प्रो.संजय द्विवेदी का ब्लॉग: कोरोना महामारी- सामूहिक शक्ति से जीतिए यह जंग
By प्रो. संजय द्विवेदी | Published: May 4, 2021 03:10 PM2021-05-04T15:10:39+5:302021-05-04T15:11:11+5:30
कोरोना के बहाने एक ओर हिंदुस्तान के कुछ लोगों की लुटेरी मानसिकता सामने आई है, जो आपदा को अवसर मानकर जीवन उपयोगी चीजों से लेकर, दवाओं, आॅक्सीजन और हर चीज की कालाबाजारी में लग गए हैं.
कोरोना संकट ने देश के दिल को जिस तरह से छलनी किया है, वे जख्म आसानी से नहीं भरेंगे. मन में कई बार भय, अवसाद, आसपास होती दुखद घटनाओं से, समाचारों से, नकारात्मक विचार आते हैं. अपनों को खो चुके लोगों को कोई आश्वासन काम नहीं आता. उनके दुखों की सिर्फ कल्पना की जा सकती है. ऐसे में चिंता होती है, लगता है सब खत्म हो जाएगा. कुछ नहीं हो सकता.
डॉक्टर और मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं कि भय, नकारात्मक विचारों से इम्युनिटी कमजोर होती है. यही सब कारण हैं कि अब ‘पॉजीटिव हीलिंग’ की बात प्रारंभ हुई है. जो हो रहा है वह दर्दनाक, भयानक है, किंतु हमारी मेडिकल सेवाओं के लोग, सुरक्षा के लोग, सेना, सफाई कर्मचारी, मीडिया के लोग, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता इन्हीं संकटों में अपना काम करते ही हैं. हमें भी फोन, सोशल मीडिया आदि माध्यमों से भय का विस्तार कम करना चाहिए. कठिन समय में सबको संभालने और संबल देने की जरूरत है. आपदाओं में सामाजिक सहकार बहुत जरूरी है.
ऐसे उदाहरण हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, सेवा भारती, सिख समाज, मुस्लिम समाज के अलावा अनेक सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक संगठनों ने खुद को सेवा के काम में झोंक दिया है. विश्वविद्यालयों के छात्रों, मेडिकल छात्रों की पहलकदमियों के अनेक समाचार सामने हैं. मुंबई के एक नौजवान अपनी दो महंगी कारें बेच देते हैं तो नागपुर के एक वयोवृद्ध नागरिक एक नौजवान के लिए अपना अस्पताल बेड छोड़ देते हैं और तीन दिन बाद उनकी मृत्यु हो जाती है. इन्हीं कर्मवीरों में सोनू सूद जैसे अभिनेता हैं जो लगातार लोगों की मदद में लगे हैं. यही असली भारत है. इसे पहचानने की जरूरत है. सही मायने में कोरोना संकट ने भारतीयों के दर्द सहने और उससे उबरने की शक्ति का भी परिचय कराया है. यह संकट जितना गहरा है, उससे जूझने का माद्दा उतना ही बढ़ता जा रहा है.
अकेले स्वास्थ्य सेवाओं और पुलिस के त्याग की कल्पना कीजिए तो कितनी कहानियां मिलेंगी. दिनों और घंटों की परवाह किए बिना अहर्निश सेवा और कर्तव्य करते हुए कोविड पॉजीटिव होकर अनेक की मृत्युुहुई. ये घटनाएं बताती हैं कि लूटपाट गिरोह के अलावा ऐसे हिंदुस्तानी भी हैं जो सेवा करते हुए प्राण भी दे रहे हैं. अब सिर्फ सीमा पर बलिदान नहीं हो रहे हैं. पुलिस, चिकित्सा सेवाओं, सफाई सेवाओं, मीडिया के लोग भी अपने प्राणों की आहुति दे रहे हैं.
राजनीति की तरफ देखने की हमारी दृष्टि थोड़ी अनुदार है, किंतु यह काम ऐसा है कि आप लोगों से दूर नहीं रह सकते. उप्र में अभी तीन विधायकों की मृत्यु हुई. उसके पूर्व कोरोना दौर में दो मंत्रियों की मृत्यु हुई, जिसमें प्रख्यात क्रिकेटर चेतन चौहान का नाम भी शामिल था. अनेक मुख्यमंत्री कोरोना पॉजीटिव हुए. अनेक केंद्रीय मंत्री, सांसद, विधायक इस संकट से जूझ रहे हैं. कुल मिलाकर यह एक ऐसी जंग है, जो सबको साथ मिलकर लड़नी है. इसे जागरूकता, संयम, सावधानी, धैर्य और सामाजिक सहयोग से ही हराया जा सकता है.
ऐसे कठिन समय में आरोप-प्रत्यारोप, सरकारों को कोसने के अलावा हमें कुछ नागरिक धर्म भी निभाने होंगे. मदद का हाथ बढ़ाना होगा. न्यूनतम अनुशासन का पालन करना होगा. सही मायने में यह युद्ध जैसी स्थिति है, अंतर यह है कि यह युद्ध सिर्फ सेना के भरोसे नहीं जीता जाएगा. हम सबको मिलकर यह मोर्चा जीतना है. केंद्र और राज्य की सरकारें अपने संसाधनों के साथ मैदान में हैं.
हम उनकी कार्यशैली पर सवाल उठा सकते हैं, किंतु हमें यह भी देखना होगा कि छोटे शहरों को छोड़ दें, जहां स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं हैं, तो हमारे दो सबसे बड़े शहर दिल्ली और मुंबई भी इस आपदा में घुटने टेक चुके हैं. हम समस्या के मूल कारणों पर ध्यान नहीं देते. हमारे संकटों का मूल कारण है हमारी विशाल जनसंख्या, गरीबी, अशिक्षा और देश का आकार.
कुछ विद्वान इजराइल और इंग्लैंड मॉडल अपनाने की सलाह दे रहे हैं. इजराइल अपनी 90 लाख की आबादी, इंग्लैंड 5 करोड़ 60 लाख की आबादी में वैक्सीनेशन कर अपनी पीठ ठोंक सकते हैं किंतु हिंदुस्तान में 13 करोड़ वैक्सीनेशन के बाद भी हम अपने को कोसते हैं. जबकि वैक्सीनेशन को लेकर समाज में भी प्रारंभ में उत्साह नहीं था. 139 करोड़ के देश में कुछ भी आसान नहीं है.
कोरोना महामारी ने एक बार हमें अवसर दिया है कि अपने वास्तविक संकटों को पहचानें और उसके स्थाई हल खोजें. राष्ट्रीय सवालों पर एकजुट हों. दलीय राजनीति से परे राष्ट्रीय राजनीति को प्रश्रय दें. कोरोना के विरुद्ध जंग प्रारंभ हो गई है. दानवीरता और दिनायतदारी की कहानियां लोकचर्चा में हैं. ये बात बताती है कि भारत तमाम समस्याओं के बाद भी अपने संकटों से दो-दो हाथ करना जानता है. किंतु सवाल यह है कि उसके मूल संकटों पर बात कौन करेगा?