गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: शिक्षकों का दायित्व और शिक्षण क्षेत्र की गहराती चुनौती
By गिरीश्वर मिश्र | Published: September 4, 2020 03:12 PM2020-09-04T15:12:12+5:302020-09-04T15:12:12+5:30
जीवन की जटिलता बढ़ने के साथ-साथ गुरु की भूमिका भी नए आयाम प्राप्त कर रही है और उसके लिए जरूरी कुशलताओं की सूची भी व्यापकतर हो रही है.
इतिहास गवाह है कि ज्ञान, विज्ञान और प्रौद्योगिकी ही नहीं, राजनीति और सामाजिक विकास में भी गुरु जनों की युगांतरकारी भूमिका रही है. आज के युग में जब औपचारिक शिक्षा जीवन का एक मुख्य कार्य बन चुकी है, गुरु की महत्ता और भी बढ़ गई है.
जीवन की जटिलता बढ़ने के साथ-साथ गुरु की भूमिका भी नए आयाम प्राप्त कर रही है और उसके लिए जरूरी कुशलताओं की सूची भी व्यापकतर हो रही है.
शिक्षा के क्षेत्र में गुरु और उनके गुरुकुलों की अनेक गाथाएं हम सब बचपन से सुनते आए हैं. गुरुकुल नगर से दूर आश्रम होते थे जहां विद्याध्ययन ही एकमात्र कार्य होता था.
अंग्रेजों के आगमन के समय भी पाठशालाओं, मदरसों और अन्य विद्या केंद्रों की स्थिति भारत के व्यापक समाज की शिक्षा के लिए जिस भी रूप में थी उसे अंग्रेजी शासन के दौरान कमजोर किया गया और अंतत: वे भारत में निरक्षरता का प्रसार करने में सफल रहे और ऐसी शिक्षा प्रक्रिया और विषयवस्तु को स्थापित कर गए जिसने भारतीय मानस को पश्चिमी सोच-विचार की पद्धति के साथ अनुबंधित कर दिया.
ज्ञान की साधना और आवश्यक जीवन मूल्यों को स्थापित करने की चुनौती की जगह नौकरी अर्थ-साधन को ही लक्ष्य बन दिया गया.
स्वतंत्र भारत में शिक्षा और शिक्षक की स्थिति में कई तरह के बदलाव आए हैं. लोकतंत्र की प्रक्रिया के तहत शिक्षा का बड़ा प्रसार हुआ और मात्रा की दृष्टि से प्राथमिक से विश्वविद्यालय स्तर तक की शिक्षा की संस्थाओं का प्रचुर संख्या में विस्तार हुआ है.
इनमें सरकारी, अर्ध सरकारी और गैर-सरकारी(निजी) हर तरह की संस्थाएं सम्मिलित हैं जिनके मिश्रित परिणाम दिख रहे हैं. तथापि गुणवत्ता की दृष्टि से अध्यापक, विद्यार्थी, अभिभावक, नीति निर्माता और नियोक्ता हर किसी की नजर में असंतोष बढ़ा है. साथ ही शिक्षा का व्यवसायीकरण तेजी से बढ़ा है और अध्यापक कई तरह से प्रभावित हो रहे हैं.
स्कूली शिक्षा की अपर्याप्तता के कारण ट्यूशन और कोचिंग का बहुत बड़े पैमाने पर फैलाव हुआ है जिसमें पैसे का आकर्षण है. दूसरी ओर प्राथमिक विद्यालयों से ले कर विश्वविद्यालयों तक में अध्यापकों की नियुक्ति को ले कर कानूनी, प्रक्रियागत अवरोध तथा राजनैतिक दखल जैसे अन्यान्य कारणों से इतनी बाधाएं आती रहती हैं कि वर्षों से अध्यापन ठीक से नहीं हो पा रहा है.
आज शिक्षण-प्रशिक्षण की खानापूरी और परीक्षा की रस्म अदायगी मात्र हो रही है. फलत: डिग्रीधारी शिक्षक तो बढ़ रहे हैं परंतु उनके पास अपेक्षित शिक्षण-कौशल नहीं है. छोटे बच्चे बड़ी शीघ्रता से सीखते हैं लेकिन अकुशल अध्यापकों के भरोसे शिक्षा की दुर्गति होती है. अध्यापकों की सेवा शर्तों और वेतन आदि को ले कर अनेक विसंगतियां बनी हुई हैं.
नियमित नियुक्ति न होने से तदर्थ (एडहाक) या अतिथि अध्यापक के रूप में लोग बड़ी संख्या में कार्यरत हैं और उनसे काम भी खूब लिया जाता है परंतु वेतन बहुत कम दिया जाता है. पूरे देश में इस तरह के वेतन की दर भी एक जैसी नहीं है. एक ही तरह के कार्य के लिए पचीसों तरह के वेतन की व्यवस्था है और वह भी प्रदेश की सरकारों की मनमर्जी पर निर्भर करती है.
प्राथमिक स्कूलों की स्थिति और दुखद है क्योंकि उनके अध्यापकों से राज्य सरकारें अध्यापन के अतिरिक्त नाना प्रकार के कार्य करवाती हैं. अध्यापक शिक्षा की धुरी होते हैं और सामान्यत: अध्यापकों का मनोबल कम हुआ है. शिक्षा-जगत की लालफीताशाही को ले कर शिक्षा के सभी हितधारी खिन्न हैं.
नई शिक्षा नीति एक महत्वाकांक्षी दृष्टिकोण से आगे बढ़ रही है जिसमें 3 वर्ष से 18 वर्ष की अवधि तक के आयु वर्ग को समाविष्ट किया गया है. इस दृष्टि से भारतीय भाषा, ज्ञान, कला और स्थानीयता पर बल देते हुए इक्कीसवीं सदी के उपयुक्त कौशलों के विकास के लिए एक सशक्त अध्यापक शृंखला तैयार करनी होगी. अच्छे अध्यापक शिक्षा संस्थानों का विकास जरूरी होगा.
व्यावसायिक शिक्षा के लिए भी अध्यापकों की तैयारी आवश्यक होगी. बहुअनुशासनात्मकता के ढांचे में पूर्व प्राथमिक, प्राथमिक, माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक स्तर के शिक्षकों को तैयार करना एक बड़ी चुनौती है.
‘गुरु’ शब्द में अंतर्निहित गाम्भीर्य हमारे मन में एक ऐसी छवि उपस्थित करता है जिसके आगे कोई भी कल्पना ओछी पड़ जाती है. आशा है समाज के मानस की रचना की गम्भीरता को समझते हुए न केवल शिक्षक शिक्षण के लिए प्रतिबद्ध हो कर कदम उठाया जाएगा बल्कि उनकी सेवा शर्तों और कार्य संस्कृति में भी बदलाव लाया जाएगा.