ब्लॉग: गांधी चाहिए या गोडसे? राजनीतिक दलों की सोच को परखें मतदाता
By विश्वनाथ सचदेव | Published: June 7, 2023 07:40 AM2023-06-07T07:40:41+5:302023-06-07T07:43:56+5:30
महात्मा गांधी की महत्ता और महानता को आज दुनिया स्वीकारती है. हालांकि, विडंबना ये है कि आज जब देश की राजनीति के संदर्भ में कई मौकों पर गांधी बनाम गोडसे की बात शुरू हो जाती है.

गांधी चाहिए या गोडसे? (फाइल फोटो)
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और देश के पूर्व सांसद राहुल गांधी जब अमेरिका के हालिया दौरे के दौरान देश की राजनीति को ‘गांधी बनाम गोडसे’ के संदर्भ में समझाने का प्रयास कर रहे थे तो देश के टीवी चैनलों पर होने वाली बहसों में भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता गोडसे मुर्दाबाद का नारा लगाने के लिए लगभग बाध्य किए जा रहे थे. गांधी की महत्ता और महानता को आज दुनिया स्वीकारती है.
दुनिया का शायद ही कोई ऐसा देश होगा जहां महात्मा गांधी की कम-से-कम एक मूर्ति न लगी हो. इंग्लैंड में तो संसद के सामने उस महात्मा की मूर्ति लगाई गई है जिसे कभी ‘अधनंगा फकीर’ कहा गया था. हकीकत यह भी है कि दुनिया का कोई भी राजनेता ऐसा नहीं है जो भारत की राजधानी में आया हो और राष्ट्रपिता की समाधि पर सिर झुकाने न पहुंचा हो. सवाल राष्ट्रपिता की मूर्तियों या उनकी समाधि पर सिर झुकाने का नहीं है, सवाल है उन मूल्यों और आदर्शों की स्वीकार्यता का जिनके लिए गांधी जिये और मरे.
गांधी ने दुनिया को सत्य और अहिंसा का संदेश दिया था, गांधी ने बुरे को नहीं, बुराई को समाप्त करने की आवश्यकता समझाई थी. गांधी उस रामराज्य के पक्षधर थे जिसमें ‘सब नर करहिं परस्पर प्रीति’ और जहां सब ‘चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति’. एक और विशेषता थी गांधी के उस रामराज्य की जिसमें तुलसी के अनुसार प्रजा को अधिकार था अपने राजा के गलत आचरण पर उंगली उठाने का. इसे प्रजा का अधिकार नहीं कर्तव्य कहा गया था. आज जब देश में गांधी बनाम गोडसे की बहस फिर से चलाई जा रही है तो रामराज्य के इन सारे संदर्भों को भी समझने की आवश्यकता है.
विडंबना यह भी है कि एक ओर तो गांधी की महानता के समक्ष सिर झुकाया जा रहा है और दूसरी ओर उन्हें राष्ट्रपिता कहे जाने पर भी कुछ लोगों को आपत्ति है. दुर्भाग्य से इन कुछ लोगों में वे सांसद और प्रवक्ता भी हैं जो भगवान राम द्वारा ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ कहे जाने का उदाहरण देते हुए किसी के ‘भारत- माता’ के पिता होने की विसंगति को रेखांकित करते हैं. उन्हें इस बात की भी शिकायत है कि महात्मा गांधी ने स्वयं को महात्मा या राष्ट्रपिता क्यों कहा?
हकीकत यह है कि गांधी को महात्मा कहने-समझने की बात सबसे पहले गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने की थी और उन्हें सबसे पहले राष्ट्रपिता कहने वाले सुभाष चंद्र बोस थे. बहरहाल, आज सवाल यह नहीं है कि गांधी को राष्ट्रपिता किसने और क्यों कहा, सवाल यह है कि गांधी ने जो आदर्श हमारे सामने रखे थे, जिन मूल्यों को स्वीकारा और जिनके अनुरूप आचरण किया था, ‘सत्यं वद धर्मं चर’ का जो उदाहरण प्रस्तुत किया था, उसके प्रति हम भारतवासी कितने ईमानदार हैं?
गांधी के इन सब मूल्यों-आदर्शों के नकार का नाम है गोडसे. गांधी का विरोध किया जा सकता है, उनके तौर-तरीके को गलत बताया जा सकता है, उनके कहे पर सवाल उठाये जा सकते हैं. लेकिन इससे न तो गांधी की महत्ता कम होती है और न ही उनके कहे-किए को गलत सिद्ध किया जा सकता है. गोडसे की सोच और तौर-तरीकों में विश्वास करने वाले गांधी की हत्या को गांधी का वध भले ही मानते-कहते रहें, पर सब समझते हैं कि गांधी की हत्या के सारे तर्क निरर्थक हैं.
गांधी एक विचार का नाम था और विचार का मुकाबला विचार से ही किया जा सकता है. यही किया जाना चाहिए. गांधी की अहिंसा को, सत्य के प्रति उनकी निष्ठा को, जीवन के प्रति उनकी सकारात्मक सोच को गलत साबित करना होगा, तभी गोडसे-भक्तों की बात में कुछ दम हो सकता है.
दुर्भाग्य की बात यह भी है कि आज गांधी के नाम पर राजनीति की जा रही है. गांधी की दुहाई देकर या गांधी का विरोध करके राजनीतिक स्वार्थ साधने की कोशिश की जा रही है. दोनों ही बातें गलत हैं. गांधी के बताए रास्ते पर चलने का दावा करने वालों को यह भी सिद्ध करना होगा कि वह राजनीतिक स्वार्थों की सिद्धि के लिए ऐसा नहीं कर रहे और गांधी का विरोध करने वालों को भी यह बताना होगा कि कहां और क्यों वे गांधी से असहमत हैं.
यहीं इस बात को भी रेखांकित किया जाना जरूरी है कि आज देश में ऐसे लोगों की एक अच्छी-खासी जमात है जो गांधी के आदर्शों-मूल्यों को समझती-स्वीकारती तो नहीं, पर उनके नाम का राजनीति लाभ उठाने का कोई अवसर छोड़ना भी नहीं चाहती. भाजपा की सांसद साध्वी प्रज्ञा ने गांधीजी के बारे में जो कुछ कहा उससे सहमत होना आसान नहीं है. हमारे प्रधानमंत्रीजी ने भी स्पष्ट कहा था कि वह प्रज्ञा सिंह ठाकुर के इस बयान को स्वीकार नहीं कर सकते कि नाथूराम गोडसे देशभक्त था. उन्होंने यह भी कहा था कि वे इसके लिए साध्वी प्रज्ञा को कभी मन से माफ नहीं कर पाएंगे. लेकिन हैरानी की बात है कि प्रधानमंत्री के ऐसा कहने के कुछ दिन बाद ही प्रज्ञा सिंह ठाकुर को भाजपा ने संसद के लिए अपना उम्मीदवार बना दिया. यह भी कम हैरानी की बात नहीं है कि वे चुनाव जीत भी गईं. ये दोनों बातें सोचने को मजबूर करने वाली हैं.
बहरहाल, आज जब देश की राजनीति के संदर्भ में गांधी बनाम गोडसे की बात चल रही है तो हमें, यानी हर भारतवासी को, यह सोचना होगा कि वह सत्य और अहिंसा के पक्ष में है या झूठ और हिंसा के? हर मतदाता को देश के राजनीतिक दलों की सोच को परखना होगा, राजनेताओं की कथनी और करनी को समझने की कोशिश करनी होगी. जनतंत्र में हर नागरिक से यह अपेक्षा की जाती है. हमें देखना है कि इस कसौटी पर हम कितना खरा उतरते हैं.