विजय दर्डा का ब्लॉग: न्यूज के नाम पर लड़ा रहे नफरत के मुर्गे

By विजय दर्डा | Published: January 16, 2023 07:32 AM2023-01-16T07:32:13+5:302023-01-16T07:33:36+5:30

सवाल है कि आज तक कितनों को हटाया गया? पत्रकारिता की स्थापित मान्यता है कि अखबार में ऐसी कोई बात न छपे और टीवी के पर्दे से ऐसी कोई आवाज न आए जिससे किसी की भावना आहत होती हो! दुर्भाग्य की बात है कि टीवी चैनलों से यह स्थापित मान्यता करीब-करीब समाप्त हो चुकी है।

lots of people filled with hatred fighting in the name of news | विजय दर्डा का ब्लॉग: न्यूज के नाम पर लड़ा रहे नफरत के मुर्गे

विजय दर्डा का ब्लॉग: न्यूज के नाम पर लड़ा रहे नफरत के मुर्गे

Highlightsकई टीवी एंकर तो ऐसे हैं जो खुद एक पार्टी की तरह नजर आते हैं। उनके खुद के भीतर ही संतुलन नजर नहीं आता है तो वे नफरत की आग में झुलस रहे वक्ताओं को क्या खाक संतुलित रखेंगे?बहस को मॉडरेट करने वाला एंकर कई बार इतना उतावला हो जाता है कि वह बहस में शामिल मेहमान को बोलने भी नहीं देता। 

पिछले सप्ताह देश की सर्वोच्च अदालत ने न्यूज चैनलों को लेकर बहुत गंभीर टिप्पणी की। न्यायमूर्ति के.एम. जोसेफ और न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि नफरत फैलाने वाले भाषण बड़ा खतरा बन चुके हैं और इसे रोकना होगा। यदि कोई एंकर नफरत फैलाने वाले प्रचार की समस्या का हिस्सा बनता है तो उसे प्रसारण से क्यों नहीं हटाया जा सकता? टीआरपी के कारण समाचार चैनलों में होड़ लगी हुई है और समाज में विभाजन की समस्या पैदा हो रही है। सर्वोच्च अदालत की टिप्पणी निश्चय ही बहुत मौजूं है। मैं पिछले पचास सालों से पत्रकारिता के पेशे में हूं। 

मैंने पत्रकारिता के बदलते हुए दौर को बहुत करीब और गहराई से देखा है। तकनीक को बदलते देखा है। नए माध्यमों का उद्भव देखा है। पहले केवल प्रिंट था, फिर टीवी आया और अब इंटरनेट की रफ्तार पर समाचारों को दौड़ते हुए देख रहा हूं। तकनीक का बदलना स्वाभाविक है और वक्त के साथ बदलाव होना भी चाहिए लेकिन पाठक हो या श्रोता उसका भरोसा पत्रकारिता की पवित्रता को लेकर है। चाहे कुछ भी हो जाए, यह भरोसा टूटना नहीं चाहिए। मुझे इस बात पर गर्व है कि लोकमत समूह ने पत्रकारिता की इस पवित्रता को कायम रखने की हरसंभव कोशिश की है और सफल भी रहा है। 
भारत का प्रिंट मीडिया काफी हद तक परिपक्व है और छपे हुए शब्द चूंकि हमारे सामने होते हैं इसलिए उनकी विश्वसनीयता पर संदेह पैदा नहीं होता। इसके ठीक विपरीत टीवी के पर्दे पर अभी क्या चल रहा है और अगले पल क्या चलेगा इसकी कोई गारंटी नहीं होती। मैं कई बार देखता हूं कि किसी न्यूज की एक पंक्ति सामने आई और कुछ ही मिनटों में गायब हो गई! ऐसा न्यूज परोसने के नाम पर मची होड़ के कारण होता है। जिंदगी के हर क्षेत्र में रफ्तार बहुत जरूरी है लेकिन क्या रफ्तार ही सबकुछ है? यदि रफ्तार बेलगाम हो जाए तो? स्वाभाविक है कि दुर्घटना होगी!

