राजेश बादल का ब्लॉग: व्यवसाय के सदियों पुराने ताने-बाने को बचाना होगा

By राजेश बादल | Published: May 12, 2020 07:57 AM2020-05-12T07:57:39+5:302020-05-12T07:57:39+5:30

कोरोना संकट के बीच ऐसी खबरें आ रही हैं कि कई कंपनियां चीन से दूर हो सकती हैं. भारत इन कंपनियों को आकर्षित भी करना चाहता है लेकिन कुछ सावधानियां भी जरूरी हैं. पढ़ें राजेश बादल का ब्लॉग

Rajesh Badal blog: The age old fabric of business has to be saved amid coronavirus | राजेश बादल का ब्लॉग: व्यवसाय के सदियों पुराने ताने-बाने को बचाना होगा

बाहर से आने वाली कंपनियों से सावधान रहने की भी आवश्यकता (फाइल फोटो)

परदेसी कंपनियों को ललचाने की तैयारी हो रही है. हमारी अर्थव्यवस्था ठीक करने के लिए उन्हें आमंत्रण दिया जा रहा है. चीन से बोरिया बिस्तर समेट कर भारत आइए. क्या विडंबना है. भारत से अपने ही उद्योग-धंधे संभल नहीं रहे, हम विदेशी कारोबारियों की बैसाखियों पर दोबारा खड़े होना चाहते हैं. इतिहास के पन्नों को पलिटए. हकीकत उजागर हो जाती है. 

हम भूल गए हैं कि अतीत में विदेशी कारोबारियों और कंपनियों ने कितना नुकसान किया है. उसकी अनदेखी बहुत बड़ा जोखिम मोल लेना है. भारतीय अर्थव्यवस्था की नींव यहां का अपना मूल सामाजिक-आर्थिक ढांचा रहा है न कि बाहरी व्यापारी. जिस दिन हिंदुस्तान की कारोबारी रीढ़ या बुनियाद परदेस से संचालित होगी, भारत उतना ही कमजोर और खोखला होगा-यह बात जानकारों को समझ लेना चाहिए.

जब-जब भी सार्वभौम मंदी आई और भारत की यह परदेसी नींव हिली तो हम कहीं के न रहेंगे. याद कीजिए. करीब चौदह-पंद्रह साल पहले अंतर्राष्ट्रीय मंदी की भयावह मार से बड़े-बड़े विकसित मुल्क धाड़े मार कर रो रहे थे. बैंक डूब रहे थे. लोग बेरोजगार हुए थे. आत्महत्याएं कर रहे थे तो उन दिनों हिंदुस्तान सामान्य था. 

इसका कारण देश की देह का सदियों पुराना तानाबाना था. यह ताना-बाना आज शिथिल पड़ा है. बिखरा नहीं है. इसलिए पहली जरूरत इसे मजबूत करने की है. अन्यथा परदेसी कंपनियां अपनी आर्थिक तानाशाही के घुड़सवार लेकर आएंगी और ईस्ट इंडिया की तरह शोषण करेंगी. इससे सावधान रहने की आवश्यकता है.

दूसरे राष्ट्रों से छन-छन कर आ रहीं खबरें बता रही हैं कि कोई एक हजार कंपनियां चीन से डंगा डोरिया लेकर भारत आना चाहती हैं. चीन से हमारे संबंधों को देखते हुए कुछ मासूम लोग इससे प्रसन्न हो सकते हैं. भारत में एक बड़ा वर्ग ऐसा है, जो चीन और पाकिस्तान की बर्बादी पर दिल में ठंडक महसूस करता है. लेकिन मामला इतना सीधा नहीं है कि कोई कंपनी चीन से आकर यहां काम शुरू कर देगी, जिससे चीन कंगाल हो जाएगा और हम अमीर हो जाएंगे. 

इसके लिए हमें अर्थशास्त्र के अनेक बारीक पेंचों और पहलुओं पर गंभीरता से ध्यान देना होगा. क्या हिंदुस्तान उन कंपनियों को वे सारी बुनियादी सुविधाएं मुहैया करा सकेगा, जो चीन जैसा विराट मुल्क उनको देने में सक्षम है. केवल दो उदहारण पर्याप्त होंगे. चीन का कुल क्षेत्रफल 97,06961 वर्ग किलोमीटर है. याने भारत के 32,87590 वर्ग किलोमीटर के तीन गुना से भी अधिक. इसमें समंदर-क्षेत्र भी शामिल है. 

