गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉगः कहत कबीर सुनो भाई साधो!

By गिरीश्वर मिश्र | Published: June 5, 2020 01:06 PM2020-06-05T13:06:24+5:302020-06-05T13:06:24+5:30

लोक भाषा में चिंतन किया जा सकता है और गहरा चिंतन किया जा सकता है, यह दिखाना बड़ी मार्के की बात है. यह एक ‘पैराडाइम शिफ्ट’ है, एक नए ढंग का प्रारूप है जिसमें चिंतन और विचार के लिए, जन भाषा का उपयोग किया गया. इसमें विचारक की जो भाषा है और जिनके बारे में विचार हो रहा है उनके बीच कोई भेद या पर्दा नहीं है.

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फाइल फोटो

कबीर के माध्यम से हम अपने जीवन और समय को कुछ ठीक ढंग से पहचान सकते हैं. कबीर हमारे लिए इसलिए भी प्रासंगिक हैं कि वे समग्र समाज को देखते हैं. कोई ऐसी जाति नहीं होगी जिसका उल्लेख उन्होंने न किया हो, कोई ऐसा धर्म नहीं होगा जिसका उल्लेख न हो अर्थात जितनी भारत की विविधता है, वह सारी की सारी आप को कबीर में दिखाई देती है. कबीर एक खास तरह की व्यापक और खुली जीवन दृष्टि प्रतिपादित करते हैं. 

बहुत तार्किक तरीका है उनका, विश्लेषण करते हैं, तथ्यों को बताते हैं, तब कहते हैं कि यह बात है. वह यह भी बताते हैं कि रास्ता क्या है. वह यह भी दिखलाते हैं कि कहीं न कहीं तमाम बाह्य आडंबरों को हरा करके एक निखालिस मनुष्यता है, यदि उस मनुष्यता को अपनाया जाए तो हम आत्मानुभूति कर सकते हैं. वह आत्मानुभूति ऐसी होगी जो भेदभाव नहीं करेगी. वह सबके निकट होगी. लोक जीवन की भाषा को अपनाकर यह करना एक बहुत बड़ी क्रांति थी. वह खेत में काम करने वाले की साधारण गृहस्थ की भाषा है, वह पंडित की भाषा नहीं है. मगर पंडित की भाषा संस्कृत में जो कुछ हो रहा था वह सब वे जान रहे थे. 

लोक भाषा में चिंतन किया जा सकता है और गहरा चिंतन किया जा सकता है, यह दिखाना बड़ी मार्के की बात है. यह एक ‘पैराडाइम शिफ्ट’ है, एक नए ढंग का प्रारूप है जिसमें चिंतन और विचार के लिए, जन भाषा का उपयोग किया गया. इसमें विचारक की जो भाषा है और जिनके बारे में विचार हो रहा है उनके बीच कोई भेद या पर्दा नहीं है. आज तो हम विचार अंग्रेजी में करते हैं और लगभग अस्सी-नब्बे प्रतिशत जनता जो है, वह अंग्रेजी नहीं जानती है. केवल दस-पंद्रह प्रतिशत लोगों ने ही ज्ञान पर कब्जा किया हुआ है.

भक्तिकाल में ज्ञान के अभिजात और जनता रूपों का भेद दूर किया गया और जन भाषा में विचार को आधार बनाया गया. यह बहुत भारी परिवर्तन की बात थी. कबीर  की ही हिम्मत थी जो कह सके : ‘‘संस्कृत तो कूप जल है, भाषा बहता नीर.’’ लोक भाषा में निरंतर प्रवाह होता है, लोग उसमें जीते हैं, अनुभव करते हैं. कबीर की बात जीवन से उभरी. यह कोरे आदर्श की बात नहीं है. कबीर यह भी कहते हैं कि जो विचार नहीं करता है, उसके लिए तो मस्ती ही मस्ती है- ‘‘सुखिया सब संसार है खाए और सोवै, दुखिया दास कबीर है जागे और रोवै.’’  

विचार करने की कुछ कीमत तो आप को अदा करनी ही पड़ेगी, तकलीफ तो उठानी होगी. लगता है वह घर से बाहर निकल कर तमाम लोगों से बात करते थे, बताते थे देखो यह गलत है, ऐसा है, ऐसा है और फिर स्वयं अपनी साधना में डूबे रहते थे. आत्म विचार की उनकी यात्ना निरंतर चलती रहती है. वह अकेले भी हैं और साथ भी. वह समाज की ओर अभिमुख भी हैं और स्वयंचेता भी. उनके विचारों में वे बहुत सारी उक्तियां मिलती हैं, जिनसे उनके स्वभाव का अंदाज  लग  सकता है. उनकी बहुत प्रसिद्ध उक्ति है- ‘‘हद चले सो मानवा, बेहद चले सो साधु. हद बेहद दोऊ चले, ताकर मता अगाध.’’ 

इसे आप जिस रूप में भी लें, हद और बेहद स्थापित है, जो परंपरा है, जो परंपरा के परे है, जो सीमित है और जो व्यापक है. दोनों को समझना जरूरी है. उसे ग्रहण करना आवश्यक है और उसका अतिक्रमण भी. कबीर कई तरह से सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं. भाषाओं में, विचार में, तर्क के ढंग में, कहने के लहजे में. उनकी उलटबांसियों का अर्थ लगाना आसान नहीं है.  कबीर की कविता में निषेध बहुत प्रखर रूप से प्रकट होता है. शायद उनके सामने जिस तरह की समस्याएं थीं उन्हें देखते हुए, उन पर चोट करना यह उनका एक विशेष तरीका है. इस मामले में वह बेमुरौवत हैं. वह किसी को छोड़ते नहीं हैं. पर उनका मार्ग क्या है? 

बहुत सारी बातें उनके बारे में कही जाती हैं, पर शायद उनका मार्ग सहज का है - ‘‘सहज-सहज सब कोउ कहै, सहज न चीन्है कोय/ जिन सहजै विषया तजि, सहज कही जे सोय.’’ इस सहज को समझना कठिन है. यह सहजता, यह स्वाभाविकता कैसे आई? सहजता को जीवन में कैसे लाया जाए. सहज की खोज उनके जीवन का केंद्रीय तत्व था. इस दृष्टि से वे क्रांतिकारी विचारक के रूप में हमारे सामने आते हैं.

वह सत्य का अन्वेषण और सहज का मार्ग, यह रास्ता चुना उन्होंने जो किसी के लिए भी सुगम हो सकता है, सहज हो सकता है. एक ओर तो यह धारा है, जिसे समाज सुधारक या धर्म प्रचारक कह सकते हैं, जो भी आप नाम दे लीजिए. पर एक दूसरी धारा भी है. यह उनकी अंतरयात्ना है. वह हमेशा एक और बात पर जोर देते हैं कि भाई अपना परिष्कार करो, सुधारो. जो समय मिला है, जो जीवन मिला है, उसको हम कैसे सुधारें. ‘मैं’ को हटाइए उसके बाद आप को नया जीवन मिलेगा. बाह्याचारों को हटा करके कैसे अपने आप को समझा जाए. सहज का, आत्म-बोध का, कैसे विस्तार होगा? इसके लिए  सत्संगति भी चाहिए, गुरु  की कृपा भी चाहिए, लगन भी चाहिए और अपने आप को पहचानने की एक आतुर जिज्ञासा भी चाहिए.

Web Title: kabir das jayanti 2020: kahat kabir suno bhai sadho, know about his life

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