ब्लॉग: विपक्षी दलों में नेतृत्व के सवाल पर बवाल
By राजेश बादल | Published: December 15, 2021 09:28 AM2021-12-15T09:28:33+5:302021-12-15T09:34:50+5:30
जिंदा और धड़कता लोकतंत्र सिर्फ सरकार में बैठे दल के सहारे नहीं चल सकता. विपक्ष की बेंचों पर असहमतियों के अनेक सुर चाहिए. भारत का संविधान बहुदलीय लोकतंत्र का समर्थन करता है. इस व्यवस्था में प्रतिपक्ष का बौना और नाटा होना देश की सेहत के लिए अच्छा नहीं माना जा सकता.
तृणमूल कांग्रेस की नेत्री ममता बनर्जी के तेवर इन दिनों हैरान करने वाले हैं. चंद रोज पहले तक वे यूपीए के बारे में कुछ नहीं बोलती थीं. उसकी कमान कांग्रेस के हाथों में रहने पर उन्हें कोई ऐतराज नहीं था.
पिछली यात्रा में उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से भी लंबी मंत्रणा की थी. लेकिन कुछ समय बाद ही उनकी प्राथमिकता की सूची से कांग्रेस अनुपस्थित थी. वे दिल्ली आईं तो यूपीए अध्यक्ष से नहीं मिलीं और न कांग्रेस के नेतृत्व में हुई विपक्षी दलों की बैठक में शामिल हुईं.
बैठक में जाने और कांग्रेस अध्यक्ष से नहीं मिलने की बात उतनी गंभीर नहीं है. असल मसला तो उनके व्यवहार में नाटकीय बदलाव के कारण सामने आया. उन्होंने कांग्रेस को कोसते हुए यूपीए के अस्तित्व को ही नकार दिया.
ममता का कहना था कि आवश्यक नहीं है कि विपक्षी मोर्चे की अगुआई कांग्रेस ही करे. इसके बाद उनके सियासी रणनीतिकार और पेशेवर अनुबंध पर काम कर रहे प्रशांत किशोर ने भी कांग्रेस के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. उन्होंने कहा कि कांग्रेस के बिना भी विपक्षी एकता मुमकिन है. हालांकि वे पहले बने ऐसे मोर्चो का अंजाम भूल गए.
जिंदा और धड़कता लोकतंत्र सिर्फ सरकार में बैठे दल के सहारे नहीं चल सकता. विपक्ष की बेंचों पर असहमतियों के अनेक सुर चाहिए. भारत का संविधान बहुदलीय लोकतंत्र का समर्थन करता है. इस व्यवस्था में प्रतिपक्ष का बौना और नाटा होना देश की सेहत के लिए अच्छा नहीं माना जा सकता.
यदि विपक्षी दलों ने इस प्रसंग में गैरजिम्मेदारी दिखाई तो वे अपना नुकसान तो करेंगे ही, मुल्क का भला भी नहीं होगा. इस नाते ममता बनर्जी की छटपटाहट स्वाभाविक मानी जा सकती है.
बंगाल में उन्होंने भाजपा के साथ जिस तरह किला लड़ाया, उसकी मिसाल लंबे समय तक दी जाएगी. वे विपक्षी एकता की पहल करें तो कुछ अनुचित नहीं है. अलबत्ता उनके नए अंदाज ने लोकतंत्र समर्थकों की चिंता बढ़ा दी है.
वे कुछ समय पहले मुंबई जाती हैं और एक औद्योगिक घराने के मुखिया से मिलती हैं. वे राकांपा के शिखर पुरुष से मिलती हैं और वे भी यूपीए की भूमिका को लेकर ममता बनर्जी से सहमत नजर आते हैं.
जाहिर है पूरब और पश्चिम की यह दोनों क्षेत्रीय पार्टियां अब राष्ट्रीय क्षितिज पर उभरने के लिए बेताब हैं. फीस लेकर तृणमूल कांग्रेस के लिए काम कर रहे प्रशांत किशोर की दाल कांग्रेस में नहीं गली तो वे भी कांग्रेस को भला-बुरा कहते दिखाई दे रहे हैं.
एक उद्योगपति घराने से संपर्क और भाजपा के साथ-साथ ममता बनर्जी का कांग्रेस के खिलाफ खुलकर सामने आना परदे के पीछे की कहानी भी कहता है.
