एन. के. सिंह का ब्लॉग: लोकतंत्र को खोखला करता जा रहा है भ्रष्टाचार
By एनके सिंह | Published: August 2, 2019 06:40 AM2019-08-02T06:40:45+5:302019-08-02T06:40:45+5:30
संविधान निर्माताओं ने न्यायपालिका, खासकर, सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों को नैतिकता की प्रतिमूर्ति मानते हुए उन्हें पद पर रहने के दौरान हर संवैधानिक सुरक्षा कवच से नवाजा था और उन्हें पद से हटाना एक जटिलतम प्रक्रिया के तहत लगभग नामुमकिन कर दिया था. जिस प्रजातंत्र को उन्होंने इतनी कुर्बानियां देकर हासिल किया था उसके भावी अध:पतन का शायद उन्हें अंदाजा नहीं था.
देश के इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज पर भ्रष्टाचार का मुकदमा दर्ज करने की इजाजत सीबीआई को दे दी है. तमाम जांच के बाद प्राथमिक तौर पर इस जज को भ्रष्टाचार में लिप्त पाने के सबूत मिले. संविधान निर्माताओं ने न्यायपालिका, खासकर, सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों को नैतिकता की प्रतिमूर्ति मानते हुए उन्हें पद पर रहने के दौरान हर संवैधानिक सुरक्षा कवच से नवाजा था और उन्हें पद से हटाना एक जटिलतम प्रक्रिया के तहत लगभग नामुमकिन कर दिया था. जिस प्रजातंत्र को उन्होंने इतनी कुर्बानियां देकर हासिल किया था उसके भावी अध:पतन का शायद उन्हें अंदाजा नहीं था.
पहली बार देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के गेरुआधारी मुख्यमंत्री के आदेश पर पूरा प्रशासन कांवड़ियों के आगे इतना नतमस्तक हो गया कि एक जिले के एसपी ने एक कांवड़िये का सार्वजनिक रूप से न केवल पैर दबाया बल्कि उसका वीडियो आधिकारिक वेबसाइट पर अपलोड भी किया ताकि मुख्यमंत्री देख सकें कि उनके आदेश का अमल किस शिद्दत से किया जाता है. एक अन्य जिले में डीएम और एसपी ने उन पर हेलिकॉप्टर से फूल बरसाए और मीडिया को वीडियो उपलब्ध कराया. लौहपुरुष सरदार पटेल को इस ‘स्टील फ्रेम’ (वह ब्यूरोक्रेसी को फौलादी ढांचा कहते थे) पर इतना भरोसा था कि संविधान के अनुच्छेद 311 में अधिकारियों को दिए गए सुरक्षा कवच के पक्ष में बोलते हुए उन्होंने कहा था ‘‘यह कवच इसलिए जरूरी है ताकि अफसर राजनीतिक आकाओं के सामने तन कर अपनी बात कह सकें और कर सकें.’’ आज 70 साल बाद वह फौलादी ढांचा रीढ़विहीन केंचुए की मानिंद दिखा.
इसी राज्य के उन्नाव जिले में सत्ताधारी दल का एक विधायक एक नाबालिग लड़की से बलात्कार के मामले में साल भर से जेल में बंद है. दो दिन पहले जब परिवार के साथ पीड़िता एक गाड़ी में जा रही थी तो गलत दिशा से आ रहे एक ट्रक ने जबर्दस्त टक्कर मारी. पीड़िता वेंटिलेटर पर है और उसके वकील गंभीर रूप से घायल, जबकि दो रिश्तेदार मौके पर ही मर गए. पीड़िता की मां और चाचा के आरोप पर और पूरे राज्य में जनाक्रोश देखते हुए पुलिस ने विधायक पर हत्या का और हत्या के प्रयास का मुकदमा दर्ज किया. अगर विधायक गवाहों को डराने -धमकाने के अंदेशे में जेल में न रहता तो विधानसभा में कानून बना या बिगाड़ रहा होता. सत्ताधारी भाजपा ने आखिरकार इस विधायक को पार्टी से निष्कासित कर दिया है.
एक अन्य केस लें. सिक्किम में जनता ने सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा को बहुमत दिया और विधायकों के बहुमत ने, जिनमें भाजपा भी शामिल है, अपने नेता प्रेम सिंह तमांग को मुख्यमंत्री बनाया. यह सब तब हुआ जब यह महोदय 2017 में भ्रष्टाचार की सजा में साल भर जेल काट चुके थे और चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य हो चुके थे. किसका विवेक गलत था जनता का या विधायकों का? अब मुख्यमंत्री चुनाव आयोग से गुहार कर रहे हैं कि कानून में प्रदत्त अधिकारों के तहत वह इन्हें चुनाव लड़ने की अनुमति दे दे.
भ्रष्टाचार में चार्जशीट के बावजूद राजद नेता लालू यादव उस समय के कानून (अंतिम अदालत से सजा न मिलने तक अभियुक्त पाक-साफ) तमाम वर्षों तक बिहार में सरकार बनाते रहे और संसद में मंत्री के रूप में कानून. बिहार की जनता उन्हें वोट देती रही. क्या 70 साल में जनता का विवेक अपने प्रतिनिधि को लेकर आज भी वही है या अच्छे नैतिक बल वाले लोग राजनीति में आते ही नहीं, लिहाजा जनता के सामने विकल्पहीनता की स्थिति रहती है या फिर सत्ता का असर है कि चाहे जिसे चुनो वह नैतिक पैमाने पर खरा नहीं उतरता है.
सन 1830 से दो साल पहले अमेरिका में जैक्सोनियन युग के प्रजातंत्र की धूम थी. इसे समझने के लिए फ्रांस के जाने-माने राजनीति-शास्त्र के दार्शनिक-विद्वान टोक्विल अमेरिका गए और उन्होंने अध्ययन में पाया कि यह सबसे खराब प्रजातंत्र है जिसमें अल्पसंख्यक मत का न तो न्यायपालिका में, न ही विधायिका में और न ही किसी और जन विमर्श में कोई स्थान है. उन्होंने वापस लौटकर ‘बहुसंख्यक का आतंक’ शीर्षक एक लेख लिखा जो भविष्य के प्रजातंत्र के लिए दिशा-निर्देशक बना. उसी तरह सन 1860 में ब्रिटेन में भी सबको मतदान का अधिकार संबंधी विवाद पर प्रजातंत्र में उदारवाद के जनक जॉन स्टुअर्ट मिल ने कहा था ‘‘मैं इसका पक्षधर कभी नहीं हो सकता कि अंगूठाछाप आदमी को मतदान का अधिकार मिले.’’
पंडित नेहरू और बाबासाहब आंबेडकर ने सार्वजनिक वयस्क मताधिकार के पक्ष में संविधान बनाया जबकि उस समय साक्षरता मात्र 12 प्रतिशत थी. आज 76 प्रतिशत है लेकिन क्या लोगों की सोच, तर्क-शक्ति और सामूहिक समझ बदली है? क्या बेहतर शिक्षा, प्रति-व्यक्ति आय, सूचना के प्रवाह ने भारत के नागरिक की नैतिक गुणवत्ता बदली है? अगर हां, तो जज भ्रष्टाचार का आरोपी क्यों है, विधायक बलात्कार और हत्या के मामले में सलाखों के पीछे क्यों है और जनता कैसे एक साल जेल की सजा काट चुके नेता की पार्टी को सरकार बनाने के लिए चुनती है और कैसे वह नेता संविधान को ठेंगा दिखाता हुआ मुख्यमंत्री बन जाता है? और अंत में कैसे फौलादी ढांचे की बुनियाद का कोई हिस्सा आईएएस और आईपीएस रीढ़ विहीन हो जाते हैं? शायद प्रजातंत्र में कहीं ‘नैतिक लोचा’ है.