एन. के. सिंह का ब्लॉग: सरकार, समाज और विज्ञान एक साथ आएं

By एनके सिंह | Published: April 5, 2020 06:39 AM2020-04-05T06:39:02+5:302020-04-05T06:39:02+5:30

कोरोना वैतरणी को पार करना दुनिया के लिए सबसे बड़ी चुनौती है, जाहिर है भारत के लिए भी. अगर हम इसे पार कर गए तो वर्तमान आलोचक या भावी इतिहासकार सरकार के प्रयासों के लिए कसीदे काढ़ेंगे, समाज की समझ को दाद देंगे और देशवासियों की जिजीविषा (जीने की शक्ति) की भूरि-भूरि प्रशंसा करेंगे. लेकिन अगर संकट बढ़ता गया जैसा अमेरिका और यूरोप में अभी तक की हालत से दिखाई दे रहा है तो भावी पीढ़ी न हमें माफ करेगी न वर्तमान नेतृत्व को और वह कहेगी कि हमारे पूर्वज मूर्ख थे.

NK Singh blog on Coronavirus: Government, society and science should come together | एन. के. सिंह का ब्लॉग: सरकार, समाज और विज्ञान एक साथ आएं

तस्वीर का इस्तेमाल केवल प्रतीकात्मक तौर पर किया गया है। (फाइल फोटो)

कोरोना के संकट ने दुनिया में मनुष्यों के अभी तक के इस विश्वास पर कि वह प्रकृति और ब्रह्मांड के हर जीव पर प्रभुता पाने में सक्षम हैं, पहली बार प्रश्न-चिह्न लगा दिया है. अगर यह प्रभुता व्यापक जन-धन हानि के बाद पा भी ली गई तो यह निर्विवाद रहेगा कि एक छोटे से अदृश्य अर्ध-जीव ने कैसे आवाज की गति से चार गुना तेज रफ्तार के वायुयान बनाने वाले मानव को हरा दिया.

कोरोना वैतरणी को पार करना दुनिया के लिए सबसे बड़ी चुनौती है, जाहिर है भारत के लिए भी. अगर हम इसे पार कर गए तो वर्तमान आलोचक या भावी इतिहासकार सरकार के प्रयासों के लिए कसीदे काढ़ेंगे, समाज की समझ को दाद देंगे और देशवासियों की जिजीविषा (जीने की शक्ति) की भूरि-भूरि प्रशंसा करेंगे. लेकिन अगर संकट बढ़ता गया जैसा अमेरिका और यूरोप में अभी तक की हालत से दिखाई दे रहा है तो भावी पीढ़ी न हमें माफ करेगी न वर्तमान नेतृत्व को और वह कहेगी कि हमारे पूर्वज मूर्ख थे.        

प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी ने 16 दिन में राष्ट्र के नाम तीन संदेश और दो संवादों में जनता से ताली और घंटे-घड़ियाल बजवाये और फिर अंधेरे में दीया/मोमबत्ती/टॉर्च या मोबाइल फोन की लाइट जलाने की दरख्वास्त की. सामान्य तौर पर जब देश ऐसे संकट से जूझ रहा हो और अस्तित्व का संकट हो तो यह प्रतीकात्मक सामूहिक ‘जलसा’ एक मजाक लगता है और वह भी उस व्यक्ति द्वारा जिसकी जन-स्वीकार्यता अप्रतिम है और जो सरकार का मुखिया है.

ऐसे में अगर देश कोरोना संकट से निकल गया (जिसकी उम्मीद अब बन रही है), तो राष्ट्र के नाम संदेश (नौ दिन में चार), फैसले और प्रयोग दुनिया के मैनेजमेंट के पाठ्यक्र म में सदियों तक पढ़ाए जाएंगे. लेकिन अगर हम बड़े नुकसान के भागी बने तो ये संदेश हास्यास्पद और गैर-जिम्मेदाराना भी माने जा सकते हैं. जब देश में घंटों के अंतराल पर लोग मर रहे हों तो ताली बजाना, घंटा बजाना या अंधेरे में टॉर्च जलना किसी भी आपदा प्रबंधन की किताब में नहीं लिखा है. फिर यह किया क्यों गया?

उधर अगर तबलीगी जमात का मुखिया साद निजामुद्दीन स्थित मरकज (हेडक्वार्टर्स) में चार हजार धर्मानुयायी कार्यकर्ताओं के बीच (जिनमें सैकड़ों विदेश से आए मौलाना भी थे), कह रहा हो कि ‘अगर वे (सरकार) या डॉक्टर कहें कि मस्जिद को लॉकडाउन कर दो तो आप लोग उनकी बात न मानो’, तो क्या हुआ उस वैज्ञानिक सोच का जो भारत के संविधान में नागरिकों के कर्तव्य के रूप में रखा गया है?

एक अन्य सामाजिक प्रतिक्रिया थी लाखों मजदूरों का लॉकडाउन तोड़ कर सैकड़ों मील दूर अपने मूल निवास की ओर बच्चों और गर्भवती पत्नियों के साथ पलायन करना. इतिहास इन दोनों घटनाओं पर आज के समाज को कैसे देखेगा, यह इस बात से तय होगा कि हम कितना नुकसान उठाते हैं अन्य देशों के मुकाबले. लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि अगर सरकार तत्परता दिखती तो तबलीगी जमात के मरकज में इतने लोग एक साथ इकट्ठा नहीं हो सकते थे और फिर पूरे देश में घूम-घूम कर इस बीमारी को हजारों लोगों में न बांटते.      

लेकिन अगर सकारात्मक रूप से देखें तो दरअसल मोदी के संदेश एक सामाजिक मनोविज्ञान के तहत अनूठे प्रयोग भी हैं, जनता को आने वाले 21-दिनी ‘लॉकडाउन’ के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से तैयार करने के लिए. यह आंशिक रूप से कुछ वर्गो में असफल जरूर रहा लेकिन 139 करोड़ की आबादी वाले देश में ऐसी असफलताएं उतना महत्व नहीं रखतीं जितनी सफलताएं.

यह जरूर कहा जा सकता है कि शहरों में रह रहे लाखों मजदूरों की मन:स्थिति का पूर्वानुमान सरकार नहीं लगा सकी. लेकिन प्रबंधन के उच्चतम कौशल का मुजाहरा करते हुए प्रधानमंत्नी का अंधेरे में दिया जलाकर ‘हम अकेले नहीं हैं’ का भाव देशवासियों के मन में विकसित करना इसलिए जरूरी था कि अभाव की मानसिकता वाला देश अचानक 21-दिनी लॉकडाउन में कभी भी निराशा-जनित कदम उठा सकता था.

पांच अप्रैल को 21 दिनी लॉकडाउन का अर्ध-काल होगा. ऐसे में जनता में खेल-मिश्रित उत्साह से ‘कुछ करने’ का संदेश बेहद सामायिक हस्तक्षेप है और वह भी उस शीर्ष नेतृत्व से जिसकी मकबूलियत आज भी अक्षुण्ण है. यह भी प्रधानमंत्नी के धैर्य की पराकाष्ठा थी कि उन्होंने एक शब्द भी उस वर्ग के खिलाफ नहीं बोला जिसने धर्माधता के कारण देश को अयाचित संकट में झोंक दिया और जो आज स्वास्थ्यकर्मियों पर पत्थर बरसा रहा है.

प्रधानमंत्नी का इससे बचने का कारण साफ था. चूंकि 24 घंटे पहले ही मुख्यमंत्रियों से संवाद में उन्होंने अपील की थी कि लोगों को समझाने के लिए धर्मगुरुओं की मदद लें, लिहाजा किसी किस्म का आरोप किसी वर्ग विशेष पर लगाना पहली सलाह को प्रभावहीन कर देता. समाजशास्त्न के सिद्धांतों के अनुसार जननेता को ‘ओवरएक्सपोजर’ से बचना चाहिए और नौ दिन में राष्ट्र के नाम चार संबोधन संदेशों का वजन कम करता है लेकिन असाधारण परिस्थिति में असाधारण कदम लेना भी ताकतवर नेतृत्व की अपरिहार्य शर्त है.

आज जरूरत इस बात की है कि सामाजिक स्तर पर हम वैज्ञानिक सोच विकसित करें और डॉक्टरों की आम राय का और सरकार के निर्देशों का निष्ठापूर्वक पालन करें. यह अभी तक पाए गए अन्य वायरसों से काफी अलग है. इसमें मानव-से-मानव तक पहुंचाने की अद्भुत क्षमता है और शरीर में पहुंचकर जल्द न खत्म होनी की शक्ति भी इसे घातक बना रही है. इस संकट से लड़ने के लिए सरकार, समाज और साइंस सबको एक साथ होना होगा.

Web Title: NK Singh blog on Coronavirus: Government, society and science should come together

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