ब्लॉगः विकास की कीमत विनाश तो नहीं होनी चाहिए थी!
By गिरीश्वर मिश्र | Published: January 14, 2023 04:05 PM2023-01-14T16:05:00+5:302023-01-14T16:06:41+5:30
बाजार, व्यापार की बढ़ती गहमागहमी के साथ यहां भारी-भरकम निर्माण कार्य भी तेजी से होने लगे। इस तरह के विकास और प्रगति की कथा की परिणति या क्लाइमेक्स आज जिस विनाश की लीला दिखा रहा है वह मानव समाज की त्रासदियों की सूची में एक नया अध्याय जोड़ रहा है।
उत्तराखंड में विख्यात और पवित्र बद्रीनाथ धाम तथा हेमकुंड साहिब के लिए प्रवेश द्वार सरीखा ‘जोशीमठ’ आस्थावान भारतीय समाज में श्रद्धा के बड़े महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में समादृत है। पुराने जमाने से यह स्थान श्रद्धालुओं के लिए आगे के कठिन रास्ते का पड़ाव था। साथ ही रम्य पर्वतीय स्थल होने से लोगों की बढ़ती आवाजाही ने यहां पर्यटन व्यवसाय को बढ़ावा दिया और यह धार्मिक महत्व का स्थल धीरे-धीरे पैसा बनाने की कमाऊ जगह में तब्दील होने लगा। बाजार, व्यापार की बढ़ती गहमागहमी के साथ यहां भारी-भरकम निर्माण कार्य भी तेजी से होने लगे। इस तरह के विकास और प्रगति की कथा की परिणति या क्लाइमेक्स आज जिस विनाश की लीला दिखा रहा है वह मानव समाज की त्रासदियों की सूची में एक नया अध्याय जोड़ रहा है। जोशीमठ का पहाड़ी भाग पक्का पहाड़ न होकर असलियत में हिमालय का मलबा है और इसलिए अधिक भार वहन करने में अक्षम है। पर कड़वा यथार्थ यही है कि इस सत्य को झुठलाते हुए मकान-दर-मकान बनते रहे और एक बड़ी जनसंख्या यहां आबाद हो गई।
एक भरे-पूरे नगर की तर्ज पर जोशीमठ में भी छोटे-बड़े रिहायशी मकानों के अलावा जरूरत के मुताबिक अनेक होटल, अस्पताल, विद्यालय और भी लगातार विकसित होते रहे। चीन के साथ की सीमा के निकट होने के कारण सैन्य प्रतिष्ठान भी बने। इन सब ने कमजोर धरातल पर वहां की क्षमता से ज्यादा वजन डाला। विकास को गति देने के लिए एनटीपीसी के साथ और भी अनेक परियोजनाओं ने परिस्थिति के संतुलन को तबाह किया। यह सब तब हुआ जब भू- भौतिकी के वैज्ञानिकों ने अपनी अनुसंधान रपटों में पारिस्थितिकी के बढ़ते क्षरण की समस्या की ओर पिछले तीन-चार दशकों में बार-बार ध्यान आकृष्ट किया था। उन्होंने इस बात का अंदेशा जताया था कि अगर इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो भारी क्षति होगी और बड़े हादसे हो सकते हैं।
इस तरह की जानकारी की सरकारी तंत्र निरंतर उपेक्षा करता रहा। सरकार फाइलों पर सोती रही और पर्यावरण की यह विकराल चुनौती बढ़ती ही गई। सरकारें आती जाती रहीं, नेता वोट बटोर कर संसद और विधानसभा पहुंचते रहे और पहाड़ दरकता रहा।
भूधंसाव के भय के बीच आज सैकड़ों परिवार बेघर हो रहे हैं। उनके घरों में गहरी दरारें पड़ रही हैं और उनके जर्जर घरों के जमींदोज होने का खतरा आसन्न है। जमीन दरक रही है और उनके नीचे खाई बन रही है। कहते हैं अलकनंदा नदी का जल प्रवाह बढ़ता जा रहा है और पूरा क्षेत्र उसी में समा जाएगा। यह भारत और उसकी अमूल्य ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत को अपूरणीय क्षति हो रही है।