विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉगः लोकतंत्र की मूल भावना को न भूलें जनप्रतिनिधि

By विश्वनाथ सचदेव | Published: December 14, 2019 11:45 AM2019-12-14T11:45:44+5:302019-12-14T11:45:44+5:30

पिछले आम चुनाव में मतदाता ने भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को शानदार समर्थन दिया था. पहले की एनडीए सरकार की उपलब्धियों का भी इसमें निश्चित योगदान रहा होगा और यह भी स्वीकारना होगा कि मतदाता को चुनावी वादे पूरे करने का भरोसा दिलाने में भी भाजपा सफल रही होगी.

lok sabha elections: Do not forget the basic spirit of democracy, voters, bjp, congress, maharashtra polls | विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉगः लोकतंत्र की मूल भावना को न भूलें जनप्रतिनिधि

विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉगः लोकतंत्र की मूल भावना को न भूलें जनप्रतिनिधि

चुनाव जनतंत्न की सफलता की कसौटी भी हैं और मतदाता के विवेक की परीक्षा भी. पिछले सात दशक में जिस तरह हमारे देश में समय पर, और कुल मिलाकर शांतिपूर्ण ढंग से चुनाव होते रहे हैं, सरकारें बनती-बदलती रही हैं,  उस पर हम संतोष भी कर सकते हैं. पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना जरूरी है कि जनतंत्न का मतलब सिर्फ चुनाव ही नहीं होता, जनतंत्न चुनावों से बढ़कर कुछ और भी है. यही ‘कुछ और’ हमारे जनतंत्न को महत्वपूर्ण और सार्थक बनाता है. 

इस ‘कुछ और’ का मतलब मतदाता की जागरूकता और राजनीतिक दलों और नेताओं द्वारा मतदाता को उचित एवं समुचित सम्मान देना है. लेकिन जिस तरह का राजनीतिक माहौल आज देश में बना है, कहना चाहिए बनाया जा रहा है, उसमें दिखाई यह दे रहा है कि या तो हमारे राजनीतिक दल हमारे मतदाता को विवेकहीन मानते हैं, या फिर इतना भोला कि उसे बरगलाया जा सकता है.

पिछले आम चुनाव में मतदाता ने भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को शानदार समर्थन दिया था. पहले की एनडीए सरकार की उपलब्धियों का भी इसमें निश्चित योगदान रहा होगा और यह भी स्वीकारना होगा कि मतदाता को चुनावी वादे पूरे करने का भरोसा दिलाने में भी भाजपा सफल रही होगी. लेकिन इस शानदार विजय के बाद जिस तरह के संयत और गरिमापूर्ण व्यवहार की अपेक्षा मतदाता को थी, उसका अभाव उसे जल्दी ही दिखने लगा. आम चुनावों के बाद हुए राज्यों के चुनावों में सरकारी पक्ष और विपक्ष, दोनों ने मतदाता के प्रति वह सम्मान दिखाना जरूरी नहीं समझा, जिसका मतदाता अधिकारी होता है.

पहले हरियाणा में चुनाव हुए. फिर महाराष्ट्र में हुए. अब झारखंड में हो रहे हैं. और इसके बाद फरवरी के प्रारंभ में ही दिल्ली में चुनाव होंगे. इसी बीच कर्नाटक में हुआ पंद्रह सीटों वाला उपचुनाव भी हमने देखा. क्या हुआ इन चुनावों में? क्या मतदाता ने स्वयं को अधिक ताकतवर होता हुआ अनुभव किया? क्या सत्ता के मोह से हमारे राजनीतिक दल अपने आप को कुछ बचा पाए? क्या मतदाता की भावनाओं का सम्मान हुआ? यदि नहीं, तो हम यह कैसे मान लें कि हमारा जनतंत्न मजबूत हो रहा है?

