राजेश बादल का ब्लॉग: कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक से मिले किन-किन सवालों के जवाब?

By राजेश बादल | Published: October 20, 2021 10:36 AM2021-10-20T10:36:21+5:302021-10-20T10:36:21+5:30

पंजाब में कांग्रेस को अपने प्रदेश अध्यक्ष के अस्थिर चित्त का वक्त रहते इलाज खोजना जरूरी है. कैप्टन अमरिंदर लगातार तीसरी बार कांग्रेस को विजय दिलाते नहीं दिख रहे थे.

Rajesh Badal blog: Opposition will get strong with Congress rise | राजेश बादल का ब्लॉग: कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक से मिले किन-किन सवालों के जवाब?

राजेश बादल का ब्लॉग: कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक से मिले किन-किन सवालों के जवाब?

पार्टी कार्यसमिति की बैठक के बाद कांग्रेस के आक्रामक तेवर सकारात्मक माने जा सकते हैं. लंबे समय से चली आ रही ऊहापोह की स्थिति पर विराम लगा है. इस बैठक के बहाने पार्टी आलाकमान ने एक तीर से अनेक निशाने साधे हैं. यकीनन इसका लाभ मुल्क की इस बुजुर्ग पार्टी को आने वाले विधानसभा चुनाव में मिल सकता है. 
यदि ऐसा होता है तो हिंदुस्तान में लोकतांत्रिक जड़ें और मजबूत होंगी. 

पक्ष या शासन में बैठा दल बेशक ताकतवर और स्पष्ट बहुमत वाला होना चाहिए लेकिन यदि उसके मुकाबले में प्रतिपक्ष लगातार निर्बल  होता जाए तो यह अच्छी बात नहीं मानी जा सकती. इस देश ने वह सियासी दौर भी देखा है, जब विपक्ष एकदम कमजोर होता था तो सत्तारूढ़ दल ही विपक्ष के नेताओं के संसद में पहुंचने की राह आसान बनाता था. 

अब चूंकि कांग्रेस ने दशकों तक सरकारें चलाई हैं इसलिए उसका दायित्व अन्य छोटे दलों से बड़ा है. कांग्रेस की सेहत सुधरने का फायदा क्षेत्रीय पार्टियों को भी मिलेगा, जो इन दिनों भाजपा के सामने दिनोंदिन बौनी और कमजोर होती जा रही हैं.

कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक से नेतृत्व पर उठ रहे अनेक सवालों का उत्तर मिल गया है. दूसरी पंक्ति के कुछ नेता यह प्रश्न काफी दिनों से उठा रहे थे कि पार्टी को पूर्णकालिक पेशेवर नेतृत्व नहीं मिल रहा है. पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के इस्तीफा देने के बाद वे सोनिया गांधी को इस आधार पर पूर्ण अध्यक्ष नहीं स्वीकार कर पा रहे थे कि वे बाकायदा निर्वाचित नहीं हुई हैं और अंतरिम अध्यक्ष के रूप में तदर्थ व्यवस्था के तहत काम कर रही हैं. 

वैसे तो इस समूह की यह सोच मासूमियत से भरी ही थी. पार्टी की परंपरा देखें तो गांधी-नेहरू परिवार का कोई प्रतिनिधि कामचलाऊ ढंग से काम नहीं करता. अंतरिम व्यवस्था भी अध्यक्ष को संपूर्ण अधिकार ही देती है. ऐसे में असहमत समूह का यह तर्क गले नहीं उतर रहा था. यदि इस समूह का कोई सदस्य खुद अध्यक्ष बनकर पार्टी संचालन की जिम्मेदारी लेना चाहता हो तो अलग बात है. 

कार्यसमिति की बैठक से यह भी साफ हो गया है कि ऐसी महत्वाकांक्षा वाले नेता अगले एक साल में संगठन चुनाव में उतरने के लिए अपनी जमीन तैयार कर सकते हैं. पहले भी अध्यक्ष पद पर चुनाव के उदाहरण हैं. इस दृष्टि से नेतृत्व के बारे में उपजे भ्रम के बादल काफी हद तक साफ हो गए हैं. इसके बाद भी अगले एक बरस के भीतर वे इस तरह के सवाल फिर उठाते हैं तो उनकी नीयत ही संदेह के घेरे में आ जाएगी.

इस प्रसंग में कार्यसमिति की बैठक का समय भी महत्वपूर्ण है. अगले एक साल में कुछ प्रदेशों में विधानसभा चुनाव होने हैं. इनमें उत्तर प्रदेश और पंजाब पर सबकी नजरें लगी हैं. पंजाब में कांग्रेस और उत्तर प्रदेश में भाजपा की आंतरिक उथल-पुथल ने मतदाताओं में उत्सुकता जगा दी है. 

पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू के द्वंद्व का खामियाजा पार्टी को उठाना पड़ सकता है तो उत्तर प्रदेश में केंद्रीय गृह राज्यमंत्नी अजय मिश्र के बेटे की लखीमपुर खीरी कांड में भूमिका ने भाजपा को रक्षात्मक होने पर मजबूर किया है. इसके अलावा मुख्यमंत्री योगी पार्टी के अंदर जिस तरह मोर्चेबंदी का शिकार हैं, उसे देखकर भी सत्तारूढ़ पार्टी को राहत नहीं मिलने वाली है. 

इस तरह दोनों ही शिखर पार्टियां इन राज्यों में अपनी जीत को लेकर आश्वस्त नहीं हैं. अलबत्ता एक-दूसरे के राज्य में जनाधार बढ़ाने के अवसर तो देख ही रही हैं. लखीमपुर खीरी के हादसे के बाद कांग्रेस ने जिस तरह बेहद आक्रामक रवैया दिखाया है, वह एक जमाने में बिहार के बेलछी कांड की याद दिलाता है, जब 1977 के चुनाव के बाद एकदम अकेली पड़ीं इंदिरा गांधी ने वापसी की और नई पार्टी उनके साथ ही बन गई. 

इस पार्टी ने तीन साल के भीतर ही फिर सत्ता हासिल कर ली थी. प्रियंका ने बीते दो वर्ष में खामोशी से इस राज्य में संगठन की धमनियों और शिराओं को मजबूत किया है. पच्चीस साल में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का ढांचा निर्बल होता रहा है. इस अवधि में पहली बार यह दल बिखरे हुए तंत्र को एकजुट करता दिखाई देता है. उनके प्रदर्शन में निरंतरता है. इसका लाभ उसे मिलेगा. 

बसपा सुसुप्तावस्था में है और समाजवादी पार्टी भी अपने आप में उलझी हुई है. दोनों पार्टियां कांग्रेस जनाधार की कोख से निकली हुई हैं और प्रदेश में भरपूर हुकूमत कर चुकी हैं. इस महादेश जैसे प्रदेश में सपा, बसपा और भाजपा को शासन का भरपूर मौका मिला है. उनके अंतर्विरोधों से कांग्रेस लाभ उठा सकती है बशर्ते चुनाव तक वह कोई रणनीतिक भूलें न करे.

पंजाब में कांग्रेस को अपने प्रदेश अध्यक्ष के अस्थिर चित्त का वक्त रहते इलाज खोजना जरूरी है. कैप्टन अमरिंदर लगातार तीसरी बार कांग्रेस को विजय दिलाते नहीं दिख रहे थे. उन्हें हटाकर नया मुख्यमंत्री बनाने का प्रयोग कारगर हो सकता है मगर उससे पहले नवजोत सिंह सिद्धू पर सख्ती से नियंत्रण बनाए रखना गंभीर चुनौती है. 

पंजाब में कांग्रेस के लिए अनुकूल यही है कि अकाली दल, भाजपा और आम आदमी पार्टी अभी अपने-अपने दम पर बहुमत प्राप्त करने का दावा नहीं कर सकते. लेकिन यदि कांग्रेस अपनी अंतर्कलह पर काबू नहीं पा सकी तो उसके लिए भी बहुमत का आंकड़ा दूर की कौड़ी हो जाएगा. 

बीते कुछ दिनों से यह सवाल तैर रहे थे कि अमरिंदर को हटाना और सिद्धू को लाना वास्तव में किसका फैसला था. सोनिया का, राहुल का या फिर प्रियंका ने यह निर्णय लिया था. दरअसल इससे भ्रम की स्थिति बनी थी. कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के बाद यह भ्रम दूर हो गया है कि सारे निर्णय राहुल या प्रियंका के दिमाग की उपज हैं. 

कांग्रेस के अपने नजरिये से देखा जाए तो इस शिखर बैठक से एक बात और साफ हो गई है कि यूपीए और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी स्वस्थ हैं. उनकी बीमारी के बारे में कुछ समय से अनेक कहानियां सामने आ रही थीं. इससे स्थानीय स्तर तक कार्यकर्ताओं के बीच हताशा बनने लगी थी. कार्यसमिति में सोनिया गांधी के तेवरों ने पार्टी में छाया कुहासा दूर कर दिया है.

Web Title: Rajesh Badal blog: Opposition will get strong with Congress rise

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