ब्लॉग: राज्यसभा की अवधारणा और मौजूदा राजनीति, चिंताजनक हैं सामने आ रहे उदाहरण
By राजेश बादल | Published: June 3, 2022 12:18 PM2022-06-03T12:18:02+5:302022-06-03T12:20:53+5:30
राज्यसभा लगभग सत्तर बरस पहले संसद के दूसरे सदन के रूप में अस्तित्व में आई थी. उसके बाद इस सदन ने बड़े शानदार दिन देखे. हालांकि आज की राजनीति कुछ और बयां कर रही है,
राज्यसभा की सत्तावन सीटों के लिए निर्वाचन का शोर इन दिनों सुनाई दे रहा है. संभवतया यह पहली बार है, जब उम्मीदवारों को चुनने की प्रक्रिया में जाति - उप जाति तथा आने वाले विधानसभाओं के चुनाव में उपयोगिता का आकलन किया जा रहा है. यही नहीं, संबंधित प्रदेश से बाहर का प्रत्याशी तय करने पर आक्रोश भी प्रकट किया जा रहा है. सवाल यह है कि इस सदन के लिए सदस्यों के नामों पर विचार करते समय क्या योग्यता, अनुभव और वैचारिक आधार - सरोकार का समुचित ध्यान रखा गया है? लंबे समय तक राज्यसभा सदस्य होने के लिए यह पहली शर्त हुआ करती थी.
वास्तव में दलबदल की महामारी के चलते सियासी पार्टियां राजनेताओं के पलायन और प्रवेश के बीच उलझ कर रह गई हैं. हर पार्टी की अपनी अलग प्राथमिकताएं हैं. एक पार्टी यह देख रही है कि उसके नेता कहीं छिटक कर दूसरे दल में न चले जाएं तो दूसरा दल अपने संगठन में जातियों के समीकरण को सामने रख रहा है. तीसरा दल व्यक्तिगत निष्ठाओं पर ध्यान दे रहा है.
लोकतंत्र, देश और सदन के लिए आवश्यक तत्वों को भुला दिया गया है. इन पार्टियों के भीतर टिकट वितरण को लेकर व्यापक असंतोष इसी का परिणाम है. यह स्थिति तभी बनती है, जब जमीन और जड़ों से जुड़े राजनेताओं की उपेक्षा होती है.
वैसे तो भारत का कोई मतदाता किसी भी राज्य से राज्यसभा या लोकसभा के चुनाव मैदान में उतर सकता है लेकिन बेहतर स्थिति तब होती है जब वह जनप्रतिनिधि अपने प्रदेश का प्रतिनिधित्व करे. राज्यों का संघ तो तभी सार्थक होगा जब सभी प्रदेशों की समुचित भागीदारी हो. एक प्रदेश के जनाधार वाले काबिल लीडर की उपेक्षा करके दूसरे प्रदेश से प्रत्याशी आयात करना घातक होता है. संबंधित प्रदेश के नेता या कार्यकर्ता यह सोचते हैं कि आलाकमान को उन पर भरोसा नहीं है अथवा उन्हें इस योग्य नहीं समझा जा रहा है.
दूसरा यह कि संबंधित दल के बारे में अवाम धारणा बना लेती है कि अमुक पार्टी के पास राज्यसभा के लिए योग्य उम्मीदवारों का अकाल है तो उसके अपने प्रदेश का संसद के इस सदन में सही प्रतिनिधित्व कैसे होगा? आप कह सकते हैं कि संसद में प्रवेश कराने के लिए यह बैक डोर एंट्री प्रथा है. अपवाद की स्थिति में कभी-कभार अन्य प्रदेश के प्रत्याशी को स्वीकार किया जा सकता है.
