Election Commission of India: सामंती सोच में बदल रहा दुनिया का लोकतंत्र?
By राजेश बादल | Published: December 3, 2024 05:24 AM2024-12-03T05:24:23+5:302024-12-03T05:24:23+5:30
Election Commission of India: अमेरिका हो या रूस, चीन हो या पाकिस्तान या फिर दुनिया के नक्शे में सिर्फ 53 साल पहले वजूद में आया बांग्लादेश.
Election Commission of India: संसार के अनेक छोटे-बड़े मुल्कों में अब सामूहिक नेतृत्व का नजरिया विलुप्त हो रहा है. लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचन के बाद चुने गए राष्ट्रप्रमुख अपनी कार्यशैली से राजशाही की याद दिलाते दिखाई देते हैं. खेद की बात है कि सभ्य और साक्षर राष्ट्रों के निवासी अपने तंत्र में आ रही इस खराबी पर चुपचाप हैं. वे अब अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए नहीं लड़ते, बल्कि उसी व्यवस्था का हिस्सा बन जाते हैं, जिस सामंती तंत्र को उनके देश सदियों पहले पीछे छोड़ आए हैं. अमेरिका हो या रूस, चीन हो या पाकिस्तान या फिर दुनिया के नक्शे में सिर्फ 53 साल पहले वजूद में आया बांग्लादेश. पहले बात पड़ोसी बांग्लादेश की. वहां निर्वाचित शेख हसीना वाजेद की सरकार को एक गिरोह ने षड्यंत्रपूर्वक अपदस्थ कर दिया.
शेख हसीना को जान बचाकर भारत में शरण लेनी पड़ी. इसके बाद इस हुजूम ने नए मुखिया के रूप में मोहम्मद यूनुस को चुन लिया. एकबारगी हम मान लेते हैं कि शेख हसीना के प्रति अवाम में नाराजगी थी तो व्यवस्था कहती है कि नए चुनाव कराए जाएं और उसमें लोग अपनी सरकार को उखाड़ फेंकें. यह नहीं हुआ.
इसके बाद अंतरिम मुख्य सलाहकार के रूप में तख्तापलट करने वालों ने जिसे चुना, उसका पहला कर्तव्य यही था कि संसद भंग करके नए चुनाव कराए जाते. लेकिन यह अंतरिम सरकार जिस ढंग से काम कर रही है, वह तो निर्वाचित सरकार के कामकाज को भी मात देने वाली है. बिना जनादेश लिए अंतरिम सरकार ऐसे-ऐसे निर्णय ले रही है, जिन्हें लेने के लिए चुनी गई सरकार को भी पापड़ बेलने पड़ते.
हैरत की बात है कि बांग्लादेश की जनता में देश के संवैधानिक चरित्र के खिलाफ काम करने वाली हुकूमत के प्रति कोई गुस्सा नहीं है. जिस पाकिस्तान ने करोड़ों बांग्लादेशियों पर क्रूर और अमानवीय जुल्म ढाए, अब सत्ता में बैठा जत्था उसी के इशारे पर नाच रहा है. अर्थ यह कि गलत और अनैतिक तंत्र के रंग में आम आदमी भी रंगा दिखाई दे रहा है.
यह कठपुतली सरकार संविधान बदलना चाहती है, अल्पसंख्यकों के हक कुचलना चाहती है और सारे लोकतांत्रिक प्रतीकों को नष्ट करना चाहती है. यहां तक कि अपने राष्ट्रगीत को इसलिए बदलना चाहती है क्योंकि उसे एक हिंदू अर्थात गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने लिखा है. जिस बांग्ला भाषा के आधार पर उसका गठन हुआ, उसकी पहचान ही समाप्त करने की पहल हो रही है.
एक तरह से पाकिस्तान का इतिहास दोहराया जा रहा है. वहां का पहला राष्ट्रगीत हिंदू शायर जगन्नाथ आजाद ने लिखा था लेकिन उसे बदलकर हफीज जालंधरी का लिखा राष्ट्रगीत स्वीकार किया गया. उस दौर के पाकिस्तान में जो घटा था, बांग्लादेश में वही दोहराया जा रहा है. विश्वमंच पर प्रकटे नए नवेले राष्ट्र के बाद आते हैं स्वयंभू चौधरी अमेरिका पर.
जब से वहां राष्ट्रपति चुनाव हुआ है और सत्तारूढ़ पार्टी को हार मिली है, तब से मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडेन बौखलाहट में वह कर रहे हैं, जो लोकतंत्र में पराजित प्रतिनिधि को नहीं करना चाहिए. यह लोकतंत्र का मान्य सिद्धांत है कि चुनाव में पराजय के बाद विजेता के पदभार संभालने तक हारी पार्टी कामचलाऊ सरकार की तरह ही काम करती है.
नैतिक और वैध आधार उसे महत्वपूर्ण तथा नीतिगत निर्णय लेने से रोकता है. मगर बाइडेन ऐसे संवेदनशील निर्णय ले रहे हैं, जो आने वाली सरकार के लिए मुश्किल खड़ी कर सकते हैं. यह फैसले रक्षा और विदेश मामलों से जुड़े हुए हैं. अगले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने प्रचार अभियान के दरम्यान रूस-यूक्रेन के बीच जंग एक दिन में रोकने का ऐलान किया था.
ट्रम्प सीधे-सीधे रूस का पक्ष ले रहे हैं. इसके बाद भी जो बाइडेन ने यूक्रेन को आर्मी टेक्टिकल तंत्र और उसकी भारी मिसाइलों का उपयोग कर रूस की सीमा में मार करने की अनुमति दे दी. अब अमेरिकी अवाम और ट्रम्प ठगे से देख रहे हैं. यह लोकतंत्र की हार नहीं तो और क्या है? इसी कड़ी में आप यूक्रेन को शामिल कर सकते हैं.
यह मेरी राय है कि राष्ट्रपति जेलेंस्की ने जानबूझकर अपने देश को जंग की आग में झुलसने के लिए मजबूर किया है. यह वैसा ही है कि यदि पाकिस्तान अपनी सीमा पर चीन की सेनाओं को तैनात करने की इजाजत दे दे तो भारत क्या करेगा? हाल यह है कि यूक्रेन के राष्ट्रपति गद्दी नहीं छोड़ना चाहते. उनका कार्यकाल छह महीने पहले समाप्त हो चुका है, लेकिन जंग के नाम पर वे चुनाव कराने को तैयार नहीं हैं.
एक सर्वेक्षण के मुताबिक पूरे यूक्रेन की जनता नया राष्ट्रपति चाहती है, जो युद्ध खत्म कराए. जेलेंस्की पद नहीं छोड़ना चाहते. राष्ट्रपति बनने से पहले वे मिमिक्री कलाकार रहे हैं. राष्ट्रपति बनने के बाद भी वे देश से मसखरों जैसा व्यवहार कर रहे हैं. वे कहते हैं कि जब तक देश में मार्शल लॉ लगा है, तब तक पद से कैसे हटें? दिलचस्प यह कि मार्शल लॉ लगाने का आदेश भी उन्होंने ही जारी किया था.
जेलेंस्की संविधान का ही पालन नहीं कर रहे हैं. यह लोकतंत्र का मखौल नहीं तो और क्या है. दूसरी ओर रूसी राष्ट्रपति इसी जंग के दौरान देश में चुनाव करा चुके हैं. यह अलग बात है कि रूसी राष्ट्रपति के तौर-तरीके सब जानते हैं. उन्हें हटाने वाला कोई नहीं है. फिर भी उन्होंने चुनाव तो कराए ही. अमेरिका के पिछलग्गू यूरोप के देश भी हैरान हैं.
अमेरिका के आगे दुम हिलाने के अलावा उनकी कोई नीति नहीं है. क्या यह अटपटा नहीं लगता कि जिस अमेरिका के इशारे पर वे आज यूक्रेन की मदद कर रहे हैं, डोनाल्ड ट्रम्प के आने पर वे रूस के समर्थन में आ जाएंगे. ऐसे में क्या वे अपने मुल्क के मतदाताओं के साथ धोखा नहीं करेंगे? कमोबेश यही हाल चीन का है.
शी जिनपिंग तीसरी बार राष्ट्रपति चुने गए. उनके खिलाफ कोई उम्मीदवार ही नहीं था. यह चीनी लोकतंत्र है. शी जिनपिंग छह साल पहले ही संविधान को तोड़-मरोड़कर अपने लिए असीमित आजादी प्राप्त कर चुके हैं. संसार में सबसे अधिक मतदाताओं वाला यह देश दशकों से लोकतंत्र का उपहास कर रहा है. लेकिन अवाम आवाज नहीं उठा सकती. जागो मतदाता जागो.