पंकज चतुर्वेदी का ब्लॉग: गुम होती बोली-भाषाओं को सहेजना बेहद जरूरी
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: July 30, 2020 12:26 PM2020-07-30T12:26:09+5:302020-07-30T12:26:09+5:30
यूनेस्को द्वारा जारी दुनिया की भाषाओं के मानचित्र में जब यह आरोप लगा कि भारत अपनी बोली-भाषाओं को भूलने के मामले में दुनिया में अव्वल है तो लगा था कि शायद सरकार व समाज कुछ चेतेंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. कैसी विडंबना है कि देश की आजादी के बाद हमारी पारंपरिक बोली-भाषाओं पर सबसे बड़ा संकट आया और उनमें भी आदिवासी समाज की बोलियां लुप्त होने में अव्वल रहीं. गणेश देवी के सर्वे के अनुसार हम कोई 300 बोलियों को बिसरा चुके हैं और कोई 190 अंतिम सांसें ले रही हैं.
दु:खद बात यह है कि बोलियों के गुम जाने का संकट सबसे अधिक आदिवासी क्षेत्रों में है. चूंकि देश के अधिकांश जनजातीय बाहुल्य इलाके प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न हैं, सो बाहरी समाज के लोभ की गिरफ्त में यही क्षेत्र सबसे ज्यादा होते हैं. हिंसा-प्रतिहिंसा, विकास और रोजगार की छटपटाहट के चलते आदिवासियों के पलायन और उनके नई जगह पर बस जाने की रफ्तार बढ़ी तो उनकी कई पारंपरिक बोलियां पहले कम हुई और फिर गुम गई. एक बोली के लुप्त होने का अर्थ उसके सदियों पुराने संस्कार, भोजन, कहानियां, खानपान सभी का गुम हो जाना है.
झारखंड में आदिम जनजातियों की संख्या कम होने के आंकड़े बेहद चौंकाते हैं जो कि सन् 2001 में तीन लाख 87 हजार से सन् 2011 में घटकर दो लाख 92 हजार रह गई. ये जनजातियां हैं- कंवर, बंजारा, बथुडी, बिझिया, कोल, गौरेत, कॉड, गोंड और कोरा. इसके अलावा माल्तो-पहाड़िया, बिरहोर, असुर, बैगा भी ऐसी जनजातियां हैं जिनकी आबादी लगातार सिकुड़ रही है. इन्हें राज्य सरकार ने पीवीजीटी श्रेणी में रखा है. एक बात आश्चर्यजनक है कि मुंडा, उरांव, संथाल जैसे आदिवासी समुदाय जो कि सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्तर पर आगे आ गए, जिनका अपना मध्य वर्ग उभर कर आया, उनकी जनगणना में आंकड़े देश के जनगणना विस्तार के अनुरूप ही हैं. बस्तर में गोंड, दोरले, धुरबे आबादी के लिहाज से सबसे ज्यादा पिछड़ रहे हैं. कोरिया, सरगुजा, कांकेर, जगदलपुर, नारायणपुर, दंतेवाड़ा सभी जिलों में आदिवासी आबादी तेजी से घटी है. यह भी गौर करने वाली बात है कि नक्सलग्रस्त क्षेत्रों में पहले से ही कम संख्या वाले आदिवासी समुदायों की संख्या और कम हुई है. ये केवल किसी आदि समाज के इंसान के लुप्त होने के आंकड़े ही नहीं हैं, बल्कि उसके साथ उनकी बोली-भाषा के भी समाप्त होने की दास्तान है.
प्रसिद्ध नृशास्त्री ग्रियर्सन की सन् 1938 में लिखी गई पुस्तक ‘माड़िया गोंड्स ऑफ बस्तर’ की भूमिका में एक ऐसे व्यक्ति का उल्लेख है जो कि बस्तर की 36 बोलियों को समझता-बूझता था. जाहिर है कि आज से अस्सी साल पहले वहां कम से कम 36 बोलियां तो थीं ही. सभी जनजातियों की अपनी बोली, प्रत्येक हस्तशिल्प या कार्य करने वाले की अपनी बोली. राजकाज की भाषा हल्बी थी जबकि जंगल में गोंडी का बोलबाला था. गोंडी का अर्थ कोई एक बोली समझने का भ्रम न पालें - घोटुल मुरिया की अलग गोंडी तो दंडामी और अबूझमाड़िया की गोंडी में अलग किस्म के शब्द. उत्तरी गोंडी में अलग भेद. राज गोंडी में छत्तीसगढ़ी का प्रभाव ज्यादा है. इसका इस्तेमाल गोंड राजाओं द्वारा किया जाता था. सन् 1961 की जनगणना में इसको बोलने वालों की संख्या 12713 थी और आज यह घट कर 500 के लगभग रह गई है. चूंकि बस्तर भाषा के आधार पर गठित तीन राज्यों महाराष्ट्र, ओडिशा, तेलंगाना (आंध्र प्रदेश) से घिरा हुआ है, सो इसकी बोलियां इसको छूते राज्य की भाषा से अछूती नहीं हैं.
प्रत्येक बोली-भाषा समुदाय की अपनी ज्ञान-शृंखला है. एक बोली के विलुप्त होने के साथ ही उनका कृषि, आयुर्वेद, पशु-स्वास्थ्य, मौसम, खेती आदि का हजारों साल पुराना ज्ञान भी समाप्त हो जाता है. यह दु:खद है कि हमारी सरकारी योजनाएं इन बोली-भाषाओं की परंपराओं और उन्हें आदि-रूप में संरक्षित करने के बजाय उनका आधुनिकीकरण करने पर जोर देती हैं. हम अपना ज्ञान तो उन्हें देना चाहते हैं लेकिन उनके ज्ञान को संरक्षित नहीं करना चाहते. यह हमें जानना होगा कि जब किसी आदिवासी से मिलें तो पहले उससे उसकी बोली-भाषा के ज्ञान को सुनें, फिर उसे अपना ज्ञान देने का प्रयास करें. आज जरूरत बोलियों को उनके मूल स्वरूप में सहेजने की है.