...तो टीवी चैनलों में यही हो रहा है। मैं यह नहीं कहता कि सभी चैनलों में ऐसा हो रहा है लेकिन जब तालाब की बहुत सारी मछलियां सड़ जाएं तो स्वस्थ मछलियों की दुर्दशा का अंदाजा आप लगा सकते हैं। हालात ऐसे ही हैं! पत्रकारिता साफ तौर पर दो भागों में बंटी नजर आ रही है। एक उत्तरी ध्रुव पर है तो दूसरा दक्षिणी ध्रुव पर! अपने ध्रुव के हिसाब से वे न्यूज परोसते हैं, बहस कराते हैं लेकिन सवाल यह है कि बहस के लिए टीवी के स्क्रीन पर लाते किसे हैं? जिसका विषय से कोई लेना-देना नहीं होता है वह ज्ञान बांट रहा होता है। 

वास्तव में विषय के विशेषज्ञों को न टीवी चैनल वाले तलाशते हैं और मिल भी जाए तो पूछते नहीं हैं क्योंकि उन्हें तो वही चाहिए जिसका न्यूसेंस वैल्यू हो! यदि आप भारतीय टीवी का इतिहास पलटकर देखें तो बहस की शुरुआत का लक्ष्य यही था कि पाठकों को विषय के बारे में गंभीर जानकारी मिले लेकिन अब ज्यादातर बहस को सुनकर और देखकर यही लगता है कि मुर्गे लड़ाए जा रहे हैं। बहस को मॉडरेट करने वाला एंकर कई बार इतना उतावला हो जाता है कि वह बहस में शामिल मेहमान को बोलने भी नहीं देता। 

वो जो मेहमान के मुंह से कहलवाना चाहता है, उसी के आसपास बहस को बनाए रखता है। सामान्य विषयों पर तो इस तरह की निरर्थक बहस का कोई परिणाम नहीं होता लेकिन बात जब धार्मिक मान्यताओं की हो तो हालात ठीक नहीं रहते। टीवी चैनल विभिन्न पक्षों के ऐसे लोगों को इकट्ठा कर लेते हैं जिनके लिए सांप्रदायिक सौहार्द्र नाम की कोई चीज होती ही नहीं है। मुझे नहीं पता कि टीवी की बहस के बाद उनके बीच कैसा संवाद होता है लेकिन टीवी के पर्दे पर तो मुझे लड़ाकू मुर्गे लड़ते नजर आते हैं। एक नेता ने यदि कोई फिजूल और भड़काऊ बात कर दी तो उसे टीवी वाले ले उड़ते हैं। 

प्रिंट मीडिया में हम उस भड़काऊ बात को भी इस तरह छापते हैं कि कोई उत्तेजना न पैदा हो लेकिन टीवी के पर्दे पर भड़काऊ भाषण का वह टुकड़ा बार-बार चलाया जाता है ताकि उत्तेजना फैले। उत्तेजना फैलाने की भी होड़ लग जाती है। हर चैनल चाहता है कि दर्शक ज्यादा से ज्यादा उसके चैनल पर आएं और उसे टीआरपी ज्यादा मिले। यह खतरनाक प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है! यह कहने में कोई संकोच नहीं कि एंकर आग में घी का काम करते हैं। सर्वोच्च अदालत ने बिल्कुल सही कहा है कि एंकर जब नफरत फैलाने वाले प्रचार का हिस्सा हो जाए तो उसे क्यों न हटाया जाए? 

सवाल है कि आज तक कितनों को हटाया गया? पत्रकारिता की स्थापित मान्यता है कि अखबार में ऐसी कोई बात न छपे और टीवी के पर्दे से ऐसी कोई आवाज न आए जिससे किसी की भावना आहत होती हो! दुर्भाग्य की बात है कि टीवी चैनलों से यह स्थापित मान्यता करीब-करीब समाप्त हो चुकी है। कई टीवी एंकर तो ऐसे हैं जो खुद एक पार्टी की तरह नजर आते हैं। 

उनके खुद के भीतर ही संतुलन नजर नहीं आता है तो वे नफरत की आग में झुलस रहे वक्ताओं को क्या खाक संतुलित रखेंगे? कई बार तो किसी बहस को सुनते हुए कोफ्त होती है कि इनके ज्ञान का स्तर कितना नीचा है और क्या टीआरपी देश हित से ज्यादा बड़ी है? यह ध्यान रखना बहुत जरूरी है कि हमारा लोकतंत्र परिपक्व हो रहा है तो हमारे टीवी प्रसारण को भी परिपक्व होना होगा। 

देश के ताने-बाने को क्षति पहुंचाने वाले विषयों से बचना चाहिए। हमारे पास कुछ चैनल हैं जो गंभीरता बरतते हैं लेकिन मैं यह भी कहना चाहूंगा कि मीडिया का ध्रुवों में बंटना भी ठीक नहीं है। हमारी राह सीधी होनी चाहिए। हमारा नजरिया सीधा होना चाहिए। टीवी चैनलों को लेकर नियमन का अधिकार हम सरकार को भी नहीं दे सकते क्योंकि उसको लेकर भी आशंकाएं हो सकती हैं। इसलिए यह बहुत जरूरी है कि टीवी चैनल स्वयं को नियंत्रित करें। बहस ऐसी हो कि देश सुदृढ़ हो। नफरत की आग से बचना बहुत जरूरी है।

Web Title: lots of people filled with hatred fighting in the name of news

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