ब्लॉग: शिक्षा के दबाव से लगातार बढ़ती छात्रों की आत्महत्या
By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Published: February 27, 2023 04:40 PM2023-02-27T16:40:17+5:302023-02-27T16:57:34+5:30
आपको बता दें कि कोचिंग क्लासों का गढ़ कोटा हो या फिर कोई अन्य शहर या कस्बा, विद्यार्थी की आत्महत्या समाज की बड़ी चिंता का विषय है, जिसके लिए अकादमिक विद्वानों के भी संवेदनशील होने की आवश्यकता है। ऐसे में गरीब-अमीर, दलित-सवर्ण, देसी-परदेशी, होशियार-सामान्य विद्यार्थी जैसे अनेक भेद शिक्षा प्रांगण से हमें बाहर निकाले जाने की जरूरत है।
नई दिल्ली: परीक्षाओं का मौसम हो या फिर परिणामों की घड़ी, विद्यार्थियों की आत्महत्या आम हो चली है. कोचिंग क्लास से जुड़े छात्र-छात्रएं हों या संस्था-संस्थान में पढ़ने वाले हों, आत्महत्या के अधिकतर मामले शिक्षा से जुड़े हुए ही सामने आते हैं.
उनमें गैर शैक्षणिक गतिविधियों का जिक्र कम ही होता है. यदि देश में रोजगार और शिक्षा को जोड़कर देखा जाए तो दबाव निश्चित है. मगर यदि क्षमताओं के आकलन के साथ परिस्थितियों को देखा जाए तो बहुत कुछ संभाला जा सकता है.
पिछड़े वर्ग के लोगों के बीच आम होती जा रही है आत्महत्याएं- प्रधान न्यायाधीश
बीते दिनों मुंबई स्थित राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी-बॉम्बे) में एक छात्र की कथित आत्महत्या का मामला बीते शनिवार को देश के प्रधान न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने उठाया और कहा कि संस्थान छात्रों को आत्महत्या के लिए मजबूर कर गलती करते हैं. इसलिए उन्हें पता लगाना चाहिए कि वे कौन-सी गलती कर रहे हैं. इसके साथ ही उनका मानना था कि पिछड़े वर्ग के लोगों द्वारा आत्महत्याएं आम होती जा रही हैं.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के बीते सालों में विद्यार्थियों की आत्महत्या के मामलों से पता चलता है कि वर्ष 2020 की तुलना में वर्ष 2021 में इनकी संख्या में लगभग 4.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई. इनमें से लगभग आधे पांच राज्यों महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और ओडिशा के थे.
महाराष्ट्र में सबसे ज्याजा 14 प्रतिशत होती है आत्महत्याएं
आंकड़ों के अनुसार छात्रों की कुल आत्महत्याओं में से महाराष्ट्र की 14 प्रतिशत, मध्य प्रदेश की 10 प्रतिशत, तमिलनाडु की 9.5 प्रतिशत और कर्नाटक की 6.5 प्रतिशत घटनाएं थीं. इससे साफ है कि छात्रों के समक्ष समस्याओं का समाधान नहीं ढूंढ़ा जा रहा है.
क्यों करते है बच्चे आत्महत्या
आज शिक्षा का दबाव केवल संस्थान के नाम पर उस समय लिखा जा सकता है, जब विद्यार्थी महाविद्यालयीन शिक्षा के लिए वहां जाता है किंतु इन दिनों तनाव की परिस्थितियां तो स्कूली जीवन से ही बन जाती हैं. समाज और परिवार परीक्षा परिणामों के आंकड़ों के मुकाबले में बच्चों को उनके मन की बात कहने का अवसर नहीं देता है. उन्हें केवल दूसरों के मन से सुनना और उस पर ही चलकर दिखाना जरूरी होता है.
यही वजह है कि एक समय के बाद विद्यार्थी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरने पर अपराधबोध से ग्रस्त होने लगते हैं, क्योंकि उनकी नाकामी की जिम्मेदारी उन पर ही थोप दी जाती है, जिससे असफलता से जूझने का कोई रास्ता नहीं मिलता है.
सामर्थ्य से अधिक अपेक्षा करना खतरे से नहीं है खाली
कोचिंग क्लासों का गढ़ कोटा हो या फिर कोई अन्य शहर या कस्बा, विद्यार्थी की आत्महत्या समाज की बड़ी चिंता का विषय है, जिसके लिए अकादमिक विद्वानों के भी संवेदनशील होने की आवश्यकता है. गरीब-अमीर, दलित-सवर्ण, देसी-परदेशी, होशियार-सामान्य विद्यार्थी जैसे अनेक भेद शिक्षा प्रांगण से बाहर निकाले जाने की जरूरत है.
अपेक्षाओं के पहाड़ के साथ क्षमताओं की स्थिति पर भी ध्यान देने की विशेष आवश्यकता है. तभी दबावरहित शिक्षा सुनिश्चित की जा सकेगी. वर्ना सामर्थ्य से अधिक अपेक्षा का संकट विद्यार्थियों की जान की कीमत से तय होगा और जिसके जिम्मेदार परिवार, समाज और संस्थाएं सभी होंगे.