हरियाणा के चुनावों से शुरू करें. वहां मतदाता ने भाजपा की खट्टर सरकार को स्पष्ट रूप से नकार दिया, पर निर्णायक बहुमत किसी दल को नहीं मिला. दुष्यंत चौटाला के नेतृत्व वाली जननायक जनता पार्टी ने भाजपा का विरोध करते हुए चुनाव लड़ा था, पर रातोंरात वह भाजपा की समर्थक पार्टी बन गई. चुनाव में मतदाता ने भाजपा को समर्थन नहीं दिया था. चौटाला की पार्टी को इसीलिए वोट मिले थे कि वह खट्टर के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार का विकल्प देने की बात कर रही थी. लेकिन मतदाता को अंगूठा दिखाते हुए खट्टर को समर्थन देकर दुष्यंत के दल ने मिली-जुली सरकार बना ली. दुष्यंत के पिता अजय चौटाला को रातोंरात जेल से रिहाई भी मिल गई.  

महाराष्ट्र में भी मतदाता के अपमान और अवहेलना की यही कहानी  दोहराई गई. यहां भाजपा और शिवसेना के गठबंधन को मतदाता ने स्पष्ट बहुमत दिया था. इसी गठबंधन की सरकार बननी चाहिए थी. पर हुआ क्या? किसी भी राजनीतिक दल को मतदाता की राय से जैसे कोई मतलब ही नहीं है. कठोर हैं यह शब्द, पर कहना पड़ता है कि हमारे राजनीतिक दल या तो मतदाता को अपनी जेब में समझते हैं या यह मानते हैं कि मतदाता जाए भाड़ में. मतदाताओं के प्रति राजनेताओं और राजनीतिक दलों का यह रुख कुल मिलाकर जनतांत्रिक मूल्यों और भावनाओं का अपमान ही है. 

मजे की बात यह है कि कुर्सी के इस किस्से में सारे राजनीतिक दल दुहाई मतदाता के हितों की ही देते हैं. हरियाणा और महाराष्ट्र दोनों जगह कहा यही गया कि राज्य की जनता पर फिर से चुनाव का बोझ न पड़े इसलिए यह राजनीतिक समझौते किए गए हैं. इससे पहले कश्मीर में भी भाजपा और महबूबा मुफ्ती की पार्टी ने यही कहकर बेमेल गठबंधन किया था. परिणाम हमारे सामने है.  क्या मतदाता को यह पूछने का अधिकार नहीं है कि उसे मुट्ठी में क्यों समझा जाता है?

कर्नाटक के उपचुनावों की बात भी कर लें. वहां पंद्रह दलबदलुओं को भाजपा ने इस आश्वासन के साथ अपना उम्मीदवार बनाया कि वे जीत गए तो उन्हें मंत्नी बनाया जाएगा. इनमें से बारह दलबदलू भाजपा के टिकट पर चुनाव जीत गए हैं. ये सब दलबदलू कांग्रेस और जेडीएस से भाजपा के पाले में आए हैं. प्रधानमंत्नी ने इस चुनाव परिणाम को कर्नाटक के मतदाता द्वारा कांग्रेस को सबक सिखाना बताया है और यह भी कहा है कि जो भी जनादेश के खिलाफ जाएगा जनता उसे सजा देगी. पूछा जाना चाहिए कि हरियाणा में जनादेश के खिलाफ जाते समय भाजपा को ‘सजा’ का डर क्यों नहीं लगा?

उत्तर यही है कि हमारे राजनीतिक दल मतदाता को बरगलाने लायक मानते हैं. मानते हैं कि मतदाता को प्रलोभन देकर खरीदा जा सकता है. यह धारणा जनतंत्न का अपमान है. और यह स्थिति जनतंत्न की असफलता का संकेत है. भावनात्मक मुद्दे उछालकर सच्चाई को पर्दे में रखने की राजनीति सत्ता तक पहुंचने में मददगार हो सकती है, पर जनतांत्रिक मूल्यों का तकाजा है कि मतदाता को खिलौना न समझा जाए, उसके निर्णय का सम्मान किया जाए. 

वहीं, मतदाता को भी अपने विवेक पर भरोसा करने की आवश्यकता है. क्यों वह सत्ता की भूख को नहीं पहचानता? क्यों वह अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों से पूछता नहीं कि उसकी अवहेलना का अधिकार उन्हें किसने दिया है? यह सबको याद रखना होगा कि स्वतंत्न और सशक्त मतदाता ही जनतंत्न की ताकत होता है, जनतंत्न की सफलता की कसौटी भी.

Web Title: lok sabha elections: Do not forget the basic spirit of democracy, voters, bjp, congress, maharashtra polls

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