मौत के ये भयावह आंकड़े क्या रेलवे को नहीं डराते...?
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: June 11, 2025 07:43 IST2025-06-11T07:43:41+5:302025-06-11T07:43:44+5:30
आप वंदे भारत जैसी ट्रेनों को शुरू करके फूले नहीं समाएं, ये बात अपनी जगह है लेकिन ये बात ज्यादा सच है कि भारत की जरूरतों के अनुरूप भारतीय रेल के पास क्षमताएं नहीं हैं.

मौत के ये भयावह आंकड़े क्या रेलवे को नहीं डराते...?
ठाणे में दो लोकल ट्रेनों से गिरकर चार लोगों की मौत हो गई. सरकार ने उनके परिवारों को पांच-पांच लाख रुपए देने की घोषणा कर दी. जो लोग मरे उनके परिवार में मातम की कुछ तस्वीरें छप गईं, सोशल मीडिया पर थोड़ा-बहुत हल्ला मच गया. एक-दो दिन चर्चा होगी और फिर सब कुछ यथावत हो जाएगा.
चूंकि यात्रियों के गिरने की ये घटना अलग तरह से हुई और चार की मौत के साथ कुछ लोग घायल भी हो गए, इसलिए हल्ला मचा. अन्यथा मुंबई में लोकल ट्रेन से गिर कर औसतन हर रोज पांच लोगों की मौत हो जाती है. कहां कोई हल्ला मचता है? जो लोग घर से काम के सिलसिले में या फिर जो बच्चे या युवा पढ़ाई के लिए घरों से निकलते हैं, उनमें से औसतन पांच यमराज के पास चले जाते हैं.
अभी जो हादसा हुआ, उसका दृश्य खींचते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं. दोनों ट्रेनों के दरवाजों पर इतने सारे लोग लटके हुए थे कि जब दो ट्रेनें एक-दूसरे को पार कर रही थीं तो लटके हुए लोगों के कंधों पर टंगे बैग आपस में टकरा गए और लोग नीचे गिर पड़े! दो पटरियों के बीच काफी जगह होती है.
इसके बावजूद यदि लोगों के कंधों पर टंगे बैग टकराए तो सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि दरवाजे पर कितने लोग टंगे होंगे! जिन लोगों ने मुंबई लोकल ट्रेनों में भीड़ देखी है या सफर किया है, वे जानते हैं कि स्थिति क्या होती है! खासकर सुबह और शाम के समय इन लोकल ट्रेनों में चढ़ना एक तरह से जांबाजी का काम है.
लेकिन लोग क्या करें? काम की जगह और घर के बीच की दूरी तय करने के लिए यही सबसे सस्ता साधन है. मुंबई लोकल में हर रोज औसतन 80 लाख लोग सफर करते हैं. वक्त के साथ मुंबई लोकल में काफी बदलाव हुए हैं लेकिन क्या ये बदलाव जरूरत के अनुरूप रहे हैं?
व्यवस्था का तकाजा तो यह है कि भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखकर अभी से व्यवस्था की जानी चाहिए लेकिन मुंबई और उपनगरीय रेल सेवा को देखकर तो ऐसा नहीं लगता! जब समस्या सिर चढ़ कर बोलने लगती है, आलोचनाएं शुरू होती हैं तब योजनाएं बनती हैं. उदाहरण के लिए मुंबई में लोकल ट्रेनों के संचालन में वक्त के अंतराल को ही लें. काफी लंबे समय से लोकल ट्रेनें 180 सेकंड के अंतराल पर चल रही हैं.
भीड़ जिस तरह से बढ़ती चली गई है, उससे रेलवे के प्रशासकीय अधिकारियोंं को यह समझना चाहिए था कि वक्त के इस अंतराल को यदि कम करेंगे तो ज्यादा ट्रेनें चल पाएंगी और लोकल ट्रेनों में भीड़ खतरनाक स्तर को पार नहीं करेगी. लोगों को दरवाजे पर लटकने की जरूरत नहीं पड़ेगी. हालांकि रेल मंत्री ने इस वर्ष की शुरुआत में भरोसा दिलाया था कि अब लोकल ट्रेनों के बीच समय के अंतराल को घटाकर 120 सेकंड किया जाएगा.
यदि ऐसा हो पाए तो निश्चय ही मुंबई को बहुत राहत मिलेगी और हर रोज जो पांच लोग मौत के मुंह में चले जाते हैं, वो शायद बच पाएंगे! मुंबई के बाहर भी ट्रेनों की स्थिति ठीक नहीं चल रही है. आप उत्तर भारत में चले जाएं तो हर ट्रेन में इतनी भीड़ दिखेगी कि आम आदमी रिजर्वेशन लेने के बाद भी यह सुनिश्चित नहीं कर पाता कि उसकी यात्रा सुखद होगी.
रेलवे ने घोषणा की थी कि रिजर्वेशन वाली बोगी में सामान्य यात्रियों को सवार नहीं होने दिया जाएगा लेकिन आज क्या स्थिति है? रेलवे के अधिकारी से लेकर मंत्री तक क्या कलेजे पर हाथ रख कर कह सकते हैं कि नियमों का पालन हो रहा है? और नियमों का पालन हो भी कैसे? पर्याप्त संख्या में आरक्षित बर्थ उपलब्ध ही नहीं है! साठ दिन पूर्व जैसे ही रिजर्वेशन खुलता है, कुछ ही मिनटों में आरक्षित सीटें भर जाती हैं. बर्थ का कुछ हिस्सा तत्काल कोटे में रखा जाता है लेकिन वह भी अपर्याप्त ही है.
क्या रेलवे इसके लिए किसी योजना पर काम कर रही है? छुट्टियों के दिनों में कुछ समर स्पेशल ट्रेनें चलाई जाती हैं लेकिन क्या वो ट्रेन कभी समय पर चलती हैं? ऐसी बहुत सी बातें हैं जिन पर शायद रेलवे के अधिकारियों का कोई ध्यान ही नहीं है. आप वंदे भारत जैसी ट्रेनों को शुरू करके फूले नहीं समाएं, ये बात अपनी जगह है लेकिन ये बात ज्यादा सच है कि भारत की जरूरतों के अनुरूप भारतीय रेल के पास क्षमताएं नहीं हैं. समय पर ट्रेनों के संचालन की बात तो छोड़ ही दीजिए. यह तो शायद भारतीय रेल के एजेंडे में ही नहीं है. सुरक्षा की भी कोई गारंटी नहीं! पता नहीं कब कहां दुर्घटना हो जाए!