युति में ‘बड़ा भाई’ नहीं बन सकी शिवसेना

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: February 20, 2019 11:11 PM2019-02-20T23:11:14+5:302019-02-20T23:11:14+5:30

सारी कड़वाहट भुलाकर सोमवार को शिवसेना ने अंतत: भाजपा से हाथ मिला ही लिया.

Not a 'big brother' in the war Can become Shiv Sena | युति में ‘बड़ा भाई’ नहीं बन सकी शिवसेना

युति में ‘बड़ा भाई’ नहीं बन सकी शिवसेना

सारी कड़वाहट भुलाकर सोमवार को शिवसेना ने अंतत: भाजपा से हाथ मिला ही लिया. दोनों पार्टियां महाराष्ट्र में इस साल लोकसभा और विधानसभा का चुनाव मिलकर लड़ेंगी. पिछले कुछ वर्षो से केंद्र तथा महाराष्ट्र में भाजपा के साथ सत्ता बांटने के बावजूद शिवसेना ने बागी तेवर अपनाए हुए थे.

वह भाजपा को अपनी शर्तो पर झुकाने के लिए थे लेकिन युति में बड़ा भाई बनने की शिवसेना की तमन्ना पूरी नहीं हो सकी. शिवसेना इस बात पर तसल्ली कर सकती है कि पिछला विधानसभा चुनाव अलग से लड़ने पर 63 सीटें जीतने के बावजूद युति में वह भाजपा से 144 सीटें झटकने में कामयाब हो गई. उसे भाजपा के लिए लोकसभा की दो सीटें छोड़नी पड़ीं. युति दोनों पार्टियों के लिए बेहद जरूरी थी. दोनों ही पार्टियों के सामान्य कार्यकर्ता तथा वरिष्ठ नेता जानते थे कि इस बार हालात 2014 की तरह नहीं हैं और साथ मिलकर मैदान में न उतरने पर उन्हें जबर्दस्त नुकसान हो सकता है. दूसरी ओर कांग्रेस और राकांपा ने अपने गठबंधन को पक्का कर भाजपा एवं शिवसेना दोनों के लिए खतरे की घंटी बजा दी थी.

इसके अलावा पश्चिम महाराष्ट्र के प्रभावशाली किसान नेता राजू शेट्टी की स्वाभिमानी शेतकरी संगठना के राकांपा-कांग्रेस के साथ चले जाने से भाजपा की संभावनाओं पर असर पड़ने की पूरी आशंका है. शिवसेना का राज्य में अपना ठोस जनाधार है. बालासाहब ठाकरे के देहावसान के बाद उद्धव ठाकरे भले ही पार्टी का जनाधार बढ़ा न पाए हों मगर उसे सलामत रखने में सफल जरूर हुए हैं. भाजपा को इस बात का एहसास है कि शिवसेना के अलग लड़ने पर उसे कितना नुकसान होगा. 2014 में मोदी लहर थी. इसके बावजूद विधानसभा चुनाव अकेले लड़कर शिवसेना ने 63 सीटें जीतकर अपने जनाधार का असरदार प्रदर्शन किया था.

भाजपा-शिवसेना के एक हो जाने से उनके परंपरागत वोट बैंक का बंटवारा नहीं होगा. इससे लोकसभा तथा विधानसभा दोनों ही चुनाव में वे संभावित नुकसान से बच जाएंगे. युति के लिए दोनों ही पार्टियों ने लचीलापन अपनाया. भाजपा ने विधानसभा की आधी सीटें शिवसेना को देकर नरमी दिखाई तो लोकसभा की दो सीटें भाजपा को ज्यादा देकर उद्धव ठाकरे भी कुछ झुके.

बालासाहब के दौर की तरह उद्धव अपनी पार्टी को युति में बड़े भाई की भूमिका में नहीं ला सके परंतु उन्होंने इतना दबाव जरूर बना लिया कि भाजपा अध्यक्ष को शिवसेना प्रमुख के घर जाना पड़ा. दिलचस्प यह देखना होगा कि केंद्र तथा महाराष्ट्र में सरकार में रहने के बावजूद उसके हर फैसले को कोसने और कई मसलों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर सीधा हमला करने वाले उद्धव ठाकरे एवं उनकी पार्टी के अन्य नेताओं के सुर अब कैसे बदलते हैं? भाजपा के खिलाफ सबसे ज्यादा मुखर सांसद संजय राऊत को प्रेस कांफ्रेंस में महत्व न देकर शिवसेना ने अपने बदलते रुख का परिचय दे ही दिया.

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