ब्लॉग: कांग्रेस के रायपुर अधिवेशन से निकलते संदेश भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत!
By राजेश बादल | Published: February 28, 2023 12:07 PM2023-02-28T12:07:59+5:302023-02-28T12:09:27+5:30
रायपुर में हुए कांग्रेस के अधिवेशन का सबसे महत्वपूर्ण सकारात्मक संदेश पार्टी अध्यक्ष का यह ऐलान रहा कि पार्टी समान विचारधारा वाले राजनीतिक दलों के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन कर सकती है.
भारतीय लोकतंत्र के लिए यह शुभ संकेत है. पक्ष के मुकाबले प्रतिपक्ष भी अब अनमने और अलसाए अंदाज में नजर नहीं आ रहा है. पिछले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की विराट जीत ने कमोबेश सारे विपक्षी दलों को ऐसा झटका दिया था कि कुछ समय तक वे उससे उबर ही नहीं पाए. जम्हूरियत में जनादेश का सम्मान होता है. दशकों तक देश ने सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की नेहरू युग वाली लगातार सत्ता देखी. फिर इंदिरा गांधी जैसी चक्रवर्ती नेत्री का पराभव देखा. राजीव गांधी की विराट ऐतिहासिक जीत का स्वाद चखा. गठबंधन की हुकूमतें आते-जाते देखीं. पहली गैर कांग्रेसी अटल सत्ता देखी और उसके बाद दस-दस बरस तक कांग्रेस तथा भाजपा की सरकारों का कामकाज अवाम के सामने है.
पचहत्तर बरस के इस लोकतांत्रिक सफर पर यकीनन संतोष किया जा सकता है. खासतौर पर उन देशों की तुलना में, जिन्होंने भारत के करीब-करीब साथ-साथ आजादी की हवा में सांस ली थी. उन राष्ट्रों में गणतंत्र के सरोकार और मूल्यों की स्थिति देखें तो कोई बहुत अच्छी तस्वीर नहीं उभरती. शायद वे वक्त के साथ अपने आप को नहीं बदल सके.
भारतीय लोकतंत्र ने अपने ढांचे में समय की मांग को देखते हुए गठबंधन सरकारों के प्रयोग किए. यद्यपि वे अपने आप में पूरी तरह कामयाब नहीं रहे और भारत को उसके कारण कई बार बढ़ते कदम पीछे भी खींचने पड़े. लेकिन, उससे लोकतंत्र की सेहत पर कोई खास असर नहीं पड़ा. हम देखते हैं कि गठबंधन सरकारों अथवा मोर्चों की सत्ता तो बनी रहती है. मगर, उसमें शामिल छोटे-बड़े दलों के अपने हितों की रक्षा भी मजबूरी बन जाती है. इस वजह से मुल्क की प्रगति की रफ्तार कुछ ठहर सी जाती है. पार्टियों के अपने स्वार्थ ऊपर आ जाते हैं, देश हाशिये पर चला जाता है. लोकतंत्र को बचाए-बनाए रखने के लिए आप इसे रोक नहीं सकते. यही हिंदुस्तान की विशेषता है.
दूसरी बात यह भी महत्वपूर्ण है कि किसी पार्टी को मतदाता भीमकाय जनादेश दे दे तो उसके अधिनायकवादी रास्ते पर चल पड़ने का खतरा बढ़ जाता है. इसी कारण कहा जाता है कि पक्ष और प्रतिपक्ष के बीच अधिक फासला नहीं होना चाहिए. मजबूत विपक्ष ही सत्ताधारी दल पर अंकुश लगा सकता है. इस नजरिये से कई राजनीतिक पार्टियां विपक्षी एकता की बातें सियासी मंचों पर करने लगी हैं. कांग्रेस पिछले आम चुनाव के बाद अत्यंत दुर्बल और दीनहीन आकार में आ गई थी. भारत जोड़ो यात्रा, मल्लिकार्जुन खड़गे का पार्टी संविधान के मुताबिक अध्यक्ष चुना जाना और रायपुर अधिवेशन निश्चित रूप से कांग्रेस के लिए प्राणवायु का काम करेगा.