आज चीन की आबादी 143,9323776 है. भारत की जनसंख्या  138,0004385 तक जा पहुंची है. अर्थात चीन के पास भारत से केवल छह करोड़ नागरिक अधिक हैं लेकिन चीन के पास भारत की तुलना में तीन गुना इलाका अपने नागरिकों के लिए है. वह चाहे तो एक-एक कंपनी को एक मंझोले शहर के बराबर जमीन आसानी से बांट सकता है. लेकिन क्या हम ऐसा कर सकते हैं ? भारत में तो धनिया मिर्चा उगाने और उसका पाउडर निर्यात करने की फैक्टरी लगाने के लिए एक भारतीय को पांच एकड़ जमीन ही चाहिए.  लेकिन इसके लिए कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं - सबको पता है. हजार कंपनियों को अपने देश के लोगों का पेट काटकर भूमि देने में हम कितने सक्षम हैं. हिसाब लगा लीजिए.  

दूसरी बात हर विदेशी कंपनी को जमीन के बाद मैन पावर की जरूरत होती है. मान लें कि उसे कुल सौ कर्मचारी चाहिए तो वह सभी को विदेश से नहीं ला सकती. महंगा पड़ेगा. जाहिर है वह स्थानीय लोगों को रोजगार देने की बात करेगी. इस मामले में भी भारत चीन की बराबरी नहीं कर सकता. चीनी माल सस्ता क्यों होता है ? क्योंकि वहां मानव श्रम सस्ता है. सबको रोजगार बांटने के लिए मजदूरी भी बंट जाती है. लेकिन क्या भारत सरकार ऐसा कर सकेगी ? 

हाल ही में यह भी सुनने में आया  है कि विदेशी कंपनियों में भारत के कायदे-कानून लागू नहीं होंगे. यदि ऐसा है तो हर कंपनी ईस्ट इंडिया कंपनी नहीं बन जाएगी, इसकी क्या गारंटी है. हिंदुस्तान के औद्योगिक और श्रमिक कानून क्या पोटली में बंद करके रख दिए जाएंगे. क्या उनमें संशोधन बिना संसद में बहस के हो सकेगा? यदि संसद में चर्चा हुई तो उनका पास होना कितना संभव है. आज भारत में दिल्ली, गुरुगांव, पुणे, हैदराबाद, चेन्नई, मुंबई और बेंगलुरु जैसे अनेक महानगरों में स्थापित बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने कर्मचारियों को भारत के श्रमिक और औद्योगिक कानूनों के हिसाब से ही सुविधाएं नहीं दे रही हैं. 

उनके खिलाफ कोई कार्रवाई आज तक नहीं की गई तो भारत के कर्मचारी क्या एक बार फिर गिरमिटिया मजदूर नहीं बन जाएंगे? इन प्रश्नों का उत्तर आसान नहीं है. एक जिम्मेदार लोकतंत्र इन पर आंख मूंदे नहीं रह सकता. तीसरी बात इन कंपनियों को बिजली, पानी और बुनियादी इंफ्रास्ट्रक्चर किस तरह उपलब्ध होगा. भारत का हर गांव अभी प्यासा है. गांवों और कस्बों में चौबीस घंटे बिजली तो अभी भी सपने में ही मिल रही है. अपना घर लुटाकर परदेसी का महल खड़ा करना कोई बुद्धिमानी नहीं है. 

बेहतर तो यह होगा कि अब नए हिंदुस्तान की तस्वीर गढ़ी जाए. हर गांव और छोटे-मंझोले नगरों में एकदम स्थानीय रोजगार के स्रोत खोजे जाएं जो इलाके की मिट्टी, आबोहवा और कृषि-उत्पादों से निकलते हों. कोरोना संकट से हमें पता चल रहा है कि हम तो अपनी जरूरत के मुताबिक मास्क ही नहीं बना पाते. बहुत से देश नहीं  बना पाते. हर साल दीवाली पर चीन की बिजली-लड़ करोड़ों का कारोबार कर जाती है. चीन की तरह छोटी-छोटी चीजों के सौ फीसदी उत्पादन और निर्यात से भारत को किसने  रोका है ?

Web Title: Rajesh Badal blog: The age old fabric of business has to be saved amid coronavirus

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