Justice Yashwant Varma cash row: जस्टिस वर्मा, कृपया पद छोड़ दीजिए

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: June 18, 2025 07:00 IST2025-06-18T06:59:34+5:302025-06-18T07:00:11+5:30

Justice Yashwant Varma cash row:  जस्टिस वर्मा की जांच की और उचित विचार-विमर्श के बाद पाया कि आरोपों में दम है और नगदी वास्तव में बरामद हुई है.

Justice Yashwant Varma cash row Justice Verma, please step down blog Abhishek Manu Singhvi | Justice Yashwant Varma cash row: जस्टिस वर्मा, कृपया पद छोड़ दीजिए

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Highlights तीन सदस्यों वाली इन-हाउस कमेटी गठित की गई. इसने गवाहों के बयान दर्ज किएन्यायमूर्ति वर्मा ने निःसंदेह खुद को निर्दोष बताया है और इन दावों को ‘बेतुका’ कहा है.अपने रुख पर पूरी तरह से कायम रहने का हक है,

अभिषेक मनु सिंघवी

मार्च में जस्टिस यशवंत वर्मा के घर पर हुई असाधारण बरामदगी से मैं बहुत दुखी और स्तब्ध था. एक ऐसे व्यक्ति जो असाधारण कानूनी योग्यता, महान न्यायिक दक्षता, संतुलित स्वभाव और न्यायपीठ पर संतुलन रखते थे. उनका चेहरा शांत, समझदारी का प्रतीक था. जब अग्निशमन दल घटनास्थल पर पहुंचा तो उसे जले हुए अवशेषों के बीच बेहिसाब नगदी से भरे कई बैग मिले. यह न केवल आंतरिक जांच का निष्कर्ष है, बल्कि स्वीकृत तथ्य भी है. क्योंकि न्यायाधीश का बचाव में यह कहना था कि बाहरी घर उनके विशेष नियंत्रण में नहीं था. सुप्रीम कोर्ट ने तुरंत कार्रवाई की. तीन सदस्यों वाली इन-हाउस कमेटी गठित की गई. इसने गवाहों के बयान दर्ज किए, जस्टिस वर्मा की जांच की और उचित विचार-विमर्श के बाद पाया कि आरोपों में दम है और नगदी वास्तव में बरामद हुई है.

तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर आग्रह किया कि महाभियोग प्रक्रिया शुरू की जाए.न्यायमूर्ति वर्मा ने निःसंदेह खुद को निर्दोष बताया है और इन दावों को ‘बेतुका’ कहा है. उन्होंने मीडिया पर उन्हें बदनाम करने और साजिश रचने का आरोप लगाया है. उन्हें अपने रुख पर पूरी तरह से कायम रहने का हक है,

लेकिन सिर्फ विरोध से ही इस मामले को रोका नहीं जा सकता. उन्होंने इस्तीफा देने से इनकार कर दिया और जुलाई के मध्य में मानसून सत्र शुरू होने के साथ ही उनके सामने दो विकल्प हैं: या तो वे गरिमा के साथ इस्तीफा दें या फिर संसद द्वारा बर्खास्त कर दिए जाएं. महाभियोग के लिए संवैधानिक तंत्र जानबूझकर एक किले की तरह बनाया गया है: अनुच्छेद 124(4), 124(5), और 217 के अनुसार राष्ट्रपति के आदेश की आवश्यकता केवल एक विशेष संसदीय बहुमत के बाद होती है - कुल सदस्यों का बहुमत और प्रत्येक सदन में उपस्थित और मतदान करने वालों का दो-तिहाई बहुमत.

न्यायिक स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए यह उच्च मानदंड आवश्यक है, लेकिन जब कदाचार स्पष्ट रूप से सिद्ध हो जाता है तो जवाबदेही तय करना भी उतना ही आवश्यक है. ऐतिहासिक रूप से, महाभियोग के प्रयास भारी उथल-पुथल मचाने वाले, लेकिन विरल रहे हैं. न्यायमूर्ति रामास्वामी ने 1993 में कार्यवाही का सामना किया, लेकिन लोकसभा में प्रस्ताव विफल हो गया.

न्यायमूर्ति सौमित्र सेन ने 2011 में राज्यसभा द्वारा उनके महाभियोग को मंजूरी दिए जाने के बाद लेकिन प्रक्रिया पूरी होने से पहले ही इस्तीफा दे दिया. गंगेले, नागार्जुन रेड्डी, मिश्रा और दिनाकरन जैसे न्यायाधीशों से संबंधित अन्य प्रयास या तो विफल हो गए या प्रक्रिया पूरी नहीं हो पाई. अधिकांश उदाहरण इस बात को रेखांकित करते हैं कि यह रास्ता कितना दुर्लभ और कठिन है.

न्यायमूर्ति वर्मा का मामला इसी राह पर चलता नजर आता है, जिसमें असाधारण आरोप जनता के बीच चर्चा का विषय बने हैं और आंतरिक जांच से लेकर संस्थागत जवाबदेही तक की मांग उठी है. इलाहाबाद उच्च न्यायालय बार एसोसिएशन ने महाभियोग चलाने के विचार को ‘जनता की जीत’ बताया, अनिश्चितकालीन हड़ताल पर विचार किया और यहां तक कि उनके सभी निर्णयों की फिर से जांच करने की मांग की. अन्य लोगों ने बिना सोचे-समझे कदम उठाने के खिलाफ चेतावनी दी. उन्होंने कानून के तहत उचित प्रक्रिया और प्रावधानों का पालन करने का आग्रह किया.

फैसलों को रद्द करने के लिए गलत जानकारी के साथ की गई मांगें स्पष्ट रूप से निरर्थक हैं. फिर भी, विश्वसनीयता पर ही न्याय टिका होता  है - ‘यदि विश्वास चला गया, तो सब कुछ चला गया.’ मानसून सत्र एक तूफान की तरह क्षितिज पर मंडरा रहा है. सरकार, कथित तौर पर, महाभियोग के लिए सभी दलों के समर्थन के प्रति आश्वस्त है - और केंद्रीय मंत्री इसके लिए विपक्षी नेताओं से मिल रहे हैं.

- लेकिन एक मजबूत मामले को भी राजनीतिक मंशा के दलदल से बाहर रहने देना चाहिए. सरकार को ईमानदार और पारदर्शी होना चाहिए: जवाबदेही का समर्थन करना और संस्थागत नियंत्रण हाथ में लेना एक ही बात नहीं है. एक न्याय सुनिश्चित करता है; दूसरे में पिछले दरवाजे से एनजेएसी की बू आती है, सुधार के नाम पर कार्यकारी क्षरण की.

न्यायिक स्वतंत्रता और जवाबदेही के बीच नाजुक संतुलन ही मुख्य मुद्दा है, न कि जस्टिस वर्मा की प्रतिष्ठा में गिरावट. इस गंभीर प्रक्रिया को न तो लोकलुभावन राजनीति और न ही राजनीतिक स्वार्थ से प्रभावित होना चाहिए. यदि न्यायाधीश वर्मा पद छोड़ देते हैं तो संसद को बहस, मतदान, राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप और सबसे बढ़कर संस्थागत अपमान की कठिन प्रक्रिया से बचा लिया जाएगा, क्योंकि उनके खिलाफ बहुत ज्यादा बाधाएं हैं. यदि वे पद पर बने रहने का फैसला करते हैं, तो उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की पहली बार संवैधानिक बर्खास्तगी ऐतिहासिक हो सकती है,

लेकिन राज्य के एक महत्वपूर्ण अंग के लिए बहुत अपमानजनक हो सकती है. इसलिए इसे सनसनीखेज बनाने के बजाय गंभीरता से काम लिया जाना चाहिए. यह कोई तमाशा नहीं है. हमें उम्मीद है कि मानसून सत्र में राजनीतिक फायदे के लिए कोई काम नहीं होगा. अगर संसद कोई कार्रवाई करती है, तो उसे यह ध्यान रखना चाहिए कि न्यायपालिका की गरिमा बनी रहे.

हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि न्यायपालिका को अपने नियंत्रण में करने की कोशिश न की जाए. कुछ लोग चाहते हैं कि जजों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के लिए नए नियम बनाए जाएं. विपक्षी पार्टियों को ऐसी कोशिशों का विरोध करना चाहिए. मेरी राय है कि उन्हें जस्टिस वर्मा को हटाने का समर्थन करना चाहिए, लेकिन उन्हें सावधानी से काम लेना चाहिए.

हमें यह याद रखना चाहिए कि जजों को जवाबदेह बनाना और उन्हें अपने नियंत्रण में रखना, दोनों अलग-अलग बातें हैं. आप जजों को डरा नहीं सकते. न्यायपालिका की विश्वसनीयता बहुत जरूरी है. यह संविधान का रक्षक है. अगर यह कमजोर हो गया, तो इसे दोबारा ठीक नहीं किया जा सकता.

अब यह मामला संसद और हम सब के हाथों में है. सांसदों को इतिहास को ध्यान में रखते हुए काम करना चाहिए. उन्हें संविधान की रक्षा करनी चाहिए, न्यायपालिका को साफ करना चाहिए, लेकिन बेंच की गरिमा को भी बनाए रखना चाहिए. अंत में, जो आग जस्टिस वर्मा के घर में लगी, वह हमारे देश की नैतिकता को न जलाए.

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