Mahakumbh 2025: प्राचीन और आधुनिक का संगम?, आस्था, मुक्ति और सांस्कृतिक एकता का केंद्र
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: March 5, 2025 05:11 IST2025-03-05T05:11:40+5:302025-03-05T05:11:40+5:30
Mahakumbh 2025: हिंदुओं का, हिंदुओं के लिए और हिंदुओं द्वारा एक ऐसा त्यौहार, जो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का प्रतीक है. दुनिया में सर्वाधिक लोगों का एक ही स्थान पर एकत्र होना एक चमत्कार जैसा था.

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प्रभु चावला
मिथ आस्था का आधार है. पिछले हफ्ते खत्म हुए 45 दिनों के महाकुंभ में प्रयागराज आस्था, मुक्ति और सांस्कृतिक एकता का केंद्र रहा. देशभर से और बाहर से 66 करोड़ से ज्यादा हिंदू इस आध्यात्मिक शहर के रेतीले तटों पर पवित्र स्नान के लिए एकत्र हुए. पौराणिक युग में पवित्र रेत पर गिरी अमृत की बूंदों ने इस साल के महाकुंभ को भारत का ‘आजादी का अमृत काल’ बना दिया- हिंदुओं का, हिंदुओं के लिए और हिंदुओं द्वारा एक ऐसा त्यौहार, जो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का प्रतीक है. दुनिया में सर्वाधिक लोगों का एक ही स्थान पर एकत्र होना एक चमत्कार जैसा था.
जो अपनी सांस्कृतिक अनुकूलता, विश्वास और उद्देश्य की संगति को व्यक्त करने के लिए एकत्र हुए थे. महाकुंभ, जो हर 144 साल में एक बार आता है, की जड़ें हिंदू पौराणिक कथाओं में हैं और यह नक्षत्रों द्वारा निर्धारित होता है. यह आस्था, राजनीति और आर्थिक शक्ति के एक उल्लेखनीय संगम को दर्शाता है.
66 करोड़ तीर्थयात्रियों - ऐसी संख्या जो अमेरिका की आबादी से दोगुनी है - ने भारत के वैश्विक कद को बढ़ाया. पूर्ण कुंभ के लिए 12 साल का चक्र चार स्थलों - प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन - के बीच ज्योतिषीय संयोजनों के आधार पर घूमता है. इसका धार्मिक महत्व शुभ समय पर अनुष्ठान स्नान के माध्यम से ‘मोक्ष’ या पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति के विश्वास में निहित है.
इस धार्मिक महत्व के साथ, 2025 का आयोजन भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतिनिधित्व करता है. लेकिन इसका राजनीतिक संदेश भी था. यह उत्सव पहचान के विस्तार का विज्ञापन था, ऐसे व्यक्तियों का जमावड़ा था जो अपनी उपस्थिति और सनातन धर्म से जुड़ाव के कारण विशिष्ट बनना चाहते थे.
सिनेमा, कला और व्यापार की दुनिया के अमीर और मशहूर लोगों ने सोशल मीडिया पर अपनी तस्वीरें पोस्ट करके धर्म के ओलंपिक में भाग लिया. महाकुंभ एक उदार कामधेनु बन गया. राज्य और केंद्र ने 4,000 हेक्टेयर में फैले बुनियादी ढांचे, 12 किलोमीटर के घाटों, 360 विशेष ट्रेनों और एआई-संचालित निगरानी में 7,000 करोड़ रुपए से अधिक का निवेश किया.
यूपी सरकार ने दावा किया कि राज्य को 2 लाख करोड़ रुपए से अधिक का अतिरिक्त राजस्व मिला. स्थानीय व्यवसाय जैसे कि वेंडर से लेकर परिवहन संचालकों तक का कारोबार फला-फूला. अंतरराष्ट्रीय तीर्थयात्रियों के आने से पर्यटन में उछाल आया. ग्रह के चक्कर लगा रहे हजारों उपग्रहों ने ऊपर से इस आयोजन की विशालता को कैद किया और पश्चिमी उदारवादियों को चकित कर दिया.
राजनीतिक विवाद भी हुए. कई विपक्षी नेता या तो अनुपस्थित थे या योगी की व्यवस्थाओं की कड़ी आलोचना कर रहे थे. अखिलेश यादव ने योगी आदित्यनाथ पर उपस्थिति के आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने के लिए निशाना साधा. भगदड़ के बाद ममता बनर्जी की ‘मृत्यु कुंभ’ टिप्पणी ने भाजपा को नाराज कर दिया, जिसने इंडिया गठबंधन पर हिंदू धर्म का मजाक उड़ाने का आरोप लगाया.
