एन. के. सिंह का ब्लॉगः संवैधानिक संस्थाओं का सत्ता के प्रति भक्तिभाव

By एनके सिंह | Published: March 29, 2019 08:09 AM2019-03-29T08:09:26+5:302019-03-29T08:09:26+5:30

देश की राजनीति में एक नई परंपरा उभर रही है जो प्रजातंत्न पर जनता के विश्वास को ठेस पहुंचा सकती है. अधिकारी ‘भक्तिभाव’ में आ गए हैं. इसका कारण समझना मुश्किल नहीं है. यह भक्ति उन्हें अचानक राज्यसभा या लोकसभा, और कई मामलों में मंत्नी पद या राज्यपाल पद तक पहुंचाने का पासपोर्ट साबित हो रही है. 

lok sabha election: constitution institutions election commission niti aayog | एन. के. सिंह का ब्लॉगः संवैधानिक संस्थाओं का सत्ता के प्रति भक्तिभाव

एन. के. सिंह का ब्लॉगः संवैधानिक संस्थाओं का सत्ता के प्रति भक्तिभाव

चुनाव आयोग ने नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार से जवाब मांगा है. उपाध्यक्ष महोदय ने सार्वजनिक बयान में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के ‘न्याय’ (न्यूनतम आय योजना) कार्यक्रम, जिसके तहत सालाना 72000 रुपए गरीबों को देने का वादा किया गया है, पर प्रतिक्रिया देते हुआ कहा था कि ‘इस पार्टी की पुरानी आदत है. यह चुनाव जीतने के लिए कुछ भी कर सकती है.’ नीति आयोग के उपाध्यक्ष का पद सरकारी पद होता है और वैसे भी देश में पिछले 10 मार्च से आचार संहिता लागू है. 

हाल ही में राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह ने एक सार्वजनिक भाषण में अपने गृह नगर में कहा, ‘हम सभी भाजपा के कार्यकर्ता हैं और इस नाते से कहेंगे कि पार्टी को जिताएं और हम सभी चाहेंगे कि मोदी एक बार फिर से प्रधानमंत्नी बनें. नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्नी बनना देश और समाज के लिए आवश्यक है.’ भारतीय संविधान में दो ही पद हैं- राष्ट्रपति और राज्यपाल- जिस पर बैठने के पहले संविधान के संरक्षण की शपथ लेनी होती है, जबकि अन्य - प्रधानमंत्नी और मंत्नी से लेकर भारत के प्रधान न्यायाधीश तक सभी संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेते हैं. सार्वजनिक क्षेत्न के एयर इंडिया ने अपने बोर्डिग पास पर प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी की तस्वीर लगाई. पंजाब के एक पूर्व पुलिस महानिदेशक ने नई दिल्ली एयरपोर्ट से पास का फोटो ट्वीट किया और लिखा कि यह हैरानी की बात है. चुनाव आयोग ने इसे भी नोटिस भेजा है. एयर इंडिया के अधिकारियों ने कहा है कि वे इन बोर्डिग पासों को वापस लेंगे.  
  
देश की राजनीति में एक नई परंपरा उभर रही है जो प्रजातंत्न पर जनता के विश्वास को ठेस पहुंचा सकती है. अधिकारी ‘भक्तिभाव’ में आ गए हैं. इसका कारण समझना मुश्किल नहीं है. यह भक्ति उन्हें अचानक राज्यसभा या लोकसभा, और कई मामलों में मंत्नी पद या राज्यपाल पद तक पहुंचाने का पासपोर्ट साबित हो रही है. 