ध्यान देने की बात है कि क्या कांग्रेस के बगैर उन्होंने प्रतिपक्ष की एकता के व्यावहारिक और कूटनीतिक पहलुओं पर भी विचार किया है? विपक्ष के नाम पर चमक रहे जुगनुओं में से आप कांग्रेस हटा दें तो बचता ही क्या है?
अतीत बताता है कि कई छोटे दलों ने कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगाकर अपनी पार्टियां बनाई थीं. तृणमूल कांग्रेस यदि राकांपा के साथ मिलकर महाराष्ट्र में चुनाव लड़ती है तो अपने शून्य वोट प्रतिशत में वह जो भी इजाफा करेगी, वह एनसीपी का ही वोट बैंक होगा.
जिस दिन महाराष्ट्र के मतदाता के सामने एनसीपी और टीएमसी संयुक्त होकर वोट मांगने जाएंगी तो वह टीएमसी को कितना पसंद करेगा? इसी तरह यदि तृणमूल कांग्रेस अपने शून्य मतों का कटोरा लेकर उत्तरप्रदेश में सपा के साथ चुनाव मैदान में उतरती है तो क्या गारंटी है कि वह अखिलेश यादव के वोट बैंक में सेंध नहीं लगाएगी.
पिछले लोकसभा चुनाव के आंकड़े देखें तो कांग्रेस इतिहास के दुर्बलतम स्वरूप में होते हुए भी करीब 12 करोड़ मतदाताओं के साथ मंच पर उपस्थित है और ममता के पास कांग्रेस के मतों का सिर्फ दस-बारह फीसदी वोट है. यही उनकी पच्चीस बरस की पूंजी है. इसी के सहारे वे अश्वमेध अश्व देश भर में घुमा रही हैं.
इसी तरह महाराष्ट्र में एनसीपी के पास कांग्रेस की तुलना में महज छह-सात फीसदी वोट हैं. समाजवादी पार्टी का मत प्रतिशत भी विपक्षी एकता को बढ़ाने वाली प्राणवायु नहीं देता. वह कांग्रेस के कुल मतों का दस प्रतिशत भी नहीं है.
इसके बाद ममता बनर्जी के पास कौन से ठोस सहयोगी दल हो सकते हैं, जो यूपीए के दरम्यान कांग्रेस से प्रताड़ित रहे हों और ममता की छांव में जाने के लिए उतावले हों? पहला नाम तो अकाली दल का ही है, जो किसी भी सूरत में कांग्रेस के साथ नहीं जाएगा. परंतु अकाली दल का मत प्रतिशत कांग्रेस की तुलना में 3-4 फीसदी ही है.
तेलुगुदेशम और वाईएसआर कांग्रेस भी कांग्रेस के कुल मतों का 10 प्रतिशत मत ही पा सके थे. आम आदमी पार्टी के पास कांग्रेस के मतों का केवल 2-3 फीसदी वोट है और बीजू जनता दल के पास नौ-दस प्रतिशत.
मैं सभी पार्टियों के प्रति सम्मान जताते हुए बताना चाहता हूं कि पिछले दो चुनाव में नोटा (यानी जो किसी भी पार्टी को पसंद नहीं करते) मतों की संख्या एक प्रतिशत से कुछ ही अधिक थी और पंद्रह से अधिक पार्टियों के कुल वोट नोटा के मतों से भी कम थे.
इनमें अकाली दल, अपना दल, लोजपा, कम्युनिस्ट पार्टी, अन्नाद्रमुक, लोकदल और आम आदमी पार्टी के मत तो नोटा से भी कम हैं. खुद एनसीपी भी नोटा से कोई बहुत अधिक आगे नहीं है.
लब्बोलुआब यह कि सभी समर्थक दलों का मत प्रतिशत भी ममता जोड़ लें तो वह बमुश्किल कांग्रेस के मतों का 25 फीसदी ही ठहरता है. ऐसे में कठिन है कि कांग्रेस के बिना विपक्ष का तीन टांग वाला अश्वमेध का घोड़ा चार कदम भी चल पाएगा.
महत्वाकांक्षी होना बुरा नहीं है, मगर उसके लिए वोट बैंक का निरंतर विस्तार करना होता है. खेद है कि कांग्रेस विहीन मोर्चा बनाने के लिए उतावली पार्टियों ने अपने पच्चीस-तीस बरस के जीवनकाल में कोई सार्थक कोशिशें नहीं की हैं. अब वे कांग्रेस से पिंड छुड़ाएं भी तो कैसे?