रायपुर अधिवेशन का सबसे महत्वपूर्ण सकारात्मक संदेश पार्टी अध्यक्ष का यह ऐलान है कि कांग्रेस समान विचारधारा वाले राजनीतिक दलों के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन कर सकती है. वैचारिक आधार पर ध्रुवीकरण से लोकतंत्र धड़कता है. जब गठबंधन का आधार वैचारिक नहीं होता तो उसमें छोटी पार्टियों की निजी दिलचस्पियां जन्म ले लेती हैं. व्यवस्था में भ्रष्टाचार का यह भी एक कारण है.
कांग्रेस ने अपने 1998 के पचमढ़ी चिंतन शिविर में एकला चलो रे की नीति अख्तियार की थी. उसका अपेक्षित लाभ नहीं हुआ था. उसमें सोनिया गांधी ने पार्टी की कमान संभाली थी. इसके बाद 2003 में शिमला के चिंतन शिविर में तय किया गया कि वैचारिक समानता वाली पार्टियों से तालमेल किया जाएगा. इस नीति का लाभ हुआ और फिर पार्टी ने दस साल तक सरकार चलाई. रायपुर घोषणा भी विपक्ष को एक मंच पर लाने वाला कदम माना जा सकता है. इसका फायदा भारत के लोकतंत्र को मिलेगा.
इस अधिवेशन का दूसरा संकेत यह है कि पार्टी ने पहली बार संगठन में पचास फीसदी आरक्षण देने की बात कही है. हालांकि इस संबंध में घोषणा तो पहले ही हो चुकी थी, मगर पार्टी संविधान में परिवर्तन जरूरी था. पार्टी का मूल संविधान असल में भारतीय संविधान की मूल भावना का ही एक तरह से पालन करता था. उसमें सियासी दल की अपनी संगठनात्मक क्रिया विधि और आवश्यकताओं को स्थान दिया गया था. लेकिन जैसे-जैसे भारतीय राजनीति में जातिगत समीकरण बढ़ते गए, वैसे-वैसे नए-नए छोटे और प्रादेशिक दल पनपने लगे.
बताने की जरूरत नहीं कि नब्बे के दशक में जब बहुजन समाज पार्टी, यादव बाहुल्य समाजवादी पार्टी और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी जैसी आदिवासी पार्टियां अपने-अपने मतदाताओं के द्वीप पैदा करने लगीं तो नागरिकों के मन में भी उनके प्रति वही भाव उपजने लगा. इन छोटी पार्टियों ने कांग्रेस के ही मूल वोट बैंक पर आक्रमण बोला. कांग्रेस से आदिवासी वोट छिटके, ओबीसी वोट बैंक अलग हो गया और दलितों ने भी किनारा कर लिया. इसके बाद कांग्रेस कभी इन वर्गों में घुसपैठ नहीं कर पाई. यह एक तरह से पार्टी की संगठनात्मक कमजोरी बताई जाने लगी.
कांग्रेस के संविधान में इस आरक्षण से सामाजिक प्रतिनिधित्व में आई कथित विसंगति को दूर करने का अवसर मिलेगा. कांग्रेस ने इस निर्णय पर यदि ढंग से अमल किया तो एक बार फिर स्थानीय स्तर पर इन वर्गों का छिटका हुआ वोट बैंक जुड़ सकता है. जाहिर है अगले आम चुनाव में इसका लाभ मिल सकता है. यह बात अलग है कि जो दल कांग्रेस का वोट बैंक लेकर छिटक गए थे, वे शायद विपक्षी एकता की पहल के नाम पर कांग्रेस के साथ नहीं आएं क्योंकि उनका अपना वोट बैंक खिसक सकता है.