राज्यपाल को अपने बेटे के लिए टिकट चाहिए तो ‘भक्ति’ करने में कोई दोष नहीं नजर आता. दरअसल उपरोक्त कृत्यों पर सबसे पहले इन्हें पद से हटाना चाहिए और फिर सजा की प्रक्रि या शुरू करनी चाहिए ताकि भविष्य में कोई भी पद पर रहते हुए ‘भक्ति भाव’ में न आए. लेकिन भारत में आज चुनाव आयोग ने भले ही स्पष्टीकरण मांगा हो, दो महीने बाद कुछ भी याद नहीं रहेगा. हमारी संस्थाएं खुद ही अपनी गरिमा गिराने से परहेज नहीं करतीं. 

चुनाव आयोग भी इसमें पीछे नहीं है. एक उदाहरण देखें. आचार संहिता लागू होने के बाद ओडिशा के मुख्यमंत्नी को आदेश आया कि ‘कालिया’ (कृषक असिस्टेंस फॉर लाइवलीहुड एंड इनकम ऑगमेंटेशन) योजना में भुगतान रोक दिया जाए. यह योजना पूरे ओडिशा में बेहद लोकप्रिय और प्रभावी है. मुख्यमंत्नी और उनकी बीजू जनता दल ने सवाल किया, ‘अगर  वर्षो से चल रही योजना में भुगतान पर आचार संहिता के अनुसार रोक है तो (चुनाव के मात्न चंद दिनों पहले घोषित) प्रधानमंत्नी किसान सम्मान निधि के तहत किस्त देना कैसे जारी है.’ अभी एक दिन पहले केंद्र सरकार ने चुनाव आयोग से किसानों के लिए दूसरी किस्त जारी करने की अनुमति मांगी है.     

इस देश में अभिजात्य वर्ग और खासकर सत्ताधारी दलों को शासन में रहते हुए कानून का डर इसलिए नहीं लगता क्योंकि वे जानते हैं कि हमारे कानून की प्रक्रि या इतनी लंबी है कि उनका कुछ नहीं होगा और अगर होगा भी तो जब फिर सरकार आएगी तो सब कुछ रफादफा हो जाएगा. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्नी योगी आदित्यनाथ  ने अपने ऊपर से दंगे भड़काने के मुकदमों को अभी कुछ माह पहले उठवा लिया और इसके पहले तमाम दंगों के आरोप में फंसे मंत्नी, सांसद व विधायकों के मामले भी खत्म कर दिए गए. 

जाने माने केंद्रीय सतर्कता आयुक्त एन. विट्ठल ने अपने कार्यकाल में 94 बड़े अधिकारियों को भ्रष्टाचार के मामलों में दस्तावेजों के पुख्ता आधार पर लिप्त पाया और उनके नाम सार्वजनिक करने के लिए अपने कार्यालय में ही वेबसाइट पर डाल दिया. लेकिन आज 19 साल बाद भी इनमें से किसी भी अधिकारी पर कोई मुकदमा नहीं चला. जाहिर है ये अधिकारी तत्कालीन सत्ताधारियों के प्रति ‘भक्ति-भाव’ में आ गए होंगे. और कोई ताज्जुब नहीं इनमें से कुछ संसद में कानून बना रहे हों या राज्यपाल पद की शपथ लेकर ‘संविधान की रक्षा’ कर रहे हों. 

सत्ताधारी वर्ग कानून को अपनी चेरी मानता रहा है. अफसर रिटायरमेंट के बाद फिर से कुछ साल राजसत्ता के प्रासाद में बने रहने के लिए राजनीतिक आकाओं के लिए हर स्याह-सफेद करने को तत्पर रहता है. वर्ना कैसे नीति आयोग का उपाध्यक्ष आचार संहिता की इतनी अनदेखी करता. इस पद पर बैठे व्यक्ति से अपेक्षा होती है कि वह हर राज्य की सरकारों को समभाव से देखे और राजनीति-शून्य भाव रखे. चुनाव आयोग से भी यही अपेक्षा रहती है. राज्यपाल को भी पुत्न-मोह से ऊपर उठ कर संविधान की रक्षा करनी होगी. क्या आज के भारत में यह सब कुछ संभव है?

Web Title: lok sabha election: constitution institutions election commission niti aayog

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