राहुल गांधी सहित कांग्रेस के नेताओं ने इसमें शामिल होने से परहेज किया, जो ध्रुवीकृत चुनावी परिदृश्य में खुले धार्मिक प्रतीकवाद से उनकी रणनीतिक वापसी को दर्शाता है. महाकुंभ भविष्य के चुनावों से पहले राजनीतिक स्थिति के लिए एक लिटमस टेस्ट बन गया. इसने सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और धार्मिक पर्यटन के रूप में एक और बेहद लाभदायक उद्यम भी बनाया.
कुंभ मेला हजारों साल पुराना है. इसकी जड़ें पौराणिक कथाओं में हैं, इतिहास ने इसे आकार दिया है और 200 साल के औपनिवेशिक शासन के दौरान ब्रिटिशों सहित विभिन्न शासक शक्तियों ने इसे प्रभावित किया है. इसका आकार, आर्थिक क्षमता और कभी-कभी होने वाली हिंसा, विशेष रूप से सशस्त्र तपस्वी समूहों के बीच, ब्रिटिश प्रशासकों को परेशान करती थी.
कुंभ मेले के साथ ब्रिटिश मुठभेड़ का एक प्रारंभिक दस्तावेज 1796 का है, जब कैप्टन थॉमस हार्डविक ने हरिद्वार में एक हिंसक झड़प की सूचना दी थी जिसमें 500 लोगों की जान चली गई थी, जिसके बाद व्यवस्था बहाल करने के लिए तोपों से लैस एक ब्रिटिश इकाई को तैनात किया गया था. 19वीं सदी की शुरुआत में उपनिवेशवादियों ने इस मेले को एक चुनौती और अवसर दोनों के रूप में देखा.
1857 के भारतीय विद्रोह के बाद जब ब्रिटिश नियंत्रण मजबूत हुआ, तो इस उत्सव का प्रबंधन औपचारिक हो गया. विद्रोह ने एक महत्वपूर्ण मोड़ को चिह्नित किया - तीर्थयात्रियों से मिलने वाले दान पर निर्भर रहने वाले प्रयागवाल ब्राह्मण पुजारियों ने विद्रोह का समर्थन किया था और अंग्रेजों द्वारा उनका उत्पीड़न किया गया था. इलाहाबाद संघर्ष का एक प्रमुख केंद्र बन गया.
1858 का कुंभ मेला ऐसी ही गड़बड़ियों के कारण नहीं हो पाया था. हालांकि इस पर कोई स्पष्ट प्रतिबंध नहीं था, लेकिन अशांति और उसके बाद की कार्रवाई के कारण लोगों का इकट्ठा होना व्यावहारिक रूप से असंभव हो गया था. भारतीयों की किसी भी बड़ी सभा को संदेह की दृष्टि से देखा जाता था क्योंकि इससे आगे चलकर असंतोष की संभावना बढ़ जाती थी.
1870 में प्रत्यक्ष ब्रिटिश पर्यवेक्षण के तहत पहले कुंभ में, साम्राज्य ने अपनी आर्थिक क्षमता को अधिकतम करने के लिए तीर्थयात्रियों पर कर लगाया था. इससे शुरू में काफी राजस्व प्राप्त हुआ, लेकिन अंततः प्रतिरोध का सामना करना पड़ा. 20वीं शताब्दी के दौरान, कुंभ उपनिवेशवाद विरोधी भावना का क्षेत्र बन गया.
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, 1942 में, ब्रिटिश सरकार ने संभावित जापानी बमबारी की अफवाहों के कारण कुंभ के लिए इलाहाबाद के लिए रेलवे टिकटों की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया. इसने प्रभावी रूप से उपस्थिति को कम कर दिया. भारत की स्वतंत्रता के बाद, राज्य सरकारों ने मेलों के आयोजन की जिम्मेदारी संभाली.
1954 में इलाहाबाद कुंभ स्वतंत्रता के बाद का पहला बड़ा आयोजन था, जिसमें औपनिवेशिक ढांचे से प्रेरित आधुनिक भीड़ प्रबंधन तकनीकों का इस्तेमाल करने के बावजूद, दु:खद भगदड़ में 800 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी. बाद के कुंभों में इस ढांचे में सुधार किया गया. आज के कुंभ मेले - जैसे कि 2013 का आयोजन जिसमें 12 करोड़ लोग शामिल हुए, या 2025 का मेला जिसमें पांच गुना से ज्यादा लोग शामिल हुए - पारंपरिक आध्यात्मिकता और आधुनिक व्यवस्था का मिश्रण दर्शाते हैं.
भारतीयों के लिए कुंभ मेला आध्यात्मिकता का शिखर है. यह जुलूसों, प्रवचनों और पूज्य गुरुओं के साथ संवाद के माध्यम से भारत की विरासत को प्रदर्शित करने का एक सांस्कृतिक कैनवास भी है. अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण और वाराणसी के पुनर्विकास के बाद, 2025 के महाकुंभ के सफल समापन ने देश की सांस्कृतिक एकरूपता के जीवंत प्रतीक के रूप में प्राचीन और आधुनिक को जोड़ा है.