मसलन संसदीय प्रक्रिया के जानकार राजनेता अथवा राष्ट्रीय नीतियों के असाधारण विशेषज्ञ भी देशहित में सदन की आवश्यकता बन जाते हैं. उन्हें लाना जरूरी है. ऐसे में स्थानीय या बाहरी वाला मुद्दा छोड़ना ही पड़ता है. अनुभव यह भी बताता है कि अन्य प्रदेश से आकर चुने गए सांसद अपने गृहराज्य की ही चिंता करते हैं. जिस प्रदेश से वे चुने जाते हैं, उसके हितों का ख्याल नहीं रख पाते. उनके अंदर शायद यह गर्व बोध जैसा भी रहता है कि वे तो आलाकमान की ओर से चुने गए हैं.
राज्यसभा लगभग सत्तर बरस पहले संसद के दूसरे सदन के रूप में अस्तित्व में आई थी. उसके बाद इस सदन ने बड़े शानदार दिन देखे. राज्यसभा की अवधारणा और चरित्र के अनुसार सदस्य भी चुने जाते रहे. सभी राजनीतिक दलों के लिए इस सदन के लिए उम्मीदवारों का चुनाव आसान नहीं होता था. कभी-कभी तो यह लोकसभा के लिए प्रत्याशियों के चयन से भी अधिक चुनौतीपूर्ण होता था.
राज्यसभा में होने वाली चर्चाएं अक्सर ही इतनी गुणवत्तापूर्ण होती थीं कि देश के तमाम वर्गों के लोग उन्हें सुनने के लिए दर्शक दीर्घाओं में उमड़ पड़ते थे. इन चर्चाओं और बहसों के निष्कर्ष कई बार राष्ट्रीय नीतियों में संशोधन के लिए सरकार को बाध्य कर देते थे. इस सदन की चर्चाएं गाहे-बगाहे मुल्क के बौद्धिक हलकों में भी बहसों का केंद्रबिंदु बन जाती थीं.
अखबारों के पन्नों में संपादक के नाम पत्र से लेकर संपादकीय टिप्पणियों में उन्हें खासतौर पर स्थान मिलता था और तब यह राष्ट्र अपनी गोद में लोकतंत्र को विकसित होते देखकर मुस्कुराता था. अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी भारत के इस उच्च सदन की भूमिका सराही गई और तुलना में इसे ब्रिटेन के हाउस ऑफ लॉर्ड्स से कहीं अधिक सक्षम और ताकतवर माना गया. अलबत्ता अमेरिका के सीनेट जैसा स्थान लेने में अभी काफी वक़्त लगेगा.
राज्यसभा के कामकाज का मूल्यांकन करें तो बेशक चमत्कारिक निष्कर्ष सामने आते हैं. स्थायी समितियों ने राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय विषयों पर भी इतना गंभीर शोध किया है, जिसकी मिसाल नहीं मिलती. उदाहरण के तौर पर ग्लोबल वार्मिंग के बारे में करीब दो दशक पहले तथ्यात्मक और वैज्ञानिक रिपोर्ट सदन में एक समिति ने प्रस्तुत की थी. यह रपट अपने आप में अनमोल दस्तावेज है. इसी तरह कृषि, विदेश, रक्षा, निर्यात, शिक्षा, स्वास्थ्य और पर्यावरण जैसे विषयों पर सदन के सदस्यों ने दलगत राजनीति से ऊपर उठकर काम किया है.
हाल के वर्षों में यह महसूस किया जाने लगा है कि बहुत सारे सांसदों ने पढ़ना-लिखना शायद कम कर दिया है और वे जटिल विषयों पर रिपोर्ट बनाने का काम अधिकारियों पर छोड़ देते हैं. ऐसी स्थिति तब बनती है, जब सांसदों के सामने देश के नहीं, अपने या पार्टी के हित आ जाते हैं. दो-तीन सत्र पहले इस तरह के कई उदाहरण सामने आए हैं, जब सदस्यों ने समितियों की बैठकों और रिपोर्ट तैयार करने की प्रक्रिया में पार्टी के हित देखे, देश के नहीं. यह लोकतांत्रिक मूल्यों में गिरावट का चिंताजनक उदाहरण है.