद शर्मा को टिकट क्यों नहीं दिया गया? क्या पार्टी के भीतर आवाज उठाना गुनाह है? कांग्रेस को समझना चाहिए कि इमरान प्रतापगढ़ी कभी भी आजाद साहब का विकल्प नहीं बन सकते हैं।
एक कहावत है कि जब जहाज डूबने लगता है तो जिसके हाथ जो लगता है, वह लेकर भाग जाता है। कांग्रेस में अभी यही चल रहा है। पार्टी तेजी से सिकुड़ रही है। राज्यसभा के लिए कुछ सीटें सामने आईं तो लोगों ने सोचा 6 साल के लिए ले लो। इसके बाद क्या होगा पता नहीं है। हम बचेंगे भी कि नहीं बचेंगे..! और यह केवल आज की बात नहीं है। पिछले दशक का भी उदाहरण देखेंगे तो साफ लगता है कि कांग्रेस में चापलूसों का राज चल रहा है।
विश्लेषण करके देखिए कि कांग्रेस ने किस तरह से टिकटों का बंटवारा किया और भाजपा ने क्या शैली अपनाई। आपको साफ दिखेगा कि कांग्रेस चापलूसों की गिरफ्त में है, तो भाजपा राजनीतिक समीकरण पर ज्यादा ध्यान देती है। भाजपा ने इसी कारण तो तीन अतिरिक्त सीटें झपट लीं! आप शरद पवार साहब का तरीका देखिए कि वे कितना सोच-समझकर टिकट देते हैं।
मैं अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और लालूप्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल की बात नहीं करता, क्योंकि उनका व्यवहार प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह रहता है। उन्हें तो हमेशा ही एक वकील की जरूरत रहती है। उन्हें कभी राम जेठमलानी चाहिए तो कभी कोई और...जो मुकदमे लड़ता रहे।
वैसे इन पार्टियों को भी यह बात समझ में आ गई कि भाई-भतीजावाद नहीं चल सकता। पहले उनके परिवार से ढेर सारे लोग लोकसभा-राज्यसभा में जाते थे, लेकिन अब वे भी परिवार को छोड़कर योग्य लोगों को टिकट देने लगे हैं। दुर्भाग्य से कांग्रेस को यह बात समझ में नहीं आ रही है। कांग्रेस को यह बात भी समझ में नहीं आ रही है कि बिना जनाधार वाले नेताओं और चापलूसों को रेवड़ी बांटना पूरी पार्टी को धोखा देने जैसा है..! भगवान कांग्रेस की रक्षा करें..!