राजेश बादल का ब्लॉग: लोकतांत्रिक अनुष्ठान के खिसकते आधार
By राजेश बादल | Published: February 24, 2021 11:42 AM2021-02-24T11:42:11+5:302021-02-24T11:45:00+5:30
पुडुचेरी विधानसभा के आगामी चुनाव में यह समीकरण एकदम साफ है कि चुनाव दर चुनाव कांग्रेस के लिए सत्ता में वापस लौटना बेहद कठिन होता जा रहा है. चौथी वजह यह भी हो सकती है कि विपक्षी पार्टी ने इतना अधिक आर्थिक प्रलोभन दिया हो कि उसे जीतने अथवा हारने से कोई फर्क ही न पड़े.
पांच प्रदेशों में अगली विधानसभा के लिए चुनाव की तारीखों का ऐलान अब दूर नहीं है. वैसे भी पन्ने पलटकर पिछले निर्वाचन का कार्यक्रम देख लिया जाए तो उसमें कोई अधिक अंतर नहीं रहने वाला है.
अलबत्ता औसत मतदाता के मन में साल दर साल इस लोकतांत्रिक अनुष्ठान के बारे में जड़ता और उदासीनता विकराल होती जा रही है. किसी किस्म का रचनात्मक उत्साह या गणतांत्रिक कर्तव्य निभाने की ईमानदार नीयत कहीं हाशिए पर चली गई है.
राज्यों में सत्ताशीन सियासी पार्टियों को छोड़ दें तो अन्य राजनीतिक दलों की आंतरिक प्रतिबद्धता में बिखराव साफ-साफ महसूस किया जा सकता है. वे एक-दूसरे से मछलियों की तरह व्यवहार करते नजर आते हैं. बड़ी मछली छोटी को निगल लेना चाहती है. इससे धड़कनें कमजोर पड़ी हैं.
तंत्र एक मशीनी पुज्रे की तरह व्यवहार कर रहा है, जिसमें लोक की भूमिका सिकुड़ती जा रही है. पुडुचेरी का राजनीतिक घटनाक्रम उबासियां लेते हुए कुछ ऐसा ही संदेश देता दिखाई दे रहा है.
सवाल पूछा जा सकता है कि अगले चुनाव के मुहाने पर खड़े इस छोटे से खूबसूरत राज्य की सरकार अचानक गिरने से भारतीय लोकतंत्र किस तरह मजबूत होता है? उन विधायकों के चुनाव से ठीक पहले अपने दल की सरकार और पार्टी छोड़ जाने से किसका लाभ है? इसके पीछे कुछ बातें स्पष्ट हैं.
एक तो अपनी पार्टी के बैनर तले अगली बार चुनाव मैदान में उतरने को मिलेगा - यह गारंटी नहीं है और दूसरा यह कि किसी अन्य दल का टिकट इतना आकर्षित कर रहा है कि वह जीत दिलाने के लिए पर्याप्त हो. तीसरा कारण यह भी हो सकता है कि पांच साल के कामकाज के आधार पर नकारात्मक मतों से बचने के लिए खोजा गया उपाय हो.
पुडुचेरी विधानसभा के आगामी चुनाव में यह समीकरण एकदम साफ है कि चुनाव दर चुनाव कांग्रेस के लिए सत्ता में वापस लौटना बेहद कठिन होता जा रहा है. चौथी वजह यह भी हो सकती है कि विपक्षी पार्टी ने इतना अधिक आर्थिक प्रलोभन दिया हो कि उसे जीतने अथवा हारने से कोई फर्क ही न पड़े.
इस राजनीतिक बुराई का लाभ उस दल को मिलता है, जो विधायकों को अपने पाले में ले जाता है. सत्ताधारी पार्टी को कमजोर करने के लिए इन दिनों यह सबसे कारगर औजार सिद्ध हुआ है. हाल के वर्षो में विधायकों की इस तरह खरीद फरोख्त के आरोप पक्ष-प्रतिपक्ष एक दूसरे पर लगाते रहे हैं.
उनमें सच्चाई भी है. मुद्दे की बात यह है कि इससे विपक्षी पार्टी और उस विधायक को फायदा तो हो जाता है लेकिन संवैधानिक ढांचे और जम्हूरियत को भारी नुकसान होता है. उस क्षति की कोई भरपाई संभव नहीं होती.
एक साल में कांग्रेस को यह दूसरा झटका लगा है. पिछले साल मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार गिराई गई. इसके बाद राजस्थान में भी उसी तरीके को आजमाया गया. उस समय मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की चुस्ती और आक्रमक रणनीति के चलते सरकार तो बच गई, पर उनका खतरा अभी टला नहीं है.
राजस्थान की सीमा से सटे मध्यप्रदेश के सिंधिया परिवार के प्रभाव क्षेत्र वाले इलाके के अनेक विधायक एक दूसरे के संपर्क में हैं. सियासी शिकस्त से बौखलाई भाजपा जब तक राजस्थान में सरकार नहीं बना लेती, तब तक चैन से बैठने वाली नहीं है. इस बीच उसने पुडुचेरी की नारायणसामी सरकार का शिकार कर लिया.
इससे पहले बंगाल, असम, कर्नाटक, गुजरात, हरियाणा, बिहार, गोवा और अरुणाचल प्रदेश जैसे अनेक राज्यों में भारतीय राजनीति इन लोकतांत्रिक हादसों का नमूना पेश करती रही है. आयाराम - गयाराम शैली एक दौर में भारत के लोकतंत्र को इतना नुकसान पहुंचाने लगी थी कि राजीव गांधी की हुकूमत को सख्त कानून बनाना पड़ा था.
अब इस कानून की भावना का मखौल उड़ाया जा रहा है. पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों इसके लिए जिम्मेदार हैं. अपने सियासी मंसूबों की पूर्ति के लिए वे उसी डाल को काट रहे हैं, जिस पर बैठे हैं.
भाजपा को इस आयाराम से फायदा हो रहा है, इसलिए उसके शिखर पुरुष इस जनतांत्रिक क्षरण के बारे में उदासीन या असंवेदनशील हो सकते हैं. लेकिन दुखद यह है कि जिस कांग्रेस पार्टी को इस गयाराम से इतने आघात लग रहे हैं, वह भी अपना घर ठीक नहीं करना चाहती.
पार्टी की विचारधारा दुर्बल होती जा रही है, कार्यकर्ता और नेता साथ छोड़ते जा रहे हैं, उसकी चुनी हुई सरकारें एक के बाद एक धराशायी होती जा रही हैं और स्वतंत्रता संग्राम की विरासत लेकर चल रहे इस प्राचीन दल के माथे पर कोई शिकन नहीं दिखाई देती. दशकों से उसका सदस्यता अभियान निष्क्रिय है.
जिलों में कार्यकर्ता सम्मेलन न के बराबर हो रहे हैं. विचारधारा को स्थानीय स्तर तक मजबूती से पहुंचाने का काम सुसुप्तावस्था में है और सामूहिक नेतृत्व की भावना विलुप्त हो गई है. यह मतदाताओं और लोकतंत्र के साथ एक तरह से अन्याय है. वे खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं.
जिस पार्टी ने पचास बरस हिंदुस्तान में सरकार चलाई हो, उसके चरित्न और स्वभाव में यह परिवर्तन चौंकाने वाला है. कोई भी जिम्मेदार लोकतंत्र तब तक ताकतवर नहीं होता, जब तक विपक्ष निर्बल रहेगा. पक्ष यानी सरकार चलाने वाला दल तो यही चाहेगा कि उसके सामने की बेंचें हमेशा खाली रहें. लेकिन कोई विपक्ष भी अगर ऐसा ही चाहने लगे तो क्या किया जा सकता है.
कांग्रेस पर यह जिम्मेदारी आ पड़ी है कि वह सियासी संतुलन को बनाए रखने के लिए अपना घर ठीक करे. अगर अमेरिकी लोकतंत्र पर सारी दुनिया की नजर रहती है तो भारत को भी उतनी ही गंभीरता से लिया जाता है.