रहीस सिंह का ब्लॉग: दुनिया में बढ़ रही है भारत की अहमियत
By रहीस सिंह | Published: April 1, 2022 09:26 AM2022-04-01T09:26:56+5:302022-04-01T09:32:53+5:30
प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति पुतिन के बीच एक खास केमिस्ट्री है, इसलिए ऐसा भरोसा किया जा सकता है कि वर्ष 2022 में मोदी-पुतिन केमिस्ट्री हिंद-प्रशांत क्षेत्र में कूटनीतिक लाभांश की हैसियत में होगी।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान द्वारा भारत की तारीफ, चीन के विदेश मंत्री का भारत की यात्रा पर आना और यूक्रेन पर भारतीय दृष्टिकोण की तारीफ, रूस व इजराइल के विदेश मंत्रियों के नई दिल्ली के संभावित दौरे क्या कोई संकेत नहीं देते?
विशेषकर उन परिस्थितियों में जब इमरान खान की सरकार की सांसें उखड़ रही हों, दुनिया रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर विचलित दिख रही हो और मॉस्को, वॉशिंगटन और कीव नई दिल्ली की ओर देख रहे हों. तो क्या यह नहीं मान लेना चाहिए कि भारत इस समय विश्व व्यवस्था के निर्माण में एक प्रभावशाली भूमिका में आ चुका है?
इसमें कोई संशय नहीं कि भारत भले ही एक वैश्विक शक्ति न हो लेकिन वह यह हैसियत प्राप्त कर चुका है कि कोई ताकत भारत के बिना नई विश्वव्यवस्था (न्यू वर्ल्ड ऑर्डर) तय नहीं कर सकती. फिर तो यह भी स्वीकार किया जा सकता है कि विश्वव्यवस्था इस समय फोरसेंटर्ड (चतुष्केंद्रीय) हो चुकी है जो वॉशिंगटन, मॉस्को, बीजिंग और नई दिल्ली को रिप्रेजेंट करते हैं.
गलवान हिंसा के बाद पहली बार चीन का कोई शीर्ष अधिकारी (मंत्री) भारत दौरे पर आया, जिसे चीन के सरकारी मीडिया ने भारत-चीन में बनती निकटता के रूप में पेश किया. सवाल यह उठता है कि वह चीनी मीडिया जो मूलत: भारत विरोधी है, अपने सुर बदलने के लिए विवश कैसे हुआ? क्या यह मिशन यूक्रेन का परिणाम है अथवा बदलती परिस्थितियों ने उसे ऐसा करने के लिए विवश किया है? चीनी अखबार ग्लोबल टाइम्स ने तो अपने संपादकीय में यहां तक लिख दिया कि यूक्रेन संकट भारत-चीन के समान हितों का आईना है.
आखिर चीनी अखबार भारत और चीन के संबंधों में एकरूपता दिखाने के पीछे इतना उत्सुक क्यों हुआ? इसका उत्तर वांग यी के उस वक्तव्य में मिल सकता है जो उन्होंने भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के साथ हुई बैठक के दौरान दिया. उनका कहना था- ‘‘जब चीन और भारत एक आवाज में बोलेंगे तो दुनिया उनकी बात सुनेगी.’’ तो क्या अकेली चीनी आवाज पर दुनिया ने भरोसा जताना बंद कर दिया है?
इसमें कोई संशय नहीं होना चाहिए कि वुहान वायरस लीक थ्योरी के बाद दुनिया का चीन को लेकर अविश्वास बढ़ा है. जबकि उसी दौर में भारत ने वैक्सीन मैत्री के जरिए अपनी छवि और निखारने में सफलता अर्जित की. दूसरा यह कि भारत ने वैश्विक संबंधों में पारस्परिक सहयोग की एक ठोस बुनियाद रखी है.
वांग यी ने इस बात पर काफी जोर दिया कि चीन और भारत 280 करोड़ आबादी वाले सबसे बड़े विकासशील देश व नवोदित अर्थव्यवस्थाओं के प्रतिनिधि हैं और वैश्विक बहुधु्रवीकरण, आर्थिक भूमंडलीकरण, सभ्यताओं की विविधता, अंतरराष्ट्रीय संबंधों का लोकतंत्रीकरण बढ़ाने वाली दो मजबूत शक्तियां हैं. लेकिन दुनिया जानती है कि चीन का लोकतंत्र से कोई लेना-देना नहीं है.
अगर करीब से दुनिया को देखें तो चीन इस समय घटती हुई मांग, आपूर्ति के झटके और भविष्य की वृद्धि में कमजोरी संबंधी दबाव तथा जोखिम से गुजर रहा है. बाहरी और आंतरिक अनिश्चितताओं और जटिलताओं के कारण उसका आर्थिक परिदृश्य नकारात्मक है. वहां कभी भी प्रॉपर्टी का बुलबुला फूट सकता है. रूस स्वयं को सोवियत यूनियन में ले जाना चाह रहा है और अमेरिका पूर्वस्थिति बहाल रखना चाहता है.
लेकिन प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति पुतिन के बीच एक खास केमिस्ट्री है, इसलिए ऐसा भरोसा किया जा सकता है कि वर्ष 2022 में मोदी-पुतिन केमिस्ट्री हिंद-प्रशांत क्षेत्र में कूटनीतिक लाभांश की हैसियत में होगी. लेकिन जो बाइडेन एक शिथिल और दिशाहीन विदेश नीति के साथ आगे बढ़ते दिख रहे हैं. यही दोनों स्थितियां भारत के लिए अवसर बनती दिख रही हैं.
महाशक्तियों अथवा वैश्विक शक्तियों से अलग, सन्निकट पड़ोस अपने हितों की रक्षा के लिए भारत की ओर देख रहे हैं. कारण यह कि अमेरिका-चीन टकराव और कोविड-19 महामारी के कारण यह क्षेत्र अनिश्चितता और परिवर्तनशील व बाधित हो रही सप्लाई चेन सहित कुछ अन्य संकटों से गुजर रहा है. चीन निरंतर अपना प्रभावक्षेत्र बढ़ा रहा है जो इस क्षेत्र में अनिश्चितता व अस्थिरता का कारण बन रहा है. मध्य-पूर्व फिलहाल इस समय उस प्रकार की भू-राजनीतिक सक्रियता का केंद्र नहीं है जैसा कि पिछले दो दशकों में देखा गया है. इसकी दो वजहे हैं.
पहली यह कि कोविड-19 महामारी ने उन शक्तियों को फिलहाल कई कदम पीछे धकेल दिया है जो इस क्षेत्र में अपनी महान चालों (ग्रेट गेम्स) में उलझाए रखती थीं. अब वे स्वयं रणनीति के बजाय अर्थनीति पर काम करने के लिए विवश हैं. दूसरी - इस क्षेत्र के कुछ देश आर्थिक पुनर्निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं ऐसे में उन्हें उन देशों के सहयोग की जरूरत है जो वैज्ञानिक, अन्वेषी और नवोन्मेषी हैं. भारत इस मामले में काफी आगे है इसलिए भारत के साथ इस क्षेत्र के संबंध काफी बेहतर हुए हैं.
इस समय यूरोप वैश्विक कूटनीति में कोई खास भूमिका निभाता हुआ नहीं दिख रहा है. इसके लिए कई कारण जिम्मेदार माने जा सकते हैं. पहला यह कि यूरोप एकता एक आदर्शवादी विचार है जिसे ढोने में यूरोपीय देश नाकामयाब रहे. दूसरा- यूरोप शायद आज भी औपनिवेशिक युग की मानसिकता से बाहर नहीं आ पाया है, जबकि 21वीं सदी की दुनिया इससे बहुत आगे निकलती हुई दिख रही है. तीसरा-यूरोप ने अर्थव्यवस्था के जिस आदर्शवादी लेकिन कृत्रिम धरातल को निर्मित किया था, वह दरक रहा है.
इन्हें निवेश और सप्लाई चेन बनाए रखने के लिए जो कुछ चाहिए वह यूरोप के बाहर है लेकिन उसे चीन व रूस रोक रहे हैं. यूरोपीय देश इन अवरोधकों को समाप्त करना चाहते हैं लेकिन यह हो कैसे? अमेरिका उनका इस्तेमाल करना चाहता है, रूस के साथ वे हैं नहीं और चीन पर वे भरोसा नहीं कर पा रहे हैं. फिर बचा कौन? स्पष्टत: भारत.