राजेंद्र दर्डा का ब्लॉग: पद्म पुरस्कार : ‘आजाद’ हैं, ‘गुलाम’ नहीं
By राजेंद्र दर्डा | Published: January 28, 2022 11:14 AM2022-01-28T11:14:55+5:302022-01-28T11:14:55+5:30
बता दें कि अटल बिहारी वाजपेयी ने 1992 में जब पद्म विभूषण स्वीकारा था तो देश के प्रधानमंत्री कांग्रेस के पी.वी. नरसिंह राव थे।
क्या हर मामले को राजनीति के ही चश्मे से देखा जाना चाहिए? या कुछ विषय हैं जिन्हें हमेशा इससे परे ही रखना चाहिए. किसी भी पक्ष के साथी को पद्म पुरस्कार मिलने पर आखिर किसी दूसरे को मिर्ची लगने की क्या वजह हो सकती है?
इस जिक्र की वजह है वरिष्ठ पूर्व केंद्रीय मंत्री व जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद को घोषित पद्म भूषण पुरस्कार पर कांग्रेस के ही वरिष्ठ नेता जयराम रमेश द्वारा की गई निम्न स्तर की टिप्पणी. प. बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने उन्हें मिला पद्म पुरस्कार लेने से इंकार कर दिया.
इसी मुद्दे की आड़ लेकर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने गुलाम नबी आजाद पर जो टिप्पणी की वह न केवल तर्कहीन है बल्कि इस पुरस्कार का अपमान करने वाली भी है. भट्टाचार्य द्वारा पुरस्कार स्वीकारने से इंकार के बाद रमेश ने कहा, ‘योग्य ही किया, उनकी इच्छा गुलाम नहीं आजाद रहने की है.’ जयराम रमेश की यह टिप्पणी संकुचित मानसिकता का द्योतक है और अब तक देश के लिए दिए गए योगदान का अपमान है.
पद्म पुरस्कार किसी सरकार, राजनीतिक दल या विचारधारा का नहीं बल्कि देश द्वारा दिया जाने वाला पुरस्कार है. विरोधी विचारधारा की सरकार द्वारा अपनी पार्टी के किसी व्यक्ति को दिया गया पुरस्कार स्वीकारना किसी को अगर गुलामी प्रतीत होता है तो उसकी तुलना कुएं के मेंढक से ही की जा सकती है.
देश के महान नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने 1992 में जब पद्म विभूषण स्वीकारा था तो देश के प्रधानमंत्री कांग्रेस के पी.वी. नरसिंह राव थे. कांग्रेस की विचारधारा के धुर विरोधी होने के बावजूद वाजपेयी ने वह पुरस्कार अस्वीकार करने की भूमिका नहीं अपनाई थी.
पद्म पुरस्कार देश के सबसे बड़े नागरिक सम्मानों में से एक है और उसे राजनीति से परे ही रखना चाहिए. यह तर्क मूलत: ही गलत है कि गुलाम नबी द्वारा पुरस्कार को स्वीकारने का मतलब सरकार की भूमिका और भाजपा की विचारधारा को समर्थन देना होगा.
कांग्रेस के वार्ड अध्यक्ष से कैरियर की शुरुआत करके जम्मू-कश्मीर जैसे अशांत राज्य के मुख्यमंत्री, फिर केंद्रीय मंत्री और राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष जैसे सम्माननीय पदों को गुलाम नबी आजाद ने विभूषित किया. उनकी राजनीतिक यात्र के दौरान कांग्रेस की निष्ठा किसी भी विवाद से परे है.
जम्मू-कश्मीर की अस्मिता को कायम रखने के लिए पूरा जोर लगाने के दौरान भी वह अपने व्यवहार-विचारों से यह सुनिश्चित करते थे कि देश की विरोधी ताकतों को किसी भी तरह से इसका फायदा न हो. यही वजह है कि वह कभी भी जम्मू-कश्मीर के विवादित नेताओं की सूची में नहीं रहे.
बेहद तल्ख बयानबाजी से अशांत माहौल को और अधिकउत्तेजक बनाने वालों में उनका नाम कभी नहीं आता था. इसके विपरीत वह इस तरह के नेताओं से दो हाथ दूर ही रहते थे. उनके महाराष्ट्र के साथ भी सुमधुर संबंध थे.
वह वाशिम के सांसद थे और राज्यसभा में महाराष्ट्र से ही चुनकर गए थे. राज्य के अनेककांग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ उनके स्नेहिल संबंध और प्रेम भरा संवाद आज भी कायम है.
जात-पांत, धर्म से ऊपर उठकर कांग्रेस के धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को सहेजने वाले नेता हैं वो. महाराष्ट्र के अनेक नेता इसका अनुभव ले चुके हैं. उन्हें पद्म भूषण घोषित करके केंद्र सरकार ने उनके व्यक्तित्व के साथ उनकी विचारधारा का भी सम्मान किया है.
विरोधी विचारधारा के व्यक्ति को सम्मानित करने की भूमिका जबकि मोदी सरकार ने अपनाई है, उसी खिलाड़ी भावना का प्रदर्शन कर उन्हें स्वीकार कर यह पुरस्कार राजनीति से परे है, यह साबित होगा.
हर किसी को गुलाम नबी आजाद को बधाई देनी चाहिए. जयराम रमेश इससे पहले भी अपने रुख के कारण विवादों में रह चुके हैं. गुलाम नबी आजाद के बारे में उनकी ट्विटर पर की गई टिप्पणी से पुराने विवादित बयान अब सामने आना तय है.
अपने ही दल के वरिष्ठ व्यक्ति को अगर उनके कामों के लिए पद्म पुरस्कार मिलने वाला है तो इसमें जयराम रमेश को मिर्ची लगने की क्या जरूरत है? जयराम रमेश एक बौद्धिक व्यक्ति हैं और उनसे ऐसे बेमतलब के संकुचित विचारों की उम्मीद नहीं है.
उन्होंने गुलाम नबी आजाद की खिल्ली उड़ाने के दौरान पद्म पुरस्कारों का भी मजाक उड़ाया है. यह कांग्रेस की सोच और परंपरा के अनुसार बिलकुल ही नहीं है. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल, पूर्व केंद्रीय विधि व न्याय मंत्री अश्वनी कुमार, बेहद होशियार नेता शशि थरूर आदि ने जयराम रमेश को ट्विटर पर जमकर खरी-खोटी सुनाई है.
यह सभी नेता संघ-भाजपा की विचारधारा के मुखर विरोधी हैं और उससे मुकाबले में आगे रहते हैं, लेकिन उन्होंने प्रतिद्वंद्विता और पुरस्कार के महत्व के बीच गफलत नहीं होने दी है.
आजाद को यह पुरस्कार लेना चाहिए या नहीं, इसे लेकर कांग्रेस में शायद विभिन्न भूमिकाएं अपनाई जाएंगी. वैचारिक मतभिन्नता कांग्रेस में कोई नई बात नहीं है. कुछ महीने पहले कांग्रेस के 23 वरिष्ठ नेताओं (जी-23) ने कांग्रेस नेतृत्व को एक पत्र लिखा था. उसमें शामिल होने के कारण गुलाम नबी आजाद पर कांग्रेस में ही निशाना साधा जाना योग्य नहीं है.
गुलाम नबी आजाद को पुरस्कार कतई अस्वीकार नहीं करना चाहिए बल्कि खुशी से स्वीकारना चाहिए. विचारों की लड़ाई विचारों से ही चलती रहेगी. देश के नागरिक सम्मान को ठुकराना इस लड़ाई का माध्यम नहीं हो सकता.