एन. के. सिंह का ब्लॉग: मजदूरों की शर्तों पर होगा अब दुनिया में उत्पादन

By एनके सिंह | Published: May 11, 2020 01:24 PM2020-05-11T13:24:07+5:302020-05-11T13:24:42+5:30

महात्मा गांधी ने कहा था, ‘ईश्वर ने हमारे दांत व आंतें शाकाहार के लिए बनाए हैं लिहाजा हमारा मांसाहार प्रकृति के अनुकूल नहीं है’. हमने एक अर्थव्यवस्था दी जिसमें एक अच्छी कंपनी के सीईओ की एक साल की तनख्वाह एक मजदूर की 957 साल की कमाई से भी ज्यादा होती है. आज से 20 साल पहले भारत के एक प्रतिशत लोगों के पास देश की 37 प्रतिशत संपत्ति थी जो 2005 में 42 प्रतिशत, 2010 में 48 प्रतिशत, 2015 में 59 प्रतिशत और आज लगभग 65 प्रतिशत हो गई है.

N. K. Singh blog: Now production in the world will be on the conditions of the workers | एन. के. सिंह का ब्लॉग: मजदूरों की शर्तों पर होगा अब दुनिया में उत्पादन

तस्वीर का इस्तेमाल केवल प्रतीकात्मक तौर पर किया गया है। (फाइल फोटो)

लॉकडाउन-3 के शुरुआती दिनों में सुबह सात बजे एक साइकिल-रिक्शा चालक बड़ी तन्मयता और निर्विकार भाव से दिल्ली एनसीआर के एक संपन्न इलाके की चौड़ी लेकिन सुनसान सड़क पर गाता जा रहा था, ‘प्रभु, आपकी की कृपा से सब काम हो रहा है.. तेरी प्रेरणा से ही सब ये कमाल हो रहा है’. रिक्शे पर कोई सवारी नहीं थी. मुमकिन है उसकी आमदनी का यह जरिया भी लॉकडाउन में जाता रहा हो और पूरी नहीं तो आंशिक भुखमरी की हालत हो.

करीब 670 साल पहले जब प्लेग जैसी संक्रामक और घातक महामारी ने पहली बार दुनिया के करीब ढाई करोड़ लोगों को लील लिया तो भी उस समय के इतिहासकारों और वर्तमान विश्लेषकों ने कहा, ‘समाज का एक वर्ग इसे ईश्वर का कहर मानता था जबकि दूसरा कहता था कि हमारे गुनाहों की सजा है’. यह रिक्शाचालक आज भी वही पहला भाव व्यक्त कर रहा था.

अहंकार, लालसा और अन्य विकार जब असहाय होते हैं तो या तो संकट को ईश्वर के मत्थे जड़ देते हैं या दुनिया को कुछ समय के लिए कोसते हैं गुनाहों के लिए. लेकिन फिर वही करते हैं जिससे कुछ समय बाद एक और महामारी हमें लीलने को उठ खड़ी होती है.  

लेकिन हमारे कौन से गुनाह किसी ईश्वर को इतना नाराज कर रहे हैं? हमारे गुनाहों की फेहरिस्त काफी लंबी है. हम आज एक किलो चावल पैदा करने के लिए 4000 लीटर पानी खर्च करते हैं, एक किलो बड़े जानवर के मांस के लिए आठ से 16 किलो अनाज और हजारों गैलन पानी व पर्यावरण की क्षति करते हैं. लिहाजा हम दोषी तो हैं ही.

महात्मा गांधी ने कहा था, ‘ईश्वर ने हमारे दांत व आंतें शाकाहार के लिए बनाए हैं लिहाजा हमारा मांसाहार प्रकृति के अनुकूल नहीं है’. हमने एक अर्थव्यवस्था दी जिसमें एक अच्छी कंपनी के सीईओ की एक साल की तनख्वाह एक मजदूर की 957 साल की कमाई से भी ज्यादा होती है. आज से 20 साल पहले भारत के एक प्रतिशत लोगों के पास देश की 37 प्रतिशत संपत्ति थी जो 2005 में 42 प्रतिशत, 2010 में 48 प्रतिशत, 2015 में 59 प्रतिशत और आज लगभग 65 प्रतिशत हो गई है.

जब 670 साल पहले पहला प्लेग आया था तो उस समय भी भयंकर गरीबी के बावजूद ऊपरी वर्ग की आय बढ़ती जा रही थी. 14वीं सदी में यूरोप में एक सामंती व्यवस्था थी और जमींदार और मजदूरों के बीच एक खेती करने वाला होता था. यह बिचौलिया जमींदार को जमीन देने के एवज में अनाज का कुछ हिस्सा देकर मजदूरों का शोषण करता था. जमींदार राजा को खुश रखता था. प्लेग के बाद मात्न कुछ बच गए मजदूरों ने खेतों में काम करना बंद कर दिया. वे जिद पर अड़ गए कि तिल-तिल कर मर जाएंगे लेकिन खेत में मजदूरी नहीं करेंगे.

राजा पर दबाव पड़ा और उसने प्लेग से मौतों के एक साल बाद सन् 1349 में मजदूरों को छह साल पहले की मजदूरी दर पर काम करने का फरमान जारी किया. लेकिन अबकी बार सभी मजदूरों ने न केवल राजा का आदेश ठुकराया बल्कि उनकी मांगें ब्लैकमेलिंग तक बढ़ने लगीं. सामंतवादी व्यवस्था खत्म हुई.

व्यवस्थाएं खत्म होती हैं लेकिन क्या शोषण खत्म होता है? सन् 1918 में स्पेनिश फ्लू ने भारत सहित पूरी दुनिया में ढाई से तीन करोड़ जानें लीं जबकि प्रथम विश्वयुद्ध जारी था. इन मौतों ने दुनिया में ‘वर्चस्व की प्यास’ को कम करना तो दूर, बढ़ा दिया. किसी ने नहीं सोचा कि एक वायरस पूरी दुनिया के लिए संकट बन सकता है. 20 साल भी नहीं बीते कि द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हो गया.

मजदूरों की घर वापसी के वर्तमान दौर में सरकारें इतिहास के पन्नों को एक बार पलटेंगी तो उन्हें समझ में आएगा कि 14वीं सदी के मजदूरों की तरह अबकी बार भी मजदूर अपनी शर्तो पर वापस आएगा क्योंकि उसने मौत को करीब से- क्वारंटाइन में भी और 1700 किलोमीटर लंबी सड़क पर भी और अपने गांव में भी देख लिया है. अब उसे डर नहीं लगता.

Web Title: N. K. Singh blog: Now production in the world will be on the conditions